धर्म संसदों के आयोजन पर उठते सवाल

पटना हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश और वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली की उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका को स्वीकृति मिली है, जिसमें हरिद्वार में हुई धर्म संसद में दिये गये भाषणों के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई है। यह धर्म संसद दिसम्बर 17 और 19 को अलग-अलग संस्थाओं द्वारा आयोजित की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने आवेदनकर्ताओं से यह भी आग्रह किया है कि आने वाले दिनों में आयोजित होने वाली ऐसी सारी घटनाओं पर वे याचिकाएं प्रस्तुत करते रहें।धर्म संसद की वीडियोज़ आज सार्वजनिक रूप से हर जगह प्राप्य हैं जिनमें वक्ताओं ने एक समुदाय विशेष के विरुद्ध हिंसा का खुला आह्वान किया गया। पूरी सभा, पूरी तरह हमारे संविधान के विरुद्ध थी। यह तथ्य कि ऐसी सभा को खुली अनुमति मिली, उत्तर प्रदेश की कानून और व्यवस्था की विफलता का एक ज्वलंत उदाहरण है।हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा आयोजित इस सभा में राजनीतिक प्रभाव भी साफ-साफ  दिखाई दे रहा था, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इसमें सक्रिय सहयोग था। यह संगठन पूरी तरह राजसत्ता पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखता है। यह हमारे देश को पूरी तरह अपने सिद्धांतों के आधार पर निर्मित करना चाहता है, जिसमें हमारा इतिहास, हमारी विचारधारा और राजनीति भी शामिल है। धर्म संसद उसी का एक उदाहरण है। यह हमारी बहुआयामी संस्कृति का निषेध करता है और अंधराष्ट्रवाद का प्रचार करता है। यह हिन्दुत्ववाद की एकलता में विश्वास रखता है और इसमें अल्पसंख्यकों का मात्र आत्म-समर्पण ही नहीं, बल्कि देश की सम्पूर्ण जनता की चेतना पर काबू पाना चाहता है।आर.एस.एस. के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के दीर्घकालीन संपादक के.आर. मलकानी के अनुसार, ‘वस्तुत: संघ (आर.एस.एस.) राजनीतिक संस्था के रूप में अपने को कभी नहीं देखता। इसकी दिलचस्पी मूलत: उन तथ्यों और शक्तियों में होती है जो देश की राजनीति का निर्माण करती हैं।’उन्होंने इसे स्पष्ट रूप से राजनीतिक नहीं बताने की कोशिश की, पर यह एक बचने की राह ही थी, क्योंकि इससे किसी भी दायित्व से मुक्ति मिल जाती है। इसलिये उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और केंद्र सरकार की इस पूरी घटना पर चुप्पी रखना दायित्वहीनता को स्पष्ट करती है, जबकि इस सभा में खुले तौर पर नस्लवाद और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा की मांग की गई थी। हरिद्वार संसद ने देश में एक नये युग की शुरुआत का संकेत दिया है जिसमें धर्म और राजसत्ता एक साथ मिलकर देश में शासन चला रहे हैं। यह जनता के समक्ष फासीवाद, जनवाद, आज़ादी और अंत में जीने के अधिकार को भी छीने जाने की अपनी नीयत को उचित ठहराने की कोशिश कर रही थी लेकिन इन सबके बावजूद उम्मीद आज भी बाकी है। आज भी वे सारी ताकतें जिन्दा हैं जो जनता की आवाज़ को निडर होकर रखती हैं। इसका एक अहम उदाहरण है तेरह महीनों तक चलनेवाला किसानों का दिल्ली की सीमाओं पर धरना, जो बारिश और ठंड, तपती गर्मी और सरकारी दमन के बावजूद बेखौफ  अपने इरादों पर कायम रहा। जब धरना खत्म हुआ तो सफलता उनके सामने थी।ये सभी जनता के ज़मीन से जुड़े नेता थे, किसी भी तरह के समझौते से इन्कार करने वाले और फासीवाद के सामने मजबूत चुनौती रखने वाले। इन्हें इटली के जनप्रिय नेता ग्राम्शी ने ‘ऑर्गेनिक’ की संज्ञा दी थी। ग्राम्शी को इटली की फासीवादी सरकार ने जनता से दूर रखने के लिये आठ वर्षों तक जेल में रखा, लेकिन उस दौरान भी वह जनता के लिये लिखते रहे। इस सेवा-निवृत्त अफसरों ने भाजपा सरकार से मांग की है कि हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता पर चोट पहुंचाने वाली इन असंवैधानिक गतिविधियों पर तत्काल रोक लगाई जाये क्याेंकि इस तथ्य से ही कि इस सम्मेलन की इजाज़त दी गई, इससे राज्य की कानून व्यवस्था का पता चलता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरज़ोर विरोध के बावजूद तीन व्यक्तियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कर ली गई है। (संवाद)

कृष्णा झा