भारत की विदेश नीति का धड़कता केंद्र हैदराबाद हाऊस

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की 4-5 दिसंबर की भारत यात्रा के दौरान जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी आधिकारिक बैठक दिल्ली के हृदय में स्थित हैदराबाद हाउस में हुई तो एक बार फिर दुनिया की निगाहें इस भव्य भवन पर टिक गई। यह कोई साधारण गेस्ट हाउस नहीं बल्कि वह स्थान है, जहां देशों की नीतियां बदलती हैं, वैश्विक समीकरण पुनर्संयोजित होते हैं और भारत की कूटनीति अपनी निर्णायक छाप छोड़ती है। हैदराबाद हाउस केवल पत्थरों, गुंबदों और मेहराबों का समूह भर नहीं है, यह भारतीय इतिहास की उस विराट धारा का जीवंत साक्षी है, जिसमें साम्राज्य, वैभव, सत्ता, कूटनीति और परिवर्तन के अनेक अध्याय एक-दूसरे में विलीन होते चले गए। यह जानना बहुत दिलचस्प है कि वैश्विक सुर्खियों में रही इस ऐतिहासिक इमारत की कहानी आखिर शुरू कहां से होती है? क्या यह केवल किसी रियासत का शाही महल था या फिर यह भारत की आत्मनिर्भर कूटनीतिक पहचान की प्राचीन से आधुनिक यात्रा का प्रतीक भी है?
इस कहानी का आरंभ होता है 1911 से, जब ब्रिटिश शासन ने अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। नई दिल्ली का निर्माण महज स्थापत्य परियोजना नहीं था बल्कि यह शक्ति के नए केंद्र का जन्म था। नई राजधानी को ऐसा स्वरूप दिया जा रहा था कि यहां ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठा, सामरिक शक्ति और रियासतों पर नियंत्रण, तीनों का संगम दिखाई दे। इसी संदर्भ में भारतीय रियासतों को दिल्ली में आवास प्रदान करने के लिए चैंबर ऑफ प्रिंसेस’ की स्थापना की गई। यह सत्ता के उस समीकरण का अहम हिस्सा था, जिसके माध्यम से अंग्रेज रियासतों को अपने प्रभाव क्षेत्र में नियंत्रित रखना चाहते थे।
रियासतों की सूची में सबसे प्रभावशाली, समृद्ध और रहस्यमय व्यक्तित्व थे हैदराबाद के सातवें निजाम मीर उस्मान अली खान, जो उस समय न केवल भारत के बल्कि पूरे विश्व के सबसे धनी व्यक्ति माने जाते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि यदि वे अपने खजाने के मोतियों से स्विमिंग पूल भरना चाहें तो यह भी असंभव नहीं होता। उनके पास मौजूद जैकब डायमंड इतना विशाल था कि वे उसे कागज दबाने के लिए पेपरवेट की तरह उपयोग करते थे। ऐसी आर्थिक शक्ति रखने वाले व्यक्ति का दिल्ली में निवास किसी सामान्य स्तर का हो, यह कल्पना ही असंभव थी। निजाम ने ब्रिटिश सरकार से मांग की कि उनका महल वायसराय हाउस यानी आज के राष्ट्रपति भवन के बिल्कुल निकट हो ताकि उनकी प्रतिष्ठा भी ब्रिटिश सत्ता के बराबर दिखाई दे। अंग्रेज यह स्वीकृति कभी नहीं दे सकते थे क्योंकि एक भारतीय शासक का निवास वायसराय हाउस के आसपास बनना उस औपनिवेशिक अनुशासन और मानसिक दूरी को तोड़ देता, जिसे वे बनाए रखना चाहते थे।
अंतत: समझौता यह हुआ कि निजाम को वायसराय हाउस के मार्ग के अंतिम छोर पर 8.2 एकड़ भूमि आवंटित की गई। 1919 में भूमि खरीदी गई और निर्माण की शुरुआत हुई। निजाम ने अपने महल के लिए उस वास्तुकार सर एडविन लुटियंस को चुना, जिसने पूरी दिल्ली के स्थापत्य को उसकी पहचान दी थी। लुटियंस ने राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और दिल्ली की अनेक प्रमुख इमारतों को डिजाइन किया था। लुटियंस ने निजाम के दिल्ली निवास को एक अनोखे स्वरूप में (तितली के आकार) ढ़ाला। यह आकार केवल सौंदर्य नहीं था बल्कि निजाम की महत्वाकांक्षा का स्थापत्य-रूप था। इस महल के मध्य में विशाल गुंबद, उसके चारों ओर विशाल हॉल, चौड़े गलियारे, आंगन और शाही प्रवेश द्वार था। इसमें वास्तुकला में यूरोपीय प्रभाव, मुगल सौंदर्य शास्त्र और भारतीय शिल्पकला का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
