राजवंशों के उत्थान और पतन का मूक गवाह है मंडोर दुर्ग
जोधपुर शहर से आठ किलोमीटर दूर मंडोर दुर्ग है जिसे मारवाड़ की प्राचीन राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। मांडू ऋषि की तपोभूमि पर स्थित मंडोर, मांडव्यपुर, मंडोवर, भौगिशैल इत्यादि नामों से भी जाना जाता था। मंडोर दुर्ग के इतिहास के बारे में प्रमाणिक जानकारी तो नही है लेकिन छठी शताब्दी में जब परिहारों के आदि पुरूष हरिश्चन्द्र के पुत्रों ने मंडोर पर अपना अधिकार जमाया था, उस वक्त भी यहां किला मौजूद था। गुप्तकाल में भी इस नगर का अस्तित्व था जो कि उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है।
विक्रम संवत 894 ई 837 के प्रतिहार शासक बाउक के अभिलेख एवं वि.स. 918 के उसके भाई ककुक के घटियाली नामक स्थान पर पाये गये शिलालेखों के अनुसार 7वीं सदी से पूर्व हरिशचद्र के पुत्रों ने मंडोर पर कब्जा कर लिया था व 623 ई. के आस-पास चारों तरफ सुरक्षा की दृष्टि से 6 मीटर चौड़ी प्राचीरें बनवाई थी जो आज भी अवशेषाें के रूप में चौकोर एवं गोल बुर्जों के रूप में देखी जा सकती हैं।
मंडोर दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर 350 फीट की ऊंचाई पर स्थित था जो आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। जहां कभी इतिहास पलता था वहां अब बदहाली का ही आलम देखा जाता है। मंडोर दुर्ग अनेको राजवंशाें के उत्थान व पतन का मूक गवाह रहा है जिसने कई उतार चढ़ाव भी देखें हैं।
मंडोर दुर्ग 1143 ई. तक परिहारों के अधीन रहा, जिसमें नागभट्ट व अतुलवीर एवं पराक्रमी शासक थे। बाद में अनेक युद्धों में उसने विजयश्री प्राप्त की। कालांतर में इसी शासक ने राजधानी मंडोर को हटाकर मेड़ता में स्थापित की व मंडोर में स्वयं के नाम पर नाहड़ स्वामी देव मन्दिर का निर्माण करवाया। यह भी माना जाता है कि मंडोर पर प्रतिहारों का कभी स्वतंत्र रूप से शासन नहीं रहा बल्कि कन्नौज के प्रतिहारों के सामन्त के रूप में भी रहा था। परिहारों के पश्चात् मंडोर दुर्ग पर नाडौल के चौहान शासक रायपाल ने भी शासन किया था। 1227 ई. में शम्सुद्दीन अल्तमश ने भी मंडोर दुर्ग पर अधिकार जमाया था।
कुछ समय बाद एक बार फिर से परिहारों ने मंडोर दुर्ग या बलपूर्वक शासन कर लिया था लेकिन लंबी अवधि तक मंडोर इनके अधीन नहीं रहा और 1293 में मंडोर पर मुगलशासक फिरोजशाह द्वितीय ने परिहारों पर आक्रमण कर दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया। फिरोज शाह ने अपने नवनिर्माण कार्य के दौरान यहां एक मस्जिद भी बनवाई जो पुरानी बस्ती क्षेत्र में देखी जा सकती है। संवत् 1924 में फिरोज खिलजी ने मंडोर दुर्ग पर आक्रमण कर इसे जीत लिया लेकिन 1395 ई. में परिहारों की ईंदा शाखा ने फिर से मंडोर हथिया लिया। अपने राजा हमीर से परेशान व बार-बार मंडोर पर होने वाले आक्रमणाें से मंडोर की रक्षा करने में नाकाम परिहारों ने राठौड़ वीरम के पुत्र राव चूंडा को मंडोर का दुर्ग दहेज में भेंट कर दिया। इस घटना के साथ ही प्रतिहाराें का अस्तित्व मंडोर दुर्ग से हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो गया। व मंडोर दुर्ग राठौड़ों के अधिकार क्षेत्र में आ गया। 