कुपोषण की समस्या से जूझ रहा है भारत

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है। दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में किए गए सर्वेक्षणों में पाया गया कि देश के सबसे गरीब इलाकों में आज भी बच्चे भुखमरी के कारण अपनी जान गंवा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो इन मौतों को रोका जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने भारत में जो आंकड़े पाए हैं, वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर से कई गुना ज्यादा हैं। कुपोषण की समस्या से दुनिया के अधिकांश देश जूझ रहे हैं। यूनिसेफ  की मानें तो दुनिया में कुपोषण के शिकार कुल बच्चों की तादाद तकरीबन 14.6 करोड़ से भी अधिक है। इनमें से 5.7 करोड़ से ज्यादा तो अकेले भारत में ही हैं। यह तादाद दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई से अधिक है।  हमारे यहां तीन वर्ष से कम आयु के 47 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। 45 फीसदी अपनी आयु के हिसाब से कद में काफी छोटे हैं। इस मामले में 2015-16 के दौरान किये गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की मानें तो कुपोषण के कारण देश भर के 38.5 फीसदी पाँच साल तक के बच्चों की लम्बाई उम्र से काफी कम थी। इनमें से 21 फीसदी में यह समस्या काफी गंभीर है। छोटे कद वाले बच्चों की तादाद शहरों में 31 और गाँवों में 41 फीसदी है। कद छोटा होने वाले अत्यधिक प्रभावित बच्चों की तादाद 21 फीसदी है। ऐसे बच्चों का शहरों और गाँवों में प्रतिशत समान ही है। दरअसल समस्या इतनी भयावह हो चुकी है कि हमारी भावी नस्लें तक प्रभावित हुए बिना नहीं बचीं। 
मौत के कारण
भारत में 17 लाख बच्चे एक साल की उम्र पूरी करने से पहले और 1.08 लाख बच्चे एक महीने की उम्र भी पूरी नहीं कर पाते और मौत के मुँह में चले जाते हैं। जबकि पाँच साल से कम उम्र के 21 लाख बच्चे मौत के शिकार होते हैं। इस हालत में जबकि समूची दुनिया में पाँच साल से कम उम्र के 97 लाख बच्चे पर्याप्त आहार न मिल पाने, बुनियादी साफ.-सफाई और स्वास्थ्य रक्षा में कमी के चलते मौत के मुँह में चले जाते हैं। हालात की भयावहता का सबूत यह है कि जीवन के शुरुआती छह महीनों में कम वजन के बच्चों का प्रतिशत 16 से बढ़कर 30 तक जा पहुँचा है। पर्याप्त स्तनपान न हो पाने से भूख, डायरिया, निमोनिया और नवजात बच्चों में संक्रमण जन्म के बाद के दो सालों में होने वाली मौतों का मुख्य कारण है। देश में 70 फीसदी पाँच साल से कम आयु के तकरीबन 146 लाख बच्चों का वजन सामान्य से कम है। इनकी दक्षिण एशियाई देशों में तादाद बहुत ज्यादा है। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में पाँच साल से कम उम्र के 50 फीसदी बच्चे और 30 फीसदी गर्भवती महिलाएं कुपोषित हैं। इसमें ज्यादातर वह गरीब परिवार हैं जो अपने भोजन में पौष्टिकता को शामिल नहीं कर पाते। इसका अहम कारण महिलाओं का निम्न जीवन स्तर, उचित स्तनपान न कराया जाना, पूरक आहार का अभाव व उनमें पोषण सम्बन्धी जानकारी का न होना है। यूनिसेफ  की प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि यदि नवजात शिशु को आहार देने के उचित तरीके के साथ स्वास्थ्य के प्रति कुछ साधारण-सी सावधानियां बरत ली जायें तो भारत में हर वर्ष होने वाली पाँच वर्ष से कम आयु के छह लाख से ज्यादा बच्चों की मौतों को टाला जा सकता है।
