सरकार की आलोचना राज-द्रोह नहीं !

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व छात्र नेता शहला रशीद उन याचिकाकर्ताओं में से एक हैं जिन्होंने धारा 370 को रद्द किये जाने के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है। शहला रशीद ने हाल ही में कश्मीर की वर्तमान स्थिति को लेकर अनेक ट्वीट किये थे, जिनके बारे में उनका कहना है कि वह घाटी के लोगों से प्राप्त जानकारी के आधार पर हैं, लेकिन दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के एक वकील की शिकायत पर शहला रशीद के विरुद्ध राजद्रोह (124 ए) दंगा भड़काने का इरादा (153 ए)धर्म, नस्ल, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न गुटों में दुश्मनी बढ़ाना (153ए) जानबूझकर शांति भंग करना (504) और शरारती वक्तव्यों (505) के आरोपों के तहत एफ.आई.आर. दर्ज की है। इस संदर्भ में शहला रशीद का कहना है कि एफ.आई.आर. झूठी, राजनीति से प्रेरित व मुझे खामोश करने का प्रयास है। साल 2016 में जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित दो अन्यों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इस मामले की सुनवाई आगामी 18 सितम्बर को है। इस संदर्भ में दिल्ली सरकार की फाइल नोटिंग इस प्रकार है। यह मामला राज्य के विरुद्ध राजद्रोह का नहीं है और न ही यह हिंसा भड़का कर राष्ट्र की प्रभुसत्ता पर हमला है। इसलिए इसमें आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा चलाने का मामला नहीं बनता है। इस फाइल नोटिंग के खिलाफ  भाजपा के युवा मोर्चा ने 7 सितम्बर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निवास के बाहर यह मांग करते हुए प्रदर्शन किया कि जेएनयू मामले में राजद्रोह का मुकद्दमा चलाने की अनुमति दी जाये।इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश दीपक गुप्ता का बयान महत्वपूर्ण हो जाता है। इलाहाबाद में भारत में राजद्रोह का कानून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विषय पर आयोजित एक सेमिनार में बोलते हुए न्यायाधीश गुप्ता ने कहा कि राजद्रोह के कानून की समीक्षा इस समय आवश्यक हो गई है, क्योंकि आईपीसी के इस प्रावधान का प्रयोग हाल ही में उन लोगों के विरुद्ध हुआ है, जिन्होंने सरकार की आलोचना की है और उन लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं जिन्होंने सरकार में बैठे नेताओं पर टिप्पणी की है। न्यायाधीश गुप्ता ने कहा कि अगर राजद्रोह का कानून निरस्त नहीं भी किया जाता है, तो भी कम से कम उसे ष्टोन डाउन’ कर देना चाहिए ताकि मामूली बातों पर लोगों की गिरफ्तारियां न हों। हाल के कुछ मामलों का हवाला देते हुए कि किस तरह राजनीतिक कार्टून बनाने व राज्य में बिजली कटौती पर व्यंग्य करने के लिए राजद्रोह कानून के तहत लोगों को गिरफ्तार किया। न्यायाधीश गुप्ता ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संवैधानिक अधिकार है, उसे राजद्रोह कानून पर वरीयता देनी चाहिए। न्यायाधीश गुप्ता के अनुसार नागरिकों को चुनी हुई सरकार की आलोचना करने का अधिकार है और आलोचना अपने आप में राजद्रोह नहीं। अधिक से अधिक ऐसे मामलों को अगर असंयमी, असभ्य व अपयशपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया है तो मानहानि के दायरे में रखा जा सकता है। आईपीसी की राजद्रोह से संबंधित धारा 124 ए यह कहती