1396 ईसवी में गुजरात के सूबेदार जफर खान ने भी मंडोर पर हमला बोला लेकिन राठौड़ों से निराशा ही हाथ लगी और उसे लौटना पड़ा। 1427 ईसवी में राव रणमल ने मंडोर पर चढ़ाई कर इसे अपने अधिकार में ले लिया लेकिन रावरणमल की मृत्यु के बाद मंडोर मेवाड़ के शासकाें ने कब्जा कर लिया व मेवाड़ के सेनापति अहाडाहिगोंला ने रावरणमल के पुत्र राव जोधा से मारवाड़ की राजधानी मंडोर को छीन लिया लेकिन राव जोधा भी चुप नही बैठे और कुछ ही समय बाद पूरी तैयारी से मेवाड़ की सेना से लोहा लिया व बालसंमद की पहाड़ियों में हुए घमासान युद्ध में मेवाड़ का सेनापति अहाड़ा हिंगोला मारा गया व मंडोर पर पुन: राव जोधा ने अधिकार जमा लिया।
मंडोर पर बार-बार होने वाले आक्रमणों से राव जोधा को जब मंडोर असुरक्षित दिखाई देने लगा, तब 1459 ई. राव जोधा ने नया दुर्ग बनाया व उसके आस-पास के क्षेत्र को बसा कर जोधपुर नाम दिया। ऐसा कहा जाता है कि राजधानी परिवर्तन करने के साथ ही राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर शेष बची ईमारतों को तुड़वाकर खण्डर में तब्दील कर दिया जिससे कोई भी शत्रु मंडोर को अपना ठिकाना न बना सके।
आज मंडोर दुर्ग खण्डहर नज़र आता है लेकिन लालघाटू के पत्थरों से बने दुर्ग के भग्नावशेषाें से चौथी शताब्दी की कला से परिपूर्ण अवशेषों से प्राप्त विजय तोरणद्वार विशाल मंदिरों के खंडहराें मूर्तियों तथा कलात्मक शिलाखंड अपनी भव्यता को समेटे अपने अतीत की गौरवगाथा बताते नज़र आते हैं।
मंडोर के प्रतिहार शासक कला एवं संस्कृति के पोषक थे जिन्होंने अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता के चलते भव्य हिन्दू व जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। मंडोर दुर्ग से प्राप्त दो विशाल स्तम्भ अतिप्राचीन है जो मंडोर संग्रहालय में रखे हुए है। ये स्तम्भ 12 फुट ऊंचे व दो फुट चौड़े है। ये तोरणद्वार सरीखे दिखाई देते है। ये चौथी शताब्दी के है। इन स्तम्भों पर छोटे बड़े खंड बने हुए है जिसमें एक खंड के अलावा सभी पर श्रीमद्भगवत वर्णित कृष्ण लीलाओं का अंकन है।
प्राचीन अवशेषों में यहां अनेक भव्य मंदिरों के खण्डहर विद्यमान है। किले के दक्षिणपूर्व हिस्से में एक विशाल हिन्दू मंदिर के अवशेष है। इन मंदिरों के चबूतरों पर उत्कीर्ण खुदाई देखते ही बनती है। मंदिर के बीच स्थित चबूतरे की दीवार पर सेना के प्रयाण एवं अश्वारूद सैनिकों के चित्रण देखे जा सकते हैं। ये एक वैष्णव मंदिर के रूप में बना दिखाई देता है जो बाद में शेवों के हाथ चला गया था अब यह ब्रह्मामंदिर के नाम से जाना जाता है।
इस मन्दिर में पश्चिमी भाग ने नाहडराव परिहार प्रतिहार नाहडस्वामी का स्थान है। इसमें एक संकरी सी गली दिखाई देती है। जो दो भागों में बंटी हुई है एक भाग बंद है तो दूसरा खम्भे वाला अंधेरा सा कमरा है इसके अंदर की तरफ एक और कमरे जैसा स्थान है जो कि परिहार नरेश नाहड़ स्वामी देव स्थान के रूप में जाना जाता है। (उर्वशी)




