क्या हमें इस प्रकार का गणतंत्र चाहिए ?

 

भारत में लोकतंत्र है, ये भ्रम बना रहना चाहिये। क्योंकि ये भ्रम अच्छा है। इससे हमें अपने होने का एहसास बना रहता है। और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गौरव भाव भी। लेकिन ये लोकतंत्र क्या वही है जिससे हम रूबरू रहे हैं या हम जिसको सोचते समझते बड़े हुए हैं जिसमें हमें न तो कहने के पहले कुछ सोचना पड़ता था और न ही सोचने के पहले अपने पर ब्रेक लगाना पड़ता था। अब हम सोचते भी हैं और सोचने के पहले भी सोचते हैं कि क्या ये कहना सही होगा, कहीं ऐसा न हो कि किसी की धार्मिक भावनायें आहत हो जाये। कहीं कोई मेरे खिलाफ एफ.आइ.आर. न करा दें और रात के दो बजे पुलिस आकर हमें गिरफ्तार न कर ले। और फिर अदालतों के चक्कर लगाते दिन और महीने बीते। ये लोकतंत्र है। ऐसा नहीं कि पहले इस तरह के लोकतंत्र के दर्शन हमने नहीं किए थे। जो हमसे उम्र में बड़े थे, वो जानते हैं कि सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी नाम की एक प्रधानमंत्री थी जिन्होंने सोचने की आज़ादी पर आपातकाल लगा दिया था। सोचने वालों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाता था। आज भी इस समय को भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय कहा जाता है। फर्क आज इतना है कि आपातकाल की घोषणा नहीं हुई है, बड़े नेताओं को जेल में नहीं डाला गया है, लेकिन एक तलवार हमेशा सबके सिर के ऊपर लटक रही है और ये तलवार कभी भी गिर सकती है। लोग डरे, सहमे हैं। सोचने की क्षमता पर पहरा है। एक खास तरह से सोचने की आज़ादी है। उससे अलग सोचना देशद्रोह है, देश से ़गद्दारी है।
ये सच है कि सोचने की आज़ादी आज़ाद रहे इसके लिये सुप्रीम कोर्ट है। इंदिरा गांधी के जमाने में भी सुप्रीम कोर्ट के जज डर गये थे और लगभग वहीं फैसले दे रहे थे, जो सरकार चाहती थी। आज भी कमोवेश वही स्थिति है। जिन मसलों पर सरकार की भागीदारी है, जो सरकार के लिये राजनीतिक तौर ज़रूरी है, उन पर अदालत या तो फैसले टाल देती है या फिर सरकार के मनमाफिक हो जाती है। और इस तरह से सरकार के हर काम पर संवैधानिक मुहर लग जाती है। लेकिन अब सरकार को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की ज़हमत क्यों उठायी जाये? सीधे संसद के पास इतने अधिकार हों कि कोर्ट के हस्तक्षेप की ज़रूरत ही न रहे। लिहाजा देश के उप-राष्ट्रपति की तरफ से ये कहा जा रहा है कि संविधान की मूलभूत संरचना यानी बेसिक फीचर की वजह से संविधान का स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं रह गया है। ये संसद की संप्रभुता पर आघात है। तकरीबन पचास साल पहले केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट का वो मशहूर फैसला जिसे भारतीय संविधान के विकास की दिशा में मील का पत्थर माना जाता था अब उसे ही खत्म करने का इशारा किया जा रहा है।
बेसिक फीचर की कुछ बुनियादी मान्यताएं है। जैसे संघवाद, संसदीय लोकतंत्र, स्वतंत्र न्यायपालिका, सत्ता का प्रथक्कीकरण, हर पांच साल में चुनाव, बोलने की स्वतंत्रता आदि। सरकार के पास कितना ही भारी बहुमत हो वो संविधान के इन बुनियादी ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती, यानी जैसे वो संसदीय लोकतंत्र को खत्म कर राष्ट्रपतीय व्यवस्था नहीं कर सकती, वो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगा सकती। लेकिन जिस तरह से पिछले दिनों संविधान के उच्च पदों पर बैठे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट पर हमले किये हैं वो इस बात का प्रमाण है कि न्यायपालिका को सरकार का एक विभाग बना दिया जाये, ऐसे उपक्रम किये जा रहे हैं । उप-राष्ट्रपति का बयान पिछले कई सालों में सुप्रीम कोर्ट पर किया गया सबसे करारा हमला है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को पूरी तरह से खत्म कर देने की दिशा में उठाया गया कदम।
सरकार इसके साथ एक और दबाव बना रही है। वो कह रही है कि जजों की नियुक्ति में सरकार का भी दखल हो। ये सच है कि 1992 के पहले सरकार जजों की नियुक्ति करती थी। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कोलिजियम सिस्टम को इजाद किया और सरकार को जजों की नियुक्ति से बेदखल कर दिया। इस सिस्टम ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को काफी हद तक बरकरार रखने में मदद की है।  अमरीका हो या यूरोप, जहां कहीं भी दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में आई हैं वो सब लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही आयी हैं और एक बार सत्ता पर काबिज़ होने के बाद वो लोकतंत्र को खत्म करने में लग जाती है।  भारत में भी यही देखने में आ रहा है। प्रेस को पूरी तरह से निर्वीर्य कर दिया गया है, विश्वविद्यालयों में वैकल्पिक विमर्श को खत्म कर दिया गया है, धर्म के नाम मुस्लिम समाज को पूरी तरह से हाशिये पर डाल दिया गया है, संसद और सरकार पूरी तरह से एक व्यक्ति के सामने नतमस्तक हैं और न्यायपालिका का एक हिस्सा सरकार को खुश करने के लिये फैसले कर रहा है, नौकरशाही और सरकारी संस्थान का बेजा इस्तेमाल विपक्षी दलों को ठिकाने लगाने के लिये किया जा रहा है, विपक्ष की हर संस्था को बर्बाद किया जा रहा है। मुझे ये कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि लोकतंत्र को गुलमतंत्र में तब्दील किया जा रहा है जहां सोचने समझने की शक्ति को पूरी तरह से एक व्यक्ति तक सीमित कर दिया जाये। बाकी के लोग सिर्फ सांस ले और उतना ही करें जितना कहा जाये। क्या हमें ऐसा लोकतंत्र चाहिये? ये सवाल हमें पूछना तो होगा। जवाब भले ही मिले या न मिले?