चौरासी का चार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
तभी हम तीनों ने एक साथ संजय की बात काटी, ‘अरे तुम कुछ अधिक ही आशावादी हो रहे हो। खबर के मुताबिक यह आग इतनी जल्दी बुझने वाली नहीं है। ऐसे में हिंसा किसी एक घटना के प्रतिकार में शुरू तो होती है, पर शीघ्र नियंत्रित नहीं हो तो, व्यक्तिगत ईर्ष्या और द्वेष को पोषित करने के लिए होने लग पड़ती। और राजनेताओं को अपना खेल खेलने अवसर उपलब्ध हो जाता है।’
इस बीच हमारा नाश्ता तैयार था। बीरेंद्र ने कहा, ‘चलो पहले नाश्ता कर लें। जो कुछ भी हो हम कर ही क्या सकते हैं? झेलना तो पड़ेगा ही।’ हमने सोचा, हफ्ते दिन की अपनी व्यवस्था हो ही गई है और दुकानदार ने कहा ही है कि, ‘आगे भी कोई ज़रूरत हो, आप धीरे से नॉक कर बता देना, मैं अंदर से ही थैले में डाल कर दे दूंगा। मेरे रहते हुए आप लोग भूखे थोड़े रहोगे’। फिलहाल तो फिर चिंता की कोई बात नहीं है। दुकानदार के स्टॉक खत्म होने तक कोई परेशानी नहीं है। बाद की बाद में देखी जाएगी, पहले ब्रेकफास्ट करते हैं।
ब्रेकफास्ट के साथ चर्चा फिर छिड़ी। क्या बात हो रही थी, व्यक्तिगत ईर्ष्या और द्वेष ऐसी परिस्थितियों को और खराब कर देतीं हैं और सामूहिक उन्माद का रूप लेतीं हैं। मैंने कहा, ‘यही तो हुआ था जब महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। उस समय निर्दोष ब्राह्मणों का कत्लेआम शुरू हो गया था, सिर्फ इसलिए कि हत्यारा ब्राह्मण था।’ मेरी बातों को आगे बढ़ते हुए बीरेंद्र बोला, ‘जो स्थिति थी उस समय उसमें सत्ता लोलुप नेताओं ने स्व-हित में जन-उन्माद को ब्राह्मणों के विरुद्ध भड़काया था, वैसी ही स्थिति आज भी है जब दो लोगों की गलती की सजा भीड़ देश के हर सिख को देना चाहती है।
बहस और विवाद का दौर जब मौका मिलता शुरू हो जाता। लेकिन यूनिवर्सिटी बंद होने की वजह से पर्याप्त समय उपलब्ध था। बनाओ, खाओ, पढ़ो और लड़़ो। लड़ना मतलब कोई कुश्ती नहीं, वैचारिक द्वन्द्व और उग्र बहस, दोस्ती पर बिना किसी दुष्प्रभाव के।
ऐसी उग्र बहस से ऐसे कठिन समय में अच्छा टाइम पास हो जाता है। सामान्य वार्तालाप तो चर्चा को ड्रैब और बोरिंग बना देता है। वैसे भी इन हालात में बहस की जंग जीतने से अधिक ज़रूरी था सर्वाइवल की कशमकश से पार पाना। तीन टाइम का खाना बनाना, यानी ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर। संजय चाय भी बमुश्किल ही बना पता था। राकेश और बीरेंद्र छोटी मोटी चीजें बना लेते थे पर प्रॉपर खाना अलग बात थी। मेरी थोड़ी निपुणता रही थी इस विधा में, और इसका इल्म बीरेंद्र को था क्योंकि हम साथ रह चुके थे। तय हुआ राकेश ब्रेकफास्ट बना लेगा। उसमें कुछ विशेष झंझट था नहीं। मैं और बीरेंद्र दोपहर और रात का खाना देख लेंगे। संजय ने आकाशवाणी और बीबीसी की खबरें सुनने और हमें वस्तु स्थिति से आगाह रखने की जिम्मेवारी उठाई, जैसे कमरे में रेडियो पर न्यूज आ रहा हो तब भी हम सुन-समझ नहीं पाते। वैसे क्रिकेट कॉमेन्टरी सुनना और स्कोर बताने को वह अपना परम पुनीत दायित्व समझता, पर दुर्भाग्य वश मैच रद्द हो गए थे।
