क्या अर्थ-व्यवस्था की गिरावट चुनावों को प्रभावित करेगी ?

नोत्रे देम के गिरजाघर में आग लग जाने से हुई उसकी बरबादी को कई प्रेक्षकों ने एक रूपक की तरह ग्रहण किया है। इसका मतलब निकाला जा रहा है कि फ्रांसीसी पूंजीवाद संकट में है। प्रश्न यह है कि क्या एक भारतवासी के तौर पर हम दूर बैठ कर समीक्षक की तरह इस रूपक पर टीका-टिप्पणी करते रह सकते हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि नोत्रे देम जैसी आग हमारी अर्थव्यवस्था में भी लगी हुई है, और हमारे देश में भी भारतीय पूंजीवाद के संगीन संकट को व्यक्त करने वाले रूपक हैं। इनमें सबसे ताज़ा रूपक है 26 साल पुरानी और दो साल पहले तक सफलता का नमूना समझी जाने वाली जेट एअरवेज़ पर लगा ताला, और अपनी नौकरियां चली जाने के कारण सार्वजनिक रूप से रोते हुए उसके बाईस हज़ार कर्मचारी जिनकी तस्वीर हिंदुस्तान के तकरीबन हर अ़खबार में छपी है। ध्यान रहे कि एअरलाइंस में काम करने वाले लोग समाज के उच्च-मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। अगर इस वर्ग की आंखों में आंसू आ जाएं, तो समझ लेना चाहिए कि निचले तब़कों की क्या दुर्गति हो रही होगी। ताज्जुब यह होता है कि देश में इस समय लोकसभा चुनाव चल रहे हैं और हमारे मौजूदा वित्त मंत्री (जिन्हें उनके आलोचक व्यंग्य से मिनिस्टर फार ब्लाग्ज़ भी कहते हैं) लगातार दावे कर रहे हैं कि भारत एक महाशक्ति बनने की तऱफ बढ़ रहा है। बहरहाल, वित्त मंत्री के इन दावों को तथ्यों की कसौटी पर कस कर देखा जाना चाहिए। ताज़े सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस समय हमारा कुल घरेलू उत्पादन 6.6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। विख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु का मानना है कि यह भारत के पिछले पंद्रह साल के स्तर से तो कम ज़रूर है, पर दुनिया के लिहाज़ से इसे ठीक-ठाक माना जा सकता है। लेकिन, इसी के साथ कौशिक बसु यह सवाल भी पूछते हैं कि यह ग्रोथ रेट अर्थव्यवस्था के विभिन्न दायरों में दिख क्यों नहीं रहा है? मसलन, फरवरी, 2019 में भारत के औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक केवल 0.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा, और कुल औद्योगिक वृद्धि 2.1 फीसदी रही। निर्यात की हालत इतनी बुरी है कि उसकी वृद्धि दर पिछले पांच साल में शून्य पर आ गई है। बचत और निवेश की दर 2008 में 35 फीसदी से ज़्यादा थी, जो तीस प्रतिशत से नीचे चली गई है। कृषि के क्षेत्र की हालत पहले भी खस्ता थी, और अब और भी खराब हो गई है। जहां तक रोज़गार का सवाल है, सरकार ने इसके आंकड़े रोक लिये हैं। लेकिन अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय का एक अध्ययन बताता है कि केवल नोटबंदी के कारण पचास लाख से ज़्यादा नौकरियों का नुकसान हुआ है। कुल मिलाकर रोज़गार के क्षेत्र में भारतीय अर्थव्यवस्था भीषण संकट के दौर से गुज़र रही है। उस समय दिम़ाग और चकरा जाता है जब देश के सर्वोच्च कॉरपोरेट घराने रिलाइंस के मुऩाफे के आंकड़ों पर नज़र जाती है और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बदहाली के आंकड़ों से उसकी तुलना की जाती है। 