मझदार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
अभी रीता का नामांकन नहीं हुआ था। सभी एक साथ रात्रि के भोजन से निपटकर अपने-अपने शयनकक्ष में समाए थे कि रामू काका ने आवाज लगाई जो घबराहट से भरी हुई थी।
‘क्या हुआ काका।’ अमरेश ने पूछा।
‘मालकिन की तबीयत अचानक खराब हो गई।’
अमरेश मां के कमरे की तरफ दौड़ा। नब्ज टटोलते हुए कहा, ‘अभी डाक्टर को फोन करता हूं।’
तब तक रीता भी आ गई थी।
अक्सर नमिता देवी के स्वास्थ्य में उतार-चढाव होते रहता। और एक दिन आखिरी बुलावा भी आ गया।
मां के गुजरने के पश्चात सारा भार अमरेश पर आता इसके पहले ही अनुभवी रामू काका ने सारा भार अपने कंधों पर लेकर अमरेश के गमगीन, उदासी व मायूसी को जैसे लपक लिया।
कालेज का पढ़ाई पूरी कर अमरेश कंपनी को संभाल लिया था। रीता का पढ़ाई अभी पूरा नहीं हो पाया था। उसका कालेज अपने शहर जमशेदपुर से तकरीबन दो सौ किलोमीटर मीटर दूर सिंदरी में हुआ था।
अमरेश हकीकत से रू-ब-रू होकर तन्मयता से काम में पूरी तरह से लग गया था। वह अपने फार्म का मैनेजर हो गया था।
जीवन निर्विघ्न खुशियों की पटरी पर सरक ही रहा था तभी रीता के पत्रों के न आने के कारण अमरेश के मन में हलचल पैदा कर दी। और वह अपने मंगेतर से मिलने सिंदरी आ गया था।
अमरेश अभी इन्हीं विचारों में खोया ही था कि विपरीत दिशा से आते वाहन का हार्न सुन वह चौंक पड़ा। यथार्थ के धरातल पर आते ही अमरेश को ऐसा लगा मानो किसी ने उसके पैरों के शिराओं में दौड़ रहे खून को बेदर्दी से निचोड़ लिया हो।
शाम की गाड़ी पकड़कर अमरेश अगली सुबह अपने शहर आ गया था। घर आते ही रामू काका ने अमरेश के चेहरे के उतरे भाव को देखकर पूछ दिया, ‘अमरेश बहू ने कुछ कहा क्या?’
अमरेश निरूतर हो गया था। वह क्या जबाब दे काका को।
‘अच्छा आने दो बहू को। काका ने कहा, ‘उससे मैं पूछूंगा आखिर उसने कौन सी ऐसी दुखती रंग को पकड़कर झिझोड़ा कि हरदम हंसती चेहरे पर उदासी की परत लहराने लगी।
‘काका अब वह नहीं आएगी।’
‘क्यों बेटा?’ रामू काका अवाक होकर बोले।
‘बस इतना जान लीजिए कि न वह आपकी बहू है ना ही मुझसे कोई रिश्ता। समझ लीजिए हवा का एक झोंका था जो अनजाने में इस आलिशान कोठी के भीतर सोलह साल तक कैद था। और यहां से निकलने का रास्ता तलाश रहा था।
‘तुम क्या कर रहे हो अमरेश।’ काका भौचक सा हो गए थे।
‘जब तक नाव घाट पर न लग जाए उसे किनारा न मिल जाए तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता। वह अपने लक्ष्य पर पहुंचेगी या भटक जाएगी।’ रामू काका की आश्चर्यता बढ़ती जा रही थी बोले, ‘बेटे तुम पहेलियां क्यों बुझा रहे हो साफ-साफ कहो ना।’
‘रीता को मंजिल मिल गई काका।’
‘उसकी मंजिल तो तुम हो अमरेश।’
‘नहीं काका उसकी मंजिल मैं नहीं कोई और था।’ इतना कह अमरेश बुझे कदमों से अपने शयनकक्ष की ओर बढ़ा और शीघ्र ही निकलते हुए बोला, ‘काका मेरी अनुपस्थिति में रीता आ भी जाए तो आप एक बुजुर्ग होने के नाते उसे कचरे का ढेर समझकर घसीटकर बाहर का रास्ता दिखा दीजिएगा और उससे कहिएगा कि आज से तुम्हारे लिए इस घर का दरवाजा सदा के लिए बंद हो गया। और मैं जानता हूं ये नौबत शीघ्र ही आने वाली है। क्योंकि इस माह मैंने हास्टल खर्च नहीं भेजा है।’ इतना कह अमरेश दफ्तर जाने के उद्देश्य से कार लेकर शीघ्र निकल गया।
काका अमरेश को खामोशी दृष्टि से जाते देखते रहे। उन्हें पूरा यकीन था कि अमरेश कभी गलत नहीं हो सकता। रीता ने हीं उसकी भावनाओं के साथ खेला है। नाली के कीड़े को यदि शुद्ध वातावरण में रखा जाए तब भी वह हमेशा फिसलकर उस ओर ही लपकेगा।
एक-एक कर ऐसे ही कई दिन सरक गए। महीने का पहला सप्ताह बीत गया और अमरेश का मनिआर्डर नहीं आया तो रीता का माथा ठनका। रीता के पास का पैसा कब का समाप्त हो गया था और ऊपर से सहेलियों का उधार भी चढ़ गया था।
रीता अमरेश के बारे में सोचती रही। आखिर क्या बात हो गई अमरेश के साथ। अब तक तो उसे मनीआर्डर मिल जाता था। पत्र में वह हमेशा ही लिखा करता है अमरेश, ‘रीता भले ही मेरी दिनचर्या गड़बड़ा जाए परंतु निश्चित तिथि को पैसा भेजने मैं हरगिज नहीं गड़बड़ा सकता।’ यदि वह निश्चित को पैसे भेजा होता तो अब तक उसे मिल जाना हुए दो चार दिन हो जाना चाहिए था। इधर रमेश भी कई दिनों से नहीं आ रहा। कहीं रमेश ने धोखा दे दिया तो? उसका अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा। अमरेश में क्या कमी थी जो रमेश की तरह मुखातिब हुई। अपना सर्वस्व तक अर्पित कर दिया।
तभी उसका ध्यान रमेश की तरफ से हटकर अमरेश की ओर चला गया। क्या वह अमरेश को धोखा नहीं दे रही। स्वयं रीता ने भी इधर अमरीश को पत्र लिखना छोड़ दिया है। भले ही उसका आंतरिक मामला कुछ भी हो पर समाज की नज़रों में अमरेश की भावी पत्नी है। अभी वह अकेलेपन से लड़ ही रही थी तभी उसकी सहेली पूजा ने आकर उसकी विचार श्रृंखला भंग की, ‘कहां खोई हो हो रीता। अभी तक तुम्हारा मनिआर्डर नहीं आया?’
‘नहीं पूजा मुझे जाना होगा। लग रहा है अमरेश की तबीयत खराब है। नहीं तो कब का मनिआर्डर आ गया होता।’
‘कब जा रही हो।’
‘कल तड़के सुबह की गाड़ी से।’
सुबह की गाड़ी पकड़कर रीता अमरेश के पास आ गई थी। जनरल वार्ड के धक्के खाकर वह थककर चुरा हो गई थी। किसी तरह एक सहेली के समक्ष हाथ पसारकर जनरल वार्ड का किराया जुगाड़ कर पाई थी। (क्रमश:)