ओलम्पिक में क्यों चूक जाते हैं हम ?


अप्रैल माह में सम्पन्न हुए 11 दिवसीय राष्ट्रमंडल खेलों में भारत की शानदार सफलता के बाद अब तमाम भारतीय खेल प्रेमियों की नजरें 2020 में टोक्यो में होने वाले ओलम्पिक खेलों पर केन्द्रित हैं और इसकी तैयारियां भी शुरू हो चुकी हैं। हालांकि कहने को तो ओलम्पिक खेलों में अभी दो साल का समय बाकी है लेकिन इन खेलों की तैयारियों के लिए दो साल का समय बहुत कम माना जाता है। 26 स्वर्ण, 20 रजत और 20 कांस्य पदकों के साथ 21वें राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने कुल 66 पदक जीतकर न केवल दुनिया में तीसरा स्थान हासिल किया था बल्कि इन खेलों में उसका यह अब तक का यह तीसरा बेहतरीन प्रदर्शन भी रहा। हालांकि जिस प्रकार गोल्ड कोस्ट के राष्ट्रमंडल खेलों में खिलाड़ियों के प्रदर्शन के आधार पर अपने कैरियर में पहली बार राष्ट्रमंडल खेलों में 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में सातवें स्थान पर रहने के कारण निराशाजनक प्रदर्शन के चलते गगन नारंग को टारगेट ओलम्पिक पोडियम योजना (टाप्स) से बाहर कर दिया गया और उनके अलावा कई अन्य खिलाड़ियों को भी इसमें जगह नहीं दी गई है, वह चौंकाने वाला तो जरूर है लेकिन गोल्ड कोस्ट में उम्दा प्रदर्शन करने वाले कुछ नए खिलाड़ियों को टाप्स में जगह मिली है, उससे ओलम्पिक में पिछली बार के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें तो बंधती हैं। फिलहाल मिशन ओलम्पिक के लिए खिलाड़ियों की छंटनी और बेहतर प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों के नाम शामिल करने की प्रक्रिया चल रही है।
2006 और 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में 4-4 स्वर्ण पदक, 2014 में एक रजत व एक कांस्य पदक और लंदन ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतने वाले गगन नारंग को फिटनेस और खराब प्रदर्शन के चलते बाहर किया गया है, उनके अलावा टाप्स में शामिल खिलाड़ियों के प्रदर्शन की समीक्षा के पश्चात् पूजा घटकर, हरबीर सराओ, मेघना, सत्येन्द्र सिंह, रियो ओलम्पिक में फाइनल तक पहुंचने वाली एथलीट ललिता बाबर सहित कई अन्य खिलाड़ियों को भी बाहर करने का फैसला किया गया है जबकि ट्रैक तथा फील्ड, भारोत्तोलन व निशानेबाजी से कुछ नए खिलाड़ी सम्मिलित किए गए हैं। गोल्डकोस्ट में स्वर्ण पदक जीतने वाले भारोत्तोलक प्रदीप सिंह और संजीता चानू, चक्का फैंक में कांस्य जीतने वाली नवजीत कौर ढ़िगो, 400 मीटर रेस में फाइनल तक पहुंची महिला धावक रीमा दास, मैक्सिको में आईएसएसएफ  विश्व कप में राइफल थ्री पोजीशन में स्वर्ण पदक जीतने वाले अखिल शेरोन, मंगलूर में महिला सीनियर राष्ट्रीय भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाने वाली राखी हलधर, सिडनी में आईएसएसएफ जूनियर विश्व कप में 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण जीतने वाली इलावेनिल वालारिवन के अलावा डिस्कस थ्रो में गोल्डकोस्ट के अलावा 2006 और 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत, 2014 में कांस्य पदक, 2014 के एशियाई खेलों में स्वर्ण जीत चुकी सीमा पूनिया को टाप्स में शामिल किया गया है।
वैसे ओलम्पिक खेलों को लेकर एक बड़ा सच यह भी है कि एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों जैसी स्पर्धाओं में धमाकेदार जीत दर्ज करने वाले खिलाड़ी ओलम्पिक में अक्सर चूक जाते हैं, इसलिए हमें यह मंथन भी करना चाहिए कि आखिर ओलम्पिक के स्तर पर ये खिलाड़ी विफल क्यों हो जाते हैं? एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद ओलम्पिक खेलों में हमारी स्थिति यही होती है कि खिलाड़ियों के बहुत बड़े लाव-लश्कर के बावजूद देश को महज दो-चार पदकों से ही संतोष करना पड़ता है। इसका एक अहम कारण यही माना जाता है कि एशियाई या राष्ट्रमंडल खेलों में प्राय: उन देशों के खिलाड़ी शामिल नहीं होते, जिनकी ओलम्पिक खेलों में तूती बोलती है। इंग्लैंड, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, रूस, फ्रांस जैसे देश अपने शीर्ष खिलाड़ियों को ओलम्पिक की तैयारियों के मद्देनजर इन स्पर्धाओं में नहीं भेजते और इन स्पर्धाओं में दुनिया के इन शीर्ष खिलाड़ियों के शामिल न होने से इनमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय खिलाड़ियों से मुकाबला करने का अवसर नहीं मिलता और ये खिलाड़ी अपने इसी प्रदर्शन को लेकर संतुष्ट होकर रह जाते हैं।
