अब देश का मूड भी बताता है सोशल मीडिया

मनोविद कहते हैं किसी की सोशल मीडिया में मौजूद प्रोफाइल देखकर यह जाना जा सकता है कि वह किस सोच-विचार का और किस तरह की जिंदगी जीने वाला इंसान होगा। कहने का मतलब यह कि सोशल मीडिया ने भले चाहे अपनी दुनिया में पर्दा डालने की खूब सहूलियतें दी हो, लेकिन यह इंसान का स्वभाव है कि वह अपनी दैनिक गतिविधियों में चाहकर भी हर समय अभिनय नहीं कर सकता या यूं कहें कि अपने आपको तमाम कोशिशों के बाद भी पूरी तरह से पर्दे में नहीं रख सकता। इस समझ के कई फायदे हैं तो हाल के सालों में इसके कई नुकसान भी देखे गये हैं। एक समय ऐसा था जब किसी मामले में देश का मानसिक जनमत बनाने के लिए काफी लंबे समय तक लगातार मशक्कत करनी पड़ती थी।  बहुत लंबी और नियमित सक्रियता की जरूरत होती थी। यही नहीं एक साथ कई स्तरों पर अपनी बात बिना उत्साह खोये कहनी पड़ती थी, तब कहीं जाकर कोई बात समाज में फैलती थी या उसे लेकर समाज में व्यापक विचार-विमर्श शुरु होता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब महज 24 घंटे के भीतर सोशल मीडिया की बदौलत देश का मूड बनाया भी जा सकता है और बिगाड़ा भी जा सकता है। जी, हां! सोशल मीडिया में आज इतनी ताकत है कि न सिर्फ  किसी धारणा या विचार को वह पलक झपकते पूरी दुनिया में फैला देती है बल्कि महज कुछ ही घंटों के भीतर किसी मसले पर वैश्विक विचार विमर्श शुरू करवा देती है। इसे हाल के दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। पिछले दिनों यकायक जब भारत सरकार ने संसद में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए, राज्यसभा में बिल पेश किया तो जंगल की आग की तरह इस खबर को तो फैलना ही था, दूसरी बड़ी बात यह थी कि कुछ ही देर में पूरा देश  अनुच्छेद 370 को लेकर एक स्वर में सरकार के साथ खड़ा था। अगर तकनीकी रूप से देखें तो भारत सरकार को अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35-ए को खत्म करने के संबंध में महज एक से डेढ़ घंटे भीतर देश में जबरदस्त समर्थन मिल गया। यह सब सिर्फ  और सिर्फ  सोशल मीडिया के बदौलत संभव हुआ, जहां लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोग एक साथ, एक ही समय में, एक ही मुद्दे पर विचार-विमर्श कर रहे थे।पहले किसी समाज के मूड को बदलने के लिए कोई काम बहुत लंबे समय तक करना पड़ता था। फिर भी ऐसा कोई जांचने का जरिया नहीं होता था कि पता चले कि वाकई किसी खास इश्यू को लेकर समाज का मूड बना है या नहीं बना। लेकिन अब यह महज कुछ घंटों का काम है। भारत में पिछले साल तक करीब 76 करोड़ मोबाइल फोन थे, इनमें से 33.7 करोड़ मोबाइल स्मार्टफोन थे। जाहिर है ये स्मार्टफोन वे फोन हैं, जिनके जरिये अब करोड़ों लोग हर समय सोशल मीडिया के साथ ऑनलाइन रहते हैं या कहें कि पल-पल की गतिविधियों से रूबरू होते हैं। बड़ी तादाद में स्मार्टफोन के चलन में आने से सोशल मीडिया एक बहुत ताकतवर मंच के रूप में उभरी है। कभी यह महज एक वैकल्पिक अभिव्यक्ति का मंच था, लेकिन आज इसका आकार इतना बढ़ चुका है और इसमें ताकत इतनी ज्यादा आ चुकी है कि अगर इसे सबसे प्रभावी और हर मामले में देश की बहुसंख्यक आबादी को पक्ष-विपक्ष में खड़ा कर देने वाला मंच कहें तो अतिश्यिक्ति नहीं होगी। यह अकारण नहीं है कि अब देश में किसी भी मुद्दे को लेकर पलक झपकते ही राय बन जाती है या फिर उस मुद्दे को हवा में उड़ जाना पड़ता है। भारत, चीन के बाद दूसरा ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा युवा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि चीनियों के मुकाबले भारत के युवा