1926 से 1928 के बीच यह महल निर्माणाधीन रहा। इसकी लागत करीब दो लाख पाउंड थी जो आज की मुद्रा में लगभग 170 से 380 करोड़ रुपये तक आंकी जाती है। उस दौर में यह राशि किसी भी भारतीय रियासत के लिए अत्यधिक थी। निर्माण में बर्मा की सागौन, यूरोपीय फर्नीचर, मध्य एशिया से आयातित कालीन, न्यूयॉर्क से मंगाई गई बिजली की फिटिंगें, विशाल डाइनिंग हॉल और महिलाओं के लिए अलग ‘जनाना’ विंग शामिल था। इस महल का प्रत्येक कक्ष घोड़े के अस्तबल जितना विशाल था और इसका डाइनिंग हॉल एक साथ 500 लोगों को भोजन कराने की क्षमता रखता था। यह महल न केवल निजाम का दिल्ली में निवास था बल्कि उनका ‘डिप्लोमैटिक स्टेटमेंट’ भी था, जिसमें उनकी शक्ति, वैभव और राजनीतिक महत्व स्पष्ट झलकता था।
समय बदला और इतिहास ने करवट ली। 1947 में भारत आज़ाद हुआ और रियासतों के विलय की प्रक्रिया शुरू हुई। हैदराबाद ने भारत में शामिल होने से इन्कार किया लेकिन 1948 में ‘ऑपरेशन पोलो’ के साथ रियासत का भारत में विलय हो गया। निजाम की सत्ता इतिहास का हिस्सा बनने लगी और धीरे-धीरे दिल्ली का यह महल भी उपयोगहीन हो गया। इसके बाद परिवर्तन की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसने इस भवन की नियति को पूरी तरह बदल दिया। 1954 में भारत सरकार ने इसे लीज पर ले लिया। 1974 आते-आते यह विदेश मंत्रालय को हस्तांतरित कर दिया गया और इसके बाद हैदराबाद हाउस की आत्मा बदल गई। यह अब किसी राजा का निजी निवास नहीं बल्कि लोकतांत्रिक भारत का कूटनीतिक हृदय बन चुका था।
आज यह भवन उस नए भारत की पहचान है, जो वार्ताओं से युद्ध नहीं, सहयोग से संघर्षों का समाधान और साझेदारियों से भविष्य की संभावनाएं गढ़ता है। इसी महल में भारत-अमरीका, भारत-रूस, भारत-फ्रांस, भारत-जापान, भारत-चीन जैसी रणनीतिक वार्ताओं के अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। यहीं बराक ओबामा ने भारत के साथ नई रणनीतिक साझेदारी पर चर्चा की, यहीं पुतिन से रक्षा व ऊर्जा सहयोग के समझौते हुए, यहीं शिंजो आबे के साथ हिंद-प्रशांत रणनीति के सूत्र तय हुए। यह महल अब वह स्थान है, जहां राष्ट्राध्यक्ष केवल आते-जाते नहीं बल्कि भारत के साथ लंबे भविष्य की योजनाएं तैयार करते हैं। हैदराबाद हाउस की दीवारों में आज भी वह शाही ठहराव, वह स्थापत्यिक गरिमा और वह ऐतिहासिक गूंज मौजूद है जो इसे किसी संग्रहालय में कैद स्मृति नहीं बल्कि जीवंत दस्तावेज बना देती है।
एक समय जो जगह निजाम की प्रतिष्ठा का प्रतीक थी, वह आज संप्रभु भारत की कूटनीतिक क्षमता, आत्मविश्वास और वैश्विक नेतृत्व का परिचायक है। यह इमारत रियासतों के वैभव से लोकतांत्रिक पराक्रम तक, महलों की शानो-शौकत से आधुनिक वैश्विक सहयोग तक, निजाम के एकतरफा प्रभाव से भारत के बहुध्रुवीय विश्व-परिदृश्य तक भारत की यात्रा को प्रदर्शित करती है। आज जब वैश्विक नेता भारत के साथ रणनीति गढ़ने या भविष्य को दिशा देने के इरादे से भारत आते हैं तो उनकी यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण ठिकाना यही है। यह स्थान अब केवल राज्य भोज और औपचारिकताओं का मंच नहीं बल्कि वह स्थल है, जहां कूटनीतिक धागे बुने जाते हैं, समझौते जीवन पाते हैं और राष्ट्रों का भविष्य आकार लेता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रमुख राष्ट्राध्यक्षों से यहीं मुलाकात करना इसलिए महज परंपरा नहीं बल्कि एक सुविचारित संदेश भी है कि भारत इतिहास का वाहक भर नहीं, विश्व-राजनीति का निर्णायक केंद्र भी बन रहा है।
हैदराबाद हाउस समय के साथ भले बदल गया हो पर इसकी आत्मा वही है। यह आज भी शांत है पर उसकी शांति के भीतर वह गर्जना है, जो इतिहास को बदलते युगों से जोड़ती है। यह महल अब किसी एक निजाम की अमीरी का प्रतीक नहीं बल्कि संपूर्ण भारत की कूटनीतिक शक्ति और वैश्विक आकांक्षाओं का प्रतीक है। इसके विशाल द्वारों से होते हुए जब नेता अंदर प्रवेश करते हैं तो वे केवल किसी कमरे, हॉल या दीवार के सामने नहीं खड़े होते बल्कि उस भारत के सामने खड़े होते हैं, जो इतिहास से भरा हुआ है, वर्तमान से परिपक्व है और भविष्य को आकार देने के लिए तैयार है। शायद यही कारण है कि जब किसी राष्ट्राध्यक्ष को भारत के साथ भविष्य की यात्रा तय करनी होती है तो उस यात्रा की शुरुआत वहीं होती है, जहां कभी निजाम की शान तितली के पंखों पर उड़ान भरती थी।

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