परम्परा

सृष्टि का नियम भी अजीब है। हर बड़ा छोटे को आंख दिखाता है। अपने बड़े पद, कद, स्थान यूं समझ लीजिए जिससे तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ हो, अपने से कम श्रेष्ठ को हेय दृष्टि से देखता है। वैसे भी कोई आलिशान महल अपने इर्द-गिर्द किसी झोपड़ी को देखना कहां पसंद करता है। छल, कल, बल कैसे भी जुगाड़ लगाकर या तो उस झोपड़ी को हड़प लेता है या उसे धूल धूसरित कर देता है। समाज के सामने उसे तुच्छ साबित करने का एक भी अवसर नहीं चुकता। गिद्ध की तरह अपनी तीक्ष्ण नज़रें सदैव उस पर गड़ाए रहता है। अवसर मिलते ही बिना चबाए झट से निगल जाता है। सुपरियरिटी के घातक विषाणुओं से सिर्फ सजीव ही नहीं, निर्जीव भी ग्रसित दिखते हैं। यकीन नहीं हो तो किसी भी छोटे या बड़े शहर पर नज़र डालकर देख लीजिए। सुपीरियरिटी के घातक विषाणु शहरों में बहुत फल फूल रहे हैं। शहरों में गजब की होड़ मची है। हर छोटे-बड़े शहर अपने इर्द-गिर्द मौजूद तमाम गांवों और कस्बों को बेशर्मी से निगलते जा रहे हैं। गांव की पगडंडियां भी पहले जैसी निर्मल निश्चछल नहीं रही। शहरों की चकाचौंध से भ्रमित शहरों की ओर लपकी चलीं जा रही हैं। यही नहीं, मोहपाश में अपना अस्तित्व भी खोती जा रही हैं। गांव छोड़कर जो भी शहर आया, इसकी गलियों में भटकता रह गया। कभी अपने गांव लौटकर नहीं जा पाया। परिणाम यह है कि शहर दिनों दिन अपना साम्राज्य विस्तार करते जा रहा है। दायरा बढ़ते जा रहा है जबकि गांव...हर सैकेंड एक सेंटीमीटर सिकुड़ रहें हैं। विलुप्ति के कगार पर पहुंचे गांव के साथ वहां की सभ्यता, लोक संस्कृति, लोकगीत, संस्कार, ताजगी, अक्खड़ता इत्यादि भी जमींदोज होने को सज हैं। विकास के बुलडोजर को हरियाली फूटी आंख नहीं सुहाती। हैरानी तो इस बात की है कि अपनी पहचान गंवाकर भी गांव के माथे पर शिकन नहीं है। शहर की देखा देखी करने में व्यस्त है। लगता है शहर जैसा दिखना ही अब गांव का एकमात्र उद्देश्य रह गया है। पूस की रात वाला हल्खु शहर का सपना देखता है। गांव से गुजरने वाली नदियां अपने भाग्य पर रोने लगी हैं। उनकी पीड़ा को महसूसने की फुर्सत किसके पास है? गांव के बड़े बुजुर्गों की तरह पोखर तालाब भी अकेलेपन का झेल रहे हैं। बाग बगीचे भी बहुत तीव्र गति से इतिहास के पन्नों में सिमटते जा रहें हैं। चिड़ई चिरगुन का अपना रोना है...नीड़ की तलाश में दर बदर की ठोकरें खा रहे हैं। कंक्रीट के बने शहरों ने पहले भी कभी उनकी ज़रूरत नहीं महसूस की। अब तो गांव भी गांव नहीं रहे। स्वर सम्राज्ञी प्यारी कोयल उदास मन से अमिया की डाली पर बैठकर काले कौए से अपना सुख-दुख बतियाते हुए कह रही है ‘चल भाई, कहीं और चलते हैं। इन गांवों को उजड़ते नहीं देख सकती। वैसे भी अब कोई मेरी आवाज की नकल नहीं करता। नए बच्चे तो शायद मेरी आवाज भी नहीं पहचानेंगे? हो सकता है गौरैया की तरह किसी दिन हमें, और विलुप्त होते इन गांवों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हुए याद किया जाएगा। शहर ऐसा करने में सदैव अग्रणी रहा है।’ कहते हुए खगदल भारी मन से पश्चिम दिशा में उड़ चलें। (सुमन सागर)