मिड-डे-मील योजना
मिड-डे-मील योजना, स्कूल के बच्चों को भोजन प्रदान करने के लिए भारत सरकार द्वारा शुरू की गई योजना है। इसका लक्ष्य पूरे देश में स्कूल जाने वाले बच्चों के पोषण संबंधी स्थिति में एवं देश की साक्षरता में सुधार करना है। सन् 2004 में खाद्य और शिक्षा दो प्रमुख मुद्दों को संबोधित करते हुए इसे लागू किया गया था। इस योजना के तहत, सरकारी और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों में प्राथमिक और उच्चतर प्राथमिक वर्गों में पढ़ रहे 6 से 14 साल तक के बच्चों को एक पोषण युक्त भोजन प्रदान किया जाता है। यह पोषण युक्त भोजन उन बच्चों को प्रदान किया जाता है जो दो वक्त का खाना लेने में असमर्थ हैं। मिड-डे-मील योजना का मुख्य उद्देश्य कक्षा में भूखे बच्चों, स्कूल में नामांकन और उपस्थिति एवं कुपोषण के मुद्दों में सुधार करना था। इन उद्देश्यों को पूरा करते हुए इसका लाभ बहुत से बच्चों तक पहुंचाया गया है। इससे बच्चे स्कूल जाने के लिए उत्सुक होने लगे। जिससे स्कूलों में बच्चों का नामांकन और उनकी उपस्थिति में बढ़ोत्तरी एवं सुधार हुआ। इस योजना के तहत बच्चों को भोजन प्रदान किया जाता है, जिससे भूखे बच्चों की समस्या को हल करने में मदद मिली, जोकि स्कूल के बच्चों में एकाग्रता की कमी के मुख्य कारणों में से एक था। मिड-डे-मील प्रोग्राम दुनिया का सबसे बड़ा स्कूल मील प्रोग्राम है, जिसके माध्यम से 1 मिलियन से अधिक स्कूलों में 120 मिलियन से अधिक बच्चों को भोजन प्रदान किया जाता है। लेकिन जाहिर है इसके पैमाने को संचालित करने के लिए बहुत से कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार ने 2.6 मिलियन लोगों को कुक और सहायकों के रूप में नियुक्त किया है। स्कूलों में इसके लिए काम करने वाले कुक और सहायकों के अलावा ऐसे कई लोग हैं जो एनजीओ चलाते हैं। वे भी सरकार के साथ इस योजना को चलाने में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में शामिल हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मिड-डे-मील योजना ने हमारे देश के बच्चों के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन इस योजना को और भी बेहतर ढंग से चलाया जा सकता है। इन स्कूलों में ज्यादातर पढ़ने वाले बच्चे गरीब परिवारों के या फिर प्रवासी मजदूरों के होते हैं। इन बच्चों के माता-पिता मजदूरी के लिए सुबह जल्दी ही घर से निकल जाते हैं जबकि ये बच्चे बिना कुछ खाये-पीये स्कूल आ जाते हैं।  मेरी सरकार और स्कूलों को चलाने वाली स्वै-सेवी संस्थाओं से अपील है कि वह स्कूल आने वाले इन बच्चों को सबसे पहले दूध, चाय और बिस्कुट या फल आदि खाने-पीने के लिए ज़रूर दें, ताकि ये बच्चे मन लगाकर पढ़ सकें। क्योंकि किसी संत पुरुष ने भी कहा है ‘भूखे भजन न होय गोपाला’। इसलिए इन भूखे बच्चों को पहले खाना दिया जाए और फिर पढ़ाया जाए। यदि हमने अपने देश से कुपोषण की समस्या को सच में खत्म करना है तो हम सभी का यह दायित्व बनता है कि हम इन भूखे-प्यासे, गरीब और बेसहारा बच्चों का सहारा बनें। इन्हें भर पेट भोजन खिलाएं और बेहतर सुविधाएं प्रदान करें ताकि ये अपना भविष्य उज्जवल बना सकें।

(लेखक रोटरी क्लब जालन्धर उत्तरी के अध्यक्ष हैं)