रूप बदलने वाला जानवर
किसी गांव में एक शिकारी रहता था। जब गांव वाले अपने खेतों में काम करने जाते तो वह जंगल की तरफ निकल जाता-शिकार की तलाश में। उसे पशु-पक्षियों को सताने में आनंद मिलता था। गांव वाले अक्सर उसे समझाते कि जानवरों को सताना छोड़ दे पर वह मानता नहीं था।
एक दिन शिकारी जंगल में दूर निकल गया। वहां जा पहुंचा जहां आज से पहले वह कभी नहीं गया था। वहां ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। धरती झाड़ियों से ढकी हुई थी। झाड़ियों में खर-खर की आवाजें होने लगीं। शिकारी के पास तीर-कमान और गुलेल थी पर न जाने क्यों वह घबरा गया। जल्दी-जल्दी लौट चला लेकिन घबराहट में उसे दिशा ज्ञान न रहा। वह गलत रास्ते पर बढ़ चला। सूरज छिप चला था। तभी शिकारी को थोड़ी दूर पर एक गुफा दिखाई दी। उसमें प्रकाश हो रहा था। उसने सोचा-‘शायद यहां कोई आदमी मौजूद है।’
शिकारी गुफा में घुस गया। गुफा बहुत बड़ी नहीं थी। एक तरफ आग जल रही थी। रह-रहकर उसमें से चिंगारियां छिटक रही थीं। आग के पास ही कुछ पत्थर पड़े हुए थे। उन पर आड़ी-तिरछी लकीरें बनी थीं।
शिकारी पत्थर की लकीरों को देखने लगा। वह कुछ समझ न सका। फिर उसने देखा कि उन पत्थरों का रूप बार-बार बदल जाता है। उसने एक पत्थर हाथ में उठा लिया। गौर से देखने लगा। हाथ में उठाते ही पत्थर का वजन बढ़ने लगा। पत्थर उसके हाथ से छूटकर आग में जा गिरा। आग बुझ गई। एक पल को अंधेरा छा गया, फिर पत्थर चमकने लगा। आवाज आई-‘शिकारी, तुमने जादूगर की किताब देख ली है। बोलो तुम्हें क्या चाहिए? तुम क्या बनना चाहते हो?’
कुछ देर बाद फिर आवाज आई-‘डरो मत। तुम पहले आदमी हो, जिसने जादूगर की किताब को हाथ में उठाया है। बोलो?’
उसने कहा- ‘मैं सब कुछ बनना चाहता हूं।’
‘तुम सब कुछ बनोगे-जाओ।’ -आवाज आई और पत्थर की चमक खो गई। शिकारी गुफा से बाहर आ गया। बाहर सूरज डूब रहा था। हल्के उजाले में उसकी नज़र अपने पैरों पर पड़ी और वह चीख उठा। उसके पैर जानवर के पंजों में बदल गए थे। फिर धीरे-धीरे उसका सारा ही शरीर एक रीछ का बन गया। शिकारी भागा। वह सोच रहा था-‘हे भगवान, यह क्या हो गया मुझे।’ तभी उसका शरीर फिर बदलने लगा। अब वह एक लंगूर बन गया था। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह एक नए जानवर में बदल जाता था।
रोता-कांपता शिकारी सारी रात भागता रहा। उसका दम घुटा जा रहा था। अब वह अपने घर की तरफ बढ़ रहा था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। रूप बदलने वाले विचित्र जानवर की खबर तेजी से सब तरफ फैल गई थी। बस्ती के पास पहुंचा, तो गांव वालों ने उस पर पत्थरों की बौछार की। तीर चलाए। जलते हुए कपड़े फेंके। शिकारी को बार-बार जंगल में भागना पड़ता था। आस-पड़ोस के बहुत से शिकारी इकट्ठे होकर हर समय उसका पीछा करते थे जिससे उसे मारकर गांव वालाें का संकट दूर करें। कभी-कभी वह सोचता था- ‘शायद जानवर भी मेरे तीरों से बचने के लिए ऐसे ही भागा करते होंगे।’ एक दिन उसका पीछा करने वाले काफी नज़दीक आ गए। वह भागा जा रहा था। एकाएक उसे वही गुफा दिखाई दी। वह गुफा में घुस गया। उसने देखा, पहले की तरह आग जल रही थी। पत्थरों पर लिखी जादुई किताब भी पड़ी थी।
शिकारी जोरों से रो पड़ा। वह फर्श पर अपनी नाक रगड़ रहा था। कह रहा था-‘यह मैं क्या बन गया? मुझे आदमी ही रहने दो।’
आवाज आई-‘आदमी तो तुम पहले भी थे पर तुम्हें संतोष नहीं था। तुम न जाने क्या बनना चाहते थे। अब क्यों परेशान होते हो?’
‘नहीं, मैं आदमी बनना चाहता हूं, अच्छा आदमी।’-शिकारी चिल्लाया और बेहोश हो गया। उसे होश आया, तो वह खुले में, पेड़ों के नीचे पड़ा था। गुफा कहीं नहीं थी। उसका शरीर फिर पहले जैसा हो गया था। शिकारी उठा और पागलों की तरह हंसने लगा। वह बार-बार आकाश की ओर नमस्कार करके चिल्ला रहा था- ‘मैं बच गया, मैं बच गया।’
उस दिन के बाद से उसने शिकार का क्रूर धंधा छोड़ दिया। अब वह पशु-पक्षियों से नफरत नहीं, प्यार करना सीख गया था। (उर्वशी)