और मैं बड़ी हो गई
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
मिनी अपनी मां की सखी है, उसकी हर आहट से उसके अंतरमन के तट को छू आती है, उसकी आंखों में छुपे हुए डर को, हर सवाल को पढ़ लेती है। मन की गहराइयों में छुपे जख्मों के छालों को कभी-कभी अपनी बालपन की ऐसी ही बातों से फोड़ आती है-ताकि मां के दिल का दर्द, जहर बनने के पहले आंसू बनकर बह निकले। मां के मन के संघर्ष से वह भली-भांति परिचित थी, उठते हुए बवंडर से भी वाकिफ थी, पर कहती कुछ न थी। अपनी तरफ से एक अनजान दिखावे को ओढ़कर वह विचरती रहती, पर नज़र चारों ओर घूमती, उस घर की चारदीवारी के अंदर और बाहर। उसे यह भी पता रहता था कि कहां क्या हो रहा है। ऊंच-नीच समझने का सामर्थ्य उसमें है। बस मां के जख्मी दिल को और चोट न पहुंचे इसलिए वह ऐसे ही सवालों से उसे टटोलती। जब मां के पास उन सवालों का कोई जवाब न होता तो वह घर की दहलीज, उसकी मर्यादा के सुर का सुर आलापते हुए रोती। अपने मन में छुपे हुए भय को मिनी के साथ यह कहते हुए बांटती-‘बेटा हर घर की एक कहानी होती है, एक मर्यादा होती है। जब एक घर की बेटी, दूजे घर की बहू बनकर उस घर की चौखट के भीतर पांव धरती है तो वह लाजवंती बन जाती है।’ मिनी बस मां को इसी घर और उसकी दहलीज की मर्यादा के सुर आलापते हुए सुनती...पर आज बात का रुख बेरुख-सा बनता जा रहा था। शायद मां अपने भीतर के डर को शब्दों में ढाल पाने में असमर्थ हो रही थी...!
‘बेटा घर की बात घर में ही रहे तो बेहतर। मुझे तेरी भी तो चिंता लगी रहती है। सालभर में कोई अच्छा लड़का देखकर तेरी शादी कर दूँगी, तेरी कश्ती पार हो जाए, फिर मेरी नैया का जो हो सो हो। तेरा भाई तो लड़का है, जिंदगी के सफर में मर्दों को कई दिशाएं मिलती हैं। कई मोड़ आते हैं जहां वे अपना मनचाहा पड़ाव डाल लेते हैं!
‘मां यह छूट सिर्फ मर्दों को ही क्यों होती है, औरत को घर की चौखट से क्यों बांधकर रखा जाता है? क्या औरत उस आजादी की हकदार नहीं...?’ मिनी अपने मन की भड़ास सवालों में घोलने लगी। ‘बेटा, आजादी और हक...!’ मां बस इतना ही कह पाई।
‘हां मां, मर्यादा के नाम पर औरत से आज़ादी छीनी क्यों जाती है?’ मिनी के स्वर में कड़वाहट थी। ‘आजादी के भी दायरे होते है मिनी। मर्दों की आज़ादी को तो दुनिया गवारा कर पाती है पर औरत का एक गलत कदम, उसकी मर्यादा को कलंकित कर जाता है। और उसके बाद उम्मीदों के सारे दरवाजे अपने आप उस पर बंद होते चले जाते हैं।’
अब मिनी कुछ संजीदा होकर गौर से सुनने लगी और सोचती रही कि माँ क्यों ऐसा कह रही है और कहना क्या चाह रही है? और ऐसी क्या बात है, जो मां इतनी भयभीत है। कोई तो अनजाना डर है जो भीतर ही भीतर उसे खाए जा रहा है। शायद जो वह मुझसे कहना चाह रही है, उसकी जुबान उसका साथ देने में समर्थ नहीं है।
पिताजी ने प्रांगण के उस पार कुछ आंतक जैसा माहौल बना रखा है, जिसमें कुछ मदहोशी के आलम को बनाए रखने का सामान सजा हुआ था, पान का बक्सा, बीड़ियों के चन्द छल्ले, यहां-वहां बिखरी हुई माचिस की तीलियां, देसी दारू की भरी और खाली बोतलें, जिनकी महक से वह कमरा गंधमय होता जा रहा था। कभी-कभी मां को लातों से मारकर पिताजी उसे इस कमरे की सफाई की ताकीद करते हुए मिनी सुन तो लेती, पर वह नहीं जानती है कि मां वह काम कब करती है? उसने खुली आंखों से कभी नहीं देखा, पर जानती ज़रूर है कि उनकी पलकों में नींद भर जाने के बाद वह यह काम करती रही होगी-यह है मां। सोच के भी डर लगने लगता है कि ऐ औरत ! क्या यही तेरी कहानी है? क्या कभी इन बेजुबान रिश्ते जख्मों को देखकर इन्सान का दामन आंसुओं से नहीं भरता? और ऐसे कई नागवार सिलसिलों को देखकर, उन्हें महसूस करते हुए जैसे मां के साथ वह भी वही दौर जी रही हो-उन दरिंदों के चंगुल का शिकार बनकर, जिनमें इन्सानियत का नामों-निशान दूर तक बाकी नहीं। आज घर के आंगन को पार करते हुए दो बार मैत्री पिछवाड़े के कमरे में पिताजी के साथ बेधड़क भीतर चली गई थी और तब मां की आंखों की उदासी और गहरी होती हुई देखी थी उसने। मिनी की पैनी नज़रों से यह सब छुपा नहीं रहता। ‘माँ तुम किस सन्दर्भ में बात कर रही हो? तुमने कौन-सा डर मन में पाल लिया है मुझे बताओ, शायद मैं अपने ढंग से कुछ सोच पाऊं और किसी सुझाव का दरवाजा खटखटा सकूं। समस्या का समाधान तो निकाला जा सकता है, पर जब तक तुम कहोगी नहीं...!’
मां कुछ कह न पाई, शायद उसे हर आहट पर एक अनचाहा डर सामने आता हुआ नज़र दिखाई दे रहा था। समाधान की संभावना ऐसे में कहां दिल को ढांढस बंधा पाती? शायद इस घर में रहते-रहते मां यह जान गई थी की समाधान की जांच पड़ताल एक घटना के गुजर जाने के उपरांत हुआ करती है, और उसके अंतिम चरण में पहुंचने के पहले दूसरी घटना घट चुकी होती है! हल राहों में ही छल लिए जाते हैं। ‘मिनी...’ और मां आंसुओं के दरिया में डूबती हुई नज़र आई। ‘मां कहो ना क्या बात है जो तुम चाहकर भी मुझसे नहीं कह पा रही हो?
‘बेटी तुम्हारे पिता तुम्हारे रिश्ते की बात कर रहे थे... और मैं जानती हूँ उन रिश्तों की नींव कितनी कमजोर होती है।’ मां ने कुछ झिझक भरे स्वर में धीमे से कहा।
मिनी सुनकर जैसे बहरी हो गई, और मां कहती रही-‘बस कोई लड़का तलाश करके तेरे हाथ पीले करना चाहती हूँ और यही प्रार्थना करूंगी कि तू इस घर से दूर, बहुत दूर चली जा, जहां ये जहरीली हवाएं तेरी सांसों में घुटन न पैदा कर सके!’ उसी समय चरमराती आवाज के साथ पुराने दरवाजे का किवाड़ खुला और अंदर आने वालों में सबसे पहले दिखाई दिये पिताजी, उनके साथ मुंह में पान दबाये, इठलाती, कमर लचकाती, मुस्कराती मैत्री और साथ में एक नवयुवक का नया चहरा नज़र आया, जो अपनी भूखी नज़र मिनी पर डालता हुआ आंगन से गुजरकर उस पार वाले कमरे में चला गया।
पर आज जो हुआ वह पहले कभी नहीं हुआ। और जो गुजरा वह हादसा था...इस हादसे के गुजर जाने के बाद लग रहा है मैं बड़ी हो गई हूँ! वहीं उसी चौखट पर मेरा बचपन लुट गया, मासूमियत लुट गई, वह नटखटता, वह चुलबुलाहट, वह खिलखिलाहट उस हैवानियत के आगे घुटने टेक कर रह गई। शायद अमानुष बनना ज्यादा आसान है। मनुष्य तो बस कीमत चुकाने के लिये होता है! (समाप्त) (सुमन सागर)