कहानी-कारावास

सुगना का विवाह रामदीन (ऑटो चालक) से हो गया। दोनों का गृहस्थ जीवन अभी ठीक से प्रारंभ भी न हो पाया था कि विवाह के चार दिन बाद ही रामदीन पर चोरी डकैती व मर्डर में संलिप्त होने का केस दर्ज हो गया। रामदीन स्वयं बुरा व्यक्ति नहीं था किन्तु गलत संगत में बैठने से उसे भी संदेह के कारण जेल की हवा खानी पड़ी। उसे 14 वर्ष का कारावास दंड स्वरूप मिला। लगभग डेढ़ माह बाद सुगना को ज्ञात हुआ कि वह गर्भवती है। यह सुखद समाचार वह रामदीन से साझा करना चाहती थी। किंतु कैसे करे वह तो कारागार में बंद है। आने जाने का किराया इतना महंगा है कि सुगना उससे मिल ही नहीं पाती थी। लगभग 8 माह बाद सुगना को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। सुगना के सास-ससुर पुत्र को देखकर फूले न समाते थे, किन्तु दरिद्रता उनकी खुशियों को लीलने के लिए तैयार थी। सुगना के ससुर रामजीलाल अस्वस्थ रहने के कारण चारपाई पर ही थे, और सासू मां वृद्धावस्था के कारण अपने दैनिक कार्य भी बमुश्किल कर पाती थीं। सुगना ने अब अपने कंधों पर घर की ज़िम्मेदारी ले ली। उसने कष्टों में जीवन बिता कर घर-घर बर्तन साफ करके, साफ-सफाई का कार्य करके अपने बुजुर्ग सास-ससुर और अपने बेटे का लालन-पालन किया। उसे आशा थी कि एक दिन उसके जीवन में बाहर आ जाएगी। सदी की मानिंद एक-एक दिन व्यतीत होता रहा। सुगना को आशा थी कि अब घने तिमिर के बाद अंधकार पूर्ण रात्रि जाने वाली है और सवेरा होने वाला है। क्योंकि रामदीन 14 वर्ष पूरे करके जेल से छूट गया है। सुगना को रामदीन के आने की खबर मिली तो वह पुलकित हो उठी। आज उसने पुराने बक्से में से वही शादी की साड़ी निकाली, जो उसने दुल्हन बनकर पहनी थी और कुमकुम की एक बिंदी अपने माथे पर सजा दी। उसने जल्दी-जल्दी गृह कार्य समाप्त किया और एक दिन की छुट्टी अपने मालिकों से ली जहां वह बर्तन झाड़ू पोंछा करती थी। आज वह रामदीन के स्वागत के लिए इतनी आतुर हो उठी, कि मन की उड़ान को नियंत्रित करना मुश्किल होने लगा। 14 वर्ष तो यूँ ही गुज़र गए किंतु यह शहर के कारागार से गांव तक की दूरी बहुत ज्यादा प्रतीत हो रही थी। बार-बार रामदीन के कदमों की आहट उसके कानों में सुनाई पड़ती। वह सुबह से कई बार चौबारे तक नज़र दौड़ा आई कि कहीं रामदीन आ तो नहीं गया। दिन ढले तक रामदीन घर में आया। सांझ के समय वह कमरे में उसके समीप आया कमरे में एक बालक को देखकर बोला ‘यह बच्चा किसका है?’
सुगना ने उसे सारी बातें बतायीं कि कैसे उसकी अनुपस्थिति में उसने गर्भस्थ शिशु और स्वयं का ध्यान रखा। प्रसव काल की पीड़ा सही, और उसके पश्चात पुत्र का लालन पालन, घर-घर साफ-सफाई और जी तोड़ मेहनत करके किया। किन्तु पता नहीं रामदीन पर कौन सा भूत सवार था। वह सुगना पर क्रोधित होने लगा और उसने कहा कि
‘कैसे मान लूँ कि यह बच्चा मेरा ही है..?’