है, जो व्यक्ति भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध, शब्दों से चाहे वे लिखित हों या बोले हुए हों या संकेतों से अथवा दिखाई देने वाले प्रतिनिधत्व से या अन्य तरह से, नफरत या निंदा या असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास की सज़ा से दण्डित किया जायेगा। ध्यान रहे कि राजद्रोह तब ही अपराध होता है जब हिंसा या पब्लिक डिसऑर्डर के लिए उकसाया जाये। यह कानून गुलाम भारत में अंग्रेजों ने अपनी सरकार को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए बनाया था, लेकिन 1974 में भारत सरकार ने इसके अपराधिक प्रावधान में परिवर्तन करते हुए इसे नॉन-कोग्निज़ेब्ल से कोग्निज़ेब्ल बना दिया, जिससे यह अधिक कठोर हो गया और पुलिस को मजिस्ट्रेट से वारंट हासिल किये बिना गिरफ्तारी का अधिकार मिल गया। अब जबकि स्थिति यह है कि जब देश के विभिन्न हिस्सों में खराब कानून व्यवस्था की बात उठती है, तो पुलिस हमेशा पुलिसकर्मियों की कमी का बहाना बनाती है। दुष्कर्म, हत्या व (पोक्सो) यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा कानून, अपराधों में ट्रायल की बात आती है, तो यह वर्षों तक खिंचते रहते हैं क्योंकि पुलिस अधिकारियों के पास अदालतों में बयान देने का समय नहीं होता, लेकिन जब बात राजद्रोह की या आईटी एक्ट की धारा 66 ए (जो असंवैधानिक घोषित हो चुकी है) लेकिन पुलिस अब भी लागू करती है, की आती है तो पुलिस के पास मैनपावर की कमी नहीं रहती और वह जबरदस्त तेज़ी व फुर्र्ती से कार्य करती है। इसलिए न्यायाधीश गुप्ता ने कहा कि मेरे लिए यह बहुत चिंता की बात है कि आज़ाद भारत में राजद्रोह से संबंधित प्रावधानों को अधिक कठोर बनाया जा रहा है और जनता की आवाज़ को दबाया जा रहा है। मेरा मानना है कि हमारा देश, हमारा संविधान और हमारे राष्ट्रीय चिन्ह पर्याप्त मज़बूत हैं कि बिना राजद्रोह के कानून के अपने कंधों पर खड़े हो सकें। सम्मान, इज्जत व प्रेम अर्जित किया जाता है और इसका कभी हुक्म नहीं दिया जा सकता। आप राष्ट्रगान पर किसी को जबरन खड़ा कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उसके दिल में जबरदस्ती सम्मान उत्पन्न नहीं कर सकते।दरअसल, हर संस्था को सहिष्णु होना चाहिए और असहमति की आवाज़ को सुनने के लिए खुला भी। न्यायाधीश गुप्ता के अनुसार बहुसंख्यावाद कानून नहीं हो सकता, अल्पसंख्यकों को भी अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है। आज की चुनी हुई सरकारें भी सभी आवाजों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हर सरकार जो बड़े बहुमत से सत्ता में आती है, उसे भी 50 प्रतिशत मत नहीं मिलते हैं। बहरहाल, असहमति की आवाजों को सिर्फ  राजद्रोह की एफ.आई.आर. से खामोश करने का प्रयास नहीं है, बल्कि अन्य धाराओं में भी मुकद्दमे कायम किये जा रहे हैं और वह भी पत्रकारों के विरुद्ध। उत्तर प्रदेश में पिछले 15 दिनों के भीतर 9 पत्रकारों के खिलाफ  एफ .आई.आर. दर्ज हुई हैं। बिजनौर में गोपाल वाल्मीकि ने अपने पड़ोसी के अत्याचारों से तंग आकर अपने घर की दीवार पर ‘यह मकान बिकाऊ है’ का बोर्ड लगाया और इस घटना की जानकारी देने के लिए पत्रकारों को बुलाया, जिन्होंने इस खबर को फ्लैश कर दिया, पुलिस ने पांच पत्रकारों के विरुद्ध विभिन्न धाराओं (जिनमें आईटी एक्ट की निरस्त धारा 66 ए भी है) के तहत मामला दर