चौरासी का चार

दोपहर लगभग डेढ़-दो का वक्त था। अशोक विहार, दिल्ली के ढाबे पर संजय की आंखें खाने की प्लेट पर गढ़ी थीं, और उसके कान ट्रैन्ज़िस्टर सेट से चिपके हुए थे। ऐसा लग रहा था, कान ट्रैन्ज़िस्टर के अंदर समा जाएंगे। आखिर चिपकें भी क्यों न, दिलीप वेंगसरकर की पहली एक दिवसीय सेंचुरी बनते दिख रही थी। सियालकोट में पाकिस्तान के खिलाफ दूसरा एक दिवसीय मुकाबला। भारत के 200 रन बन चुके थे। संदीप पाटिल अभी-अभी आउट हुआ था, 59 रन बना कर। लगभग दो ओवर का खेल अभी बाकी था। 
कटोरी में लोबिया, जिसे रोंगी भी कहते हैं, की लज़ीज़ रसदार सब्जी आधा से ज्यादा पड़ी हुई थी। यहां के लोबिया का स्वाद आम ढाबों के लोबिया से भिन्न होता है, अन्यथा बिहारियों को लोबिया-राजमा कहां पसंद आता है। दरअसल अशोक विहार शॉपिंग सेंटर के इस ईटरी को ढाबा कहना अनुचित होगा। ढाबों को उनकी खास पहचान देता सामने का तंदूर कहीं नज़र नहीं आता। रोटियां भी तवे पर सिंकी हुई फुलके होती थीं, सुंदर, सुकान्त, तंदूर वाली एक साइड से सिंकी, जली-कटी नहीं। तभी शायद स्टूडेंट्स इसे ‘ईटिंगजॉइन्ट’ कहा करते थे, ढाबा नहीं। ‘ईटिंगजॉइन्ट’ कुछ ‘हेपसाउन्ड’ करता था, और ढाबा! शायद सड़क छाप, आमतौर सड़क के बाजू में ही तो होता है ढाबा।  
श्रवण, उस ईटरी का मुलाजिम, संजय की प्लेट में तीसरी रोटी, चुपड़ी हुई, डाल रहा था। लोबिया की तरह ही मक्खन चुपड़ी रोटियां भी इस ‘जॉइन्ट’ को खास बनाती थीं। भारत की पारी 210 रन पर समाप्त हो गई थी। वेंगसरकर की सेन्चुरी नहीं हो पाई। वह 94 रन पर नाबाद पैवेलियन लौटा था। निर्धारित 40 ओवर का खेल खत्म हो गया था। वेंगसरकर की सेन्चरी पूरी नहीं हो पाई थी, फिर भी 94 पर नाबाद रहने की खुशी थी उसे। रवि शास्त्री का 8 बॉल खेल कर 6 रनों का योगदान था। 
1983 के विश्व कप की जीत से भारत एक दिवसीय क्रिकेट के कैन्वस पर अपने दस्तखत छोड़ चुका था। देश जीत का स्वाद चख चुका था। वर्तमान भारत-पाक शृंखला के पहले मुकाबले में शिकस्त से दूसरे मैच में भारत घायल शेर की तरह उतरा था। पहले मैच में मात्र 195 का स्कोर खड़ा कर अगर पाकिस्तान जीत सकता था, फिर 210 तो उस समय के मानदंडों के हिसाब से एक अपराजेय चुनौती थी। इस स्कोर के साथ भारत की जीत निश्चित सी दिख रही थी। 
संजय अपनी तीसरी रोटी खा चुका था, चौथी का इंतजार कर रहा था। मेरी चौथी रोटी, चुपड़ी हुई, पेट को भेंट हो गई थी। मेरी कटोरी की स्वादिष्ट लोबिया की सब्जी भी खल्लास हो चुकी थी पर संजय की कटोरी में लोबिया अभी शेष था, उसकी चौथी रोटी के लिए। चौथी रोटी लिए श्रवण संजय की तरफ मुखातिब हुआ ही था कि मुझे देख कर संजय बोल पड़ा, ‘बॉस, पता नहीं क्या हुआ है, भारतीय टीम को वापस बुलाया जा रहा है, मैच रद्द कर दिया गया है।’ इतना तो स्पष्ट था कि टीम को वापस बुलाना साधारण बात नहीं था। अवश्य ही कुछ बेहद गंभीर घटा है।