सुगना को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ और वह क्रोध में बिफर उठी। उसकी प्रतीक्षा... उसके तप बलिदान...और समर्पण का यह ईनाम उसे मिलेगा, ऐसा तो उसे स्वप्न में भी आभास नहीं था। सुगना की रोने की आवाज़ सुनकर उसके सास ससुर भी बरामदे में आकर खड़े हो गए। कमरे में जाना वे अनुचित समझ रहे थे, रामदीन इतने समय बाद आया है, दोनों दुख-सुख की बातें कर रहे होंगे, किन्तु अंदर से आने वाली ऊंची-ऊंची क्रोध वाली बातें सुनकर दोनों के होश उड़ गए। रामदीन सुगना से ऊंचे स्वर में कह रहा था।
‘मुझे सब पता है कि तुमने मेरी अनुपस्थिति में घर खर्च कैसे चलाया है..? मुझे गांव वालों ने सब बता दिया है...।’
‘कैसे चलाया है घर खर्च ..? बोलो’ सुगना ने भी क्रोधातिरेक से कहा।
‘किसी एक का नाम तो बताओ जिसने आपसे मेरे विषय में ऐसा कहा है।’ रामदीन ने तुरंत भड़ककर कहा
‘वो...जमील कहता है कि तुम अनैतिक और अनुचित कार्य करके परिवार का खर्च चल रही हो। तुम पढ़ी-लिखी नहीं हो, फिर कहां नौकरी करती हो..?’
सुगना ने रोते हुए बताया कि ‘हमारे गांव के समीप जो शहरी कॉलोनी बनी है बस वही जाकर झाड़ू पोछा बर्तन का कार्य करती हूँ।’
तभी सुगना की सास बोल पड़ीं-‘अरे...कमीने जमील के बहकावे में आकर बहू पर ऐसे ऐसे लांछन लगा रहा है... वह तो पापी है...नीच है ..उसने तो हमारी सुगना के अकेलेपन का फायदा उठाने की कोशिश की...जब इसने मना कर दिया तो उसने सुगना से बदला लेने की धमकी दी। वह तो हमारी सुगना निडर है, अपने काम से कम रखती है, उसने आज तक हमारी सेवा में कोई कमी नहीं की। वह 14 साल जो तुमने जेल में गुजारे, तुम क्या सोचते हो कि बस तुमने ही कारावास भोगा ..? कारावास तो हम सबने भोगा...सबसे अधिक तो सुगना ने भोगा। उसे गर्भावस्था के दौरान भी न तो अच्छा खाना खाने को मिला, न ही अच्छी चिकित्सकीय सुविधा, फिर भी उसने अपना पत्नी धर्म निभाया और आज तुम इस पर यह दोष लगा रहे हो। उस जमील की बातों का क्या भरोसा जो स्वयं दूसरों की बहू बेटियों पर कुदृष्टि डालता है।’
ऐसा कहकर रामदीन की माता जी कमरे से बाहर आकर आंगन में बैठ गईं। पिताजी भी अधिक देर वहां ठहर न सके उनका बूढ़ा शरीर दुख और विषाद से कम्पन करने लगा...पैर और अधिक खड़े रहने में असमर्थ हो गए। वे भी लाठी टेकते हुए आंगन में पड़े हुए मूढ़े पर बैठ गए।
अब तो मानों रामदीन की आंखें खुल गयीं। उसके मन पर पड़ी संदेह की काली चादर हट चुकी थी। दृश्य स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसने गौर से सुगना के चेहरे पर देखा, बर्तन साफ करते-करते खुरदरे हो चुके उसके हाथों को देखा। उसके पवित्रता से जगमगाते नयनों को देखा तो रामदीन को वहां पाप और मलिनता का कोई कतरा तक नज़र नहीं आया। उसकी आंखों में तो मात्र रामदीन की वापसी की प्रतीक्षा और उसके लिए अपार प्रेम था।
अब रामदीन ने आत्मग्लानि से अपनी नज़रें झुका दीं कि कैसे वह जमील जैसे व्यक्ति की बातों में आकर गंगाजल जैसी पावन अपनी सुगना के विषय में ऐसी घटिया बातें बोलने लगा। उसने आगे बढ़कर सुगना के कपोलों पर ढलक रहे आंसुओं को साफ किया और उसे अपने सीने से लगा लिया। अब सुगना को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसे उन चौदह वर्षों का पारितोषिक प्राप्त हो गया हो, जैसे ठूँठ हो चुकी मन की शाखा फिर से हरी-भरी हो गयी हो। वह लता की भांति रामदीन से लिपट गयी।

(सुमन सागर)