    इसलिए यदि हम चाहते हैं कि राष्ट्रमंडल व एशियाई खेलों की सफलता की कहानी ओलम्पिक खेलों में भी दोहराई जाए और हमारे होनहार खिलाड़ी इन खेलों में भी देश पर पदकों की बौछार कर दें तो बेहद जरूरी है कि जिस प्रकार विकसित देशों में खेल प्रतिभाओं को तमाम आधुनिकतम सुविधाएं एवं साधन उपलब्ध कराकर तराशा जाता है, हमारे खिलाड़ियों को भी वो तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराकर तराशा जाए और हमारी जो नौकरशाही बाधाएं हैं, उन्हें दूर किया जाए क्योंकि प्राय: देखा गया है कि प्रतिभावान खिलाड़ियों को कभी विदेशी जमीन पर अभ्यास का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता तो कभी उन्हें विश्वस्तरीय कोच उपलब्ध नहीं कराए जाते और यह सब खेल संगठनों में जमे नेताओं और आला अधिकारियों की मनमानी तथा भेदभावपूर्ण रवैये के चलते होता रहा है। गोल्डकोस्ट में भी देखा गया कि वहां खिलाड़ियों के सपोर्ट स्टाफ  की जगह अधिकारियों और उनके रिश्तेदारों की भीड़ जमा थी जबकि 300 से अधिक खिलाड़ियों के दल के लिए महज दो डॉक्टर ही प्रतिनिधिमंडल में भेजे जा सके थे। फिलहाल चूंकि वर्तमान सरकार खेल नीति को लेकर संजीदा है और स्वयं प्रधानमंत्री घोषणा कर चुके हैं कि खेलों तथा खिलाड़ियों के लिए संसाधनों की कमी नहीं होने देंगे तथा खेल मंत्रालय भी पूर्व ओलम्पिक विजेता राज्यवर्द्धन सिंह राठौर के पास है, अत: यदि हम खेलों में राजनीतिक घुसपैठ को रोकने में सफल हुए तो 2020 में टोक्यो में होने वाले ओलम्पिक खेलों में भारत के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की जा सकती है। देश में खेलों की दशा और बेहतर करने के लिए देशभर में खेल नर्सरियां बनाने और उन्हें पर्याप्त धन आवंटन करने के साथ-साथ ऐसा निगरानी तंत्र भी विकसित करना होगा, जो खेल संगठनों के मनमाने और निरंकुश व्यवहार पर अंकुश लगाकर होनहार खिलाड़ियों के साथ होने वाले भेदभाव को रोकने का जरिया बने।
    शूटिंग, वेट लिफ्टिंग, मुक्केबाजी जैसे खेलों में अपने प्रदर्शन से भारत पहले भी दूसरे देशों को आश्चर्यचकित करता रहा है किन्तु राष्ट्रमंडल खेलों में बैडमिंटन, टेबल टेनिस सहित कुछ और खेलों में भी खिलाड़ियों ने जिस प्रकार का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, उसी की बदौलत खेलों के मामले में भारत अब दुनिया के नक्शे पर चमकने लगा है। क्त्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में भी भारत की इस तरह की सफलता भारतीय खेल जगत के शुभ संकेत है। क्रिकेट सहित लगभग सभी परम्परागत खेलों में पिछले कुछ समय से जो सुधार देखा जा रहा है, सरकारी खेल नीति में बदलाव उसका एक बड़ा कारण है। दरअसल पहले न सरकारी खेल संस्थाओं के पास पर्याप्त बजट होता था, न खिलाड़ियों को पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध होती थी और अगर जैसे-तैसे करके कोई खिलाड़ी जीत भी जाता था तो देश वापसी के बाद स्थानीय स्तर पर खिलाड़ी का सम्मान होने के अलावा उसकी कोई खास पूछ नहीं होती थी और इस प्रकार खेल प्रतिभाएं दबकर रह जाती थी। खेलों में स्वर्ण या रजत पदक जीतने के बाद भी कुछ खिलाड़ियों को जीवन के आखिरी दिनों में परिवार का गुजारा चलाने के लिए साइकिल में पंक्चर लगाते, चाय बेचते या इसी प्रकार के अन्य कार्य करते देखा भी गया है लेकिन अब अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतने के बाद सरकारी योजनाओं के तहत जिस प्रकार ऐसे खिलाड़ियों को प्रथम श्रेणी की नौकरियां और पुरस्कार स्वरूप एक बड़ी धनराशि प्रदान की जाती है, उसके फलस्वरूप खिलाड़ियों के लिए खेल रोजगार का सम्मानजनक माध्यम बन गए हैं। इसी के चलते प्रतिभावान खिलाड़ी अब सरकारी सुविधाओं के मोहताज न रहकर अपने स्तर पर प्रशिक्षण की व्यवस्था करने लगे हैं और इसी कारण अब देशभर में निजी खेल अकादमियां भी खुल रही हैं, जहां खिलाड़ियों का रूझान बढ़ रहा है और इसके सार्थक परिणाम सामने आने लगे हैं। यही कारण है कि समाज में अब खेलों को लेकर धारणा बदल रही है। -मो. 9416740584