भले संख्या में कम हों बाकी हर मामले में वह दुनिया में सबसे आगे हैं। मसलन- मोबाइल में इंटरनेट यूज करने वाले 70 फीसदी से ज्यादा युवा हर समय न केवल अपने स्मार्टफोन से टच में रहते हैं बल्कि ठीक उसी समय ये सोशल मीडिया में भी मौजूद होते हैं और महज मौजूद नहीं होते बल्कि वहां चल रहे बहस में हिस्सा ले रहे होते हैं और अपना पक्ष पेश कर रहे होते हैं। इस मामले में भारत के युवा सबसे आगे हैं। क्योंकि भारतीय युवाओं की राजनीतिक रूचि और जनरल नॉलेज सबसे अच्छी होती है। यही वजह है कि भारतीय युवा भले दुनिया के बहुत सारे देशों के युवाओं के मुकाबले डाटा कम खर्च करते हों। लेकिन कम डाटा खर्च करने के बाद भी भारतीय युवा सबसे ज्यादा चीजों को खासकर सवालों पर रिएक्शन करते हैं। प्यू रिसर्च सेंटर ने इंटरनेट यूजर्स की नौजवान पीढ़ी पर एक रिसर्च में पाया है कि युवा पीढ़ी न सिर्फ  इंटरनेट के जरिये सोशल मीडिया पर सर्वाधिक सक्रिय है बल्कि सोशल मीडिया को हर लिहाज से महत्वपूर्ण बनाने में इनका बड़ा योगदान है। भारत में 39 फीसदी से ज्यादा युवाओं के पास स्मार्टफोन है। जिस कारण ये हर समय देश के महत्वपूर्ण मुद्दों को जान ही नहीं रहे होते बल्कि उनमें अपनी भागीदारी भी निभा रहे होते हैं। कहने का मतलब अपने पक्ष को भी उसमें शामिल कर रहे होते हैं। भारत में 18 से 36 साल के युवा सबसे ज्यादा इंटरनेट के माध्यम से सोशल मीडिया में सक्रिय रहते हैं।
यह अकारण नहीं है कि आज की तारीख में जब देश में एक अरब से ज्यादा फोन और मोबाइल फोन हैं तथा 18 लाख से ज्यादा मोबाइल सब स्टेशन हैं। उस दौर में ज्यादातर भारत की राजनीतिक पार्टियां अपनी बात कहने और उसके पक्ष में लोगों को गोलबंद करने के लिए सड़क पर उतरने की बजाय सोशल मीडिया में सक्रिय होती हैं। क्योंकि इसकी पहुंच मोबाइल और स्मार्टफोन के जरिये करीब देश की 60 फीसदी आबादी तक हो गई है। हद तो यह है कि अब के पहले जितने भी संचार और संपर्क के माध्यम थे, उनमें ज्यादातर हर समय आपके पास नहीं रहते थे, उनकी एक जगह और समय निर्धारित होता था। मसलन लोग जिस समय तक टीवी देखते थे इसके बाद टीवी को बंद कर दिया जाता था। लेकिन संचार के विभिन्न माध्यम मोबाइल फोन में आ जाने की वजह से अब लोग हर तरह की संचारिक गतिविधियों से 24 घंटे जुड़े रहते हैं। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया है कि 74 फीसदी भारतीय अपने स्मार्टफोन के साथ सोते हैं और इनमें से एक तिहाई रात के किसी भी समय जगने पर नोटिफिकेशन चैक करते हैं। जनसंचार के इस सतत सक्रिय समय पर किसी भी मुद्दे पर लोगों की त्वरित राय आनी स्वभाविक है। लेकिन यह महज राय नहीं होती, सोशल मीडिया में चूंकि द्विपक्षीय संवाद और संचार की सुविधा है इसलिए इस प्रक्रिया में देश की एक साझा सोच बनती है, एक निर्णायक मूड बनाता है। भारतीय राजनीतिक पार्टियों में इस बात को भाजपा, पांच साल पहले ही समझ गई थी, इसीलिए वह 2014 के आम चुनाव में सोशल मीडिया में इस कदर सक्रिय हुई थी कि एक तरफ  भाजपा थी और एक तरफ देश की सभी राजनीतिक पार्टियां, फिर भी वे मिलकर भाजपा का मुकाबला नहीं कर पा रही थीं। 2017-18 के शुरुआती समय में फेसबुक में हर महीने 15 करोड़ से ज्यादा लोग दो से चार घंटे बिताते थे। अब इनकी तादाद करीब 20 से 21 करोड़ हो चुकी है और गुजारा जाने वाला समय भी दो घंटे से बढ़कर 3 घंटे 25 मिनट हो गया है। साथ ही व्हाट्सअप भी एक जनमत बनाने का बड़ा माध्यम बन चुका है। दो साल पहले 16 करोड़ लोग व्हाट्सअप से जुड़े थे। कुल मिलाकर आज सोशल मीडिया न सिर्फ  देश के मूड का हाल बताती है बल्कि देश का मूड भी बनाती है।