सच पूछें तो यह बताना कठिन था कि संजय को किस बात का अधिक दुख था, देश की प्रधानमंत्री की हत्या का, इन कठिन परिस्थितियों में समय काटने का या फिर क्रिकेट मैच रद्द होने का। बहरहाल ब्रेकफास्ट कर दो-तीन घंटे की पढ़ाई के बाद लंच बनाने का ड्रिल शुरू हुआ। हालात जो भी हो पढ़ाई तो करनी ही थी, सब सिविल सर्विसेज़ की तैयारी के लिए ही तो दिल्ली आए थे।
पहला दिन था, शॉर्टकट में ही निपटा लिया जाए, ऐसा सोच खिचड़ी चोखा बनने लगा। ‘खिचड़ी चोखा बिना पापड़ के मजा नहीं देगा’, संजय की विशेष उक्ति थी। ‘देखता हूँ पीछे वाली दुकान खुली है तो भागकर लाता हूँ’। कदाचित पल भर को वह अपनी सूरते-हाल से बेखबर हो चुका था। संजय बिहार के मिथिलाक्ल से था, जहां के लोग खाने-पीने के बेहद शौकीन होते हैं। अत: खाने की सोचकर एक बार को परिस्थिति की विषमता के अहसास को खो देना कुछ अस्वाभाविक नहीं लगता। किन्तु जो बना कुछ नहीं रहा हो और ऐसी ऩफासत की बात करे, तो खाना बनाने वालों को चिढ़ तो मचेगी ही। पापड़ का नाम कान में पड़ते ही मैं उस पर झुंझला उठा। ‘रईसी मत झाड़ो। जो मिलता है उससे संतोष करो’। तब तक उसे भी अपनी बचकानी हरकत का अहसास हो गया था और मेरी बात सुनते ही एकदम से झेंप गया। बोला, ‘सॉरी यार, मेरे मुंहसे बस यूँ ही निकल गया, अन्यथा मैं भी समझता हूँ कि यह नफासत का समय नहीं है’। बात आगे ना बढ़े यह सोचकर, हमारे ग्रुप का शांत-चित्त सदस्य बीरेंद्र मुझे देखकर बोला, ‘छोड़ो भाई, आगे कुछ मत बोलो, संजय को अपनी गलती समझ में आ गई है’।
पहले दिन आपसी समझ, सीमित साधन और मानसिक शांति की कमी के वजह से छोटी-चोटी बातों पर हम एक-दूसरे पर खीझ उठते। लेकिन अगले दिन तक तो सर्वाइव करने की दृष्टि से चीजें व्यवस्थित हो गईं थी। ब्रेकफास्ट के लिए खास सोचना नहीं था, ब्रेड, मक्खन और चाय का ही प्लान था, क्योंकि दोपहर में चावल के साथ एगकरी बनना था। पिछले दिन खिचड़ी चोखा में बर्तनों की दिक्कत महसूस नहीं हुई, खिचड़ी के चावल-दाल के साथ ही कुकर में चोखा के लिए आलू उबलने के लिए डाल दिये थे। खिचड़ी बन कर तैयार हुई और साथ ही आलू उबल गये। चोखा में कोई ताम-झाम था नहीं। नमक, प्याज और तेल ही तो मिलाना था। हां खाना बारी-बारी से खाना पड़ा क्योंकि प्लेटें दो ही थीं। आने वाले दिनों में भी खाना बारी-बारी से होता रहा।
आज एगकरी के साथ चावल बन रहा था। एक छोटे से कुकर और चाय वाले पैन में ही सब कुछ बनना था। आज भी कुकर ही वो पात्र था जिसमें एगकरी भी बनेगा और चावल भी। हां एगकरी में बॉयल्ड एग के साथ बॉयल्ड आलू के टुकड़े मिल जाएं तो एक अलग स्वाद आ जाता है। पैन में एग उबलने के लिए स्टोव रखना ही था, साथ में आलू भी रख दिये गये। इतने में प्याज वगैरह काट लिए गए। स्टोव तो एक ही था, नहीं तो प्याज और मसाला भी कुकर में साथ ही भुनता रहता। पर यहां तो अंडे और आलू के उबल जाने का इंतजार करना था। फिर एक के बाद दूसरा करके हमारा अंडा करी और चावल तैयार हुआ। इन सब में समय सामान्य से अधिक लग रहा था।
(क्रमश:)