31 मार्च को ़खत्म हुई तिमाही में इस घराने के मुऩाफे में 10,262 करोड़ रुपए का ज़बरदस्त इज़़ाफा हुआ है। ज़ाहिर है कि कोई भी समीक्षक इस नतीजे पर पहुंचेगा कि अर्थव्यवस्था में जो भी वृद्धि हो रही है, वह शीर्ष पर केंद्रित है, और उसका लाभ किसानों, मज़दूरों, निम्न वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग और छोटे-मंझोले व्यापारियों को बिल्कुल नहीं हो रहा है। भारत की आबादी के सबसे बड़े हिस्से की रचना करने वाले ये हिस्से अपनी जगह से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहे हैं। यहीं सवाल पूछा जा सकता है कि क्या अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर हो रही यह बढ़ौतरी टिकी रह सकती है अगर बाकी अर्थव्यवस्था अपने पैर घसीटते हुए चल रही हो? यहीं जेट एअरवेज़ की तालाबंदी का रूपक सामने आता है। एअरलाइंस चलाना एक पूंजी-सघन उद्योग है। विरोधाभास यह है कि जिस समय भारत में हवाई यात्रा करने वालों की संख्या प्रति वर्ष बीस फीसदी के आसपास बढ़ रही हो, और इस लिहाज़ से इस उद्योग के पास उपभोक्ताओं की कोई कमी न हो, एक-एक करके एअरलाइंस बंद होती चली जा रही हैं। सहारा एअरलाइंस बंद हो चुकी है, किंग फिशर पर ताला लग चुका है और अब जेट की बारी है। इन एअरलाइनों के बंद होने के पीछे इनके मालिकों की गलतियां हो सकती हैं, लेकिन सरकार भी कम दोषी नहीं है। अगर वक्त रहते भारी कराधान के कारण महंगे हवाई ईंधन को जीएसटी के दायरे में ले लिया गया होता और एअरपोर्ट के इस्तेमाल पर लगने वाले शुल्क का सुसंगतीकरण कर दिया गया होता, तो शायद इस समय उड्डयन-क्षेत्र का नज़ारा कुछ और होता। ज़ाहिर है कि अगर दूसरे घिसटते हुए क्षेत्रों पर नज़र डाली जाए तो वहाँ भी अर्थव्यवस्था के नियामक के  रूप में सरकार की अक्षमता निकल कर सामने आ जाती है। मसलन, चीन में तनख्वाहें बढ़ रही हैं यानी वहां के उत्पादों की लागत भी बढ़ रही है और उसका निर्यात महंगा हो रहा है। ऐसे में भारत के पास मौका है कि वह अपने यहां सस्ते श्रम का लाभ उठा कर कम लागत के उत्पाद तैयार करके निर्यात के बाज़ार में अपने जौहर दिखाए। अगर वह ऐसा कर पाये तो अपने देश में नौकरियों की संख्या बढ़ेगी और कृषि के क्षेत्र को भी कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा। लेकिन, इसके लिए सरकार को जिस तरह की नीतियां बनानी चाहिए थीं, वे उसने नहीं बनाईं और न ही वह बनाने के मूड में लग रही है। नतीजे के तौर पर भारत इस परिस्थिति का लाभ उठाने में असमर्थ साबित हो रहा है। 2016 में व्यापार करने की आसानी के लिहाज़ से 189 अर्थव्यवस्थाओं में भारत का स्थान 130वां था। सरकार ने लाल फीताशाही में कटौती करने वाले कुछ प्रशंसनीय कदम उठाए जिससे 2018 तक भारत का स्थान सुधर कर 77वां हो गया। कायदे से देखा जाए तो इस प्रगति का भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ होना चाहिए था। उसका उत्पादन बढ़ना चाहिए था और रोज़गार के अवसर भी बढ़ने चाहिए थे। लेकिन दोनों में से कोई भी फायदा होते नहीं दिखाई दिया। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, वास्तविक रूप से लाल़फीताशाही में कटौती नहीं हुई। विश्व बैंक ने ऐसा करने के लिए भारत को दस सुझावों का एक पैकेज थमाया था। इस पर अमल करने से भारत की रैंकिंग में तो सुधार आ गया, लेकिन ज़मीन पर वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ा। नतीजे के तौर पर आर्थिक गतिविधियों में कोई उछाल नहीं आया। चूंकि चुनाव चल रहे हैं तो यह सवाल लाज़िमी तौर पर पूछा जाना चाहिए कि क्या अर्थव्यवस्था की इस दुर्गति का वोट के मोर्चे पर कोई असर पड़ेगा? क्या नोटबंदी से प्रभावित लोग अपनी वोट डालने की प्राथमिकता इसके आधार पर तय करेंगे? क्या छोटे-मंझोले उद्योगों की बरबादी से प्रभावित हुआ आबादी का विशाल तब़का इस आधार पर अपनी राजनीति तय करेगा? या सिर्फ बालाकोट स्ट्राइक के आधार पर ही सरकार बनने या न बनने का फैसला होगा? ये कठिन प्रश्न हैं और इनका उत्तर 23 मई को मिलेगा।