वेंगसरकर, संदीप पाटिल, रवि शास्त्री का युग सोशल मीडिया का युग तो था नहीं कि खबर पलक झपकते विरल हो जाए। उन दिनों सूचना का जरिया आकाशवाणी और दूरदर्शन के समाचार ही थे। आकाशवाणी के अतिरिक्त स्टूडेंट्स बीबीसी न्यूज भी सुना करते थे, विशेषकर यूपीएससी की तैयारी करने वाले। ट्रैन्ज़िस्टर तो संजय के हाथ में ही था, वह तुरंत न्यूज सुनने की कवायद में जुट गया। श्रवण ने कब चौथी रोटी उसकी प्लेट में डाल दी और संजय ने कब खा ली, उसे इसका ध्यान ही नहीं रहा। उसकी तंद्रा तब भंग हुई जब श्रवण पांचवीं रोटी पूछता उसके पास आ पहुंचा। आकाशवाणी से कुछ सुराग मिलता हुआ नहीं दिखा, तब संजय बीबीसी लगाने की जुगत में लग गया था। पांचवीं रोटी पूछने के लिए आए श्रवण पर खीझते हुए बोल पड़ा, ‘मैं पांच रोटी कब खाता हूँ? देश में हुआ क्या है यह जानने के लिए मैं परेशान हूँ। आकाशवाणी कुछ बता नहीं रही है, बीबीसी लग नहीं रहा है और पांचवीं रोटी लिए तुम सिर पर सवार हो।’ संजय झल्लाते हुए सब एक सांस में बोल गया। 
इस बीच अपना खाना समाप्त कर मैंने हाथ धो लिया था। ट्रैन्ज़िस्टर मुझे पकड़ाते हुए संजय बोला, ‘यार तुम थोड़ा ट्राई कर लो, कहीं बीबीसी तुम्हारे हाथों से लग जाए, फिर कुछ पता चले। तब तक मैं हाथ धो लेता हूँ।’ थोड़ी बहुत कोशिश मैंने की, पर मुझसे इतनी आसानी से यह कहां होने वाला था। मुझे ट्रैन्ज़िस्टर वगैरह हैन्डल करने का कोई खास तजुर्बा नहीं था। संजय पुन: कोशिश में जुट गया, दिशा बदल बदल कर। बीबीसी सुनने वालों को इसका इल्म भी था और अभ्यास भी। ‘बिनाका गीतमाला’ के समय ‘रेडियो सिलॉन’ भी कहां आसानी से पकड़ता था। इतनी आसानी से सिगनल नहीं मिलता था, खास कर तब जब कुछ खास घटा हो। दूरदर्शन का एन्टीना भी तो घुमा-घुमा कर सिगनल पकड़ाने की कोशिश तब होती थी। यह आम दृश्य होते थे तब, बहुत सारे लोग कोशिश करते हुए छतों पर दिख जाते थे। 
वो तारीख थी 31 अक्तूबर, 1984 की, और वेलियननाइन्टीनएटीफोर की 31 अक्तूबर। ऑरवेल की ‘ब्रिग ब्रदर इज वाचिंग यू’ की भविष्यवाणी तो सही साबित नहीं हुई थी, पर हमारे यहां कुछ अनहोनी घट गई थी। शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के उस ‘ईटिंगजॉइन्ट’ पर ही कहीं से उड़ती उड़ती खबर पहुंची थी,’ इंदिरा गांधी को उनके बॉडी गार्ड्स ने गोलियां मार दी थीं। उन्हें एम्स ले जाया गया है। खबर तो यह भी यह कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं, पर अभी कुछ साफ नहीं था। वैसे कोई सरकारी घोषणा अभी नहीं हुई थी।
चौरासी के उस क्षण, चार चित्र, इंदिरा गांधी की एक दिन पूर्व भुवनेश्वर में भाषण की तस्वीर, वेंगसरकर जिसकी सेन्चुरी पूरी नहीं हो पाई थी, के चेहरे की निराशा जो अचानक दिखने लगी थी, श्रवण के हाथ में झूलती संजय की पांचवीं रोटी और स्वयं का हतप्रभ चेहरा जो मुझे दिख नहीं रहा था, दिमाग के फोटोफ्रेम में जड़ गए, बिल्कुल जड़, हमेशा के लिए। मन के कैमरे में फ्रीज हो गए, कभी ना बहने के लिए।  (क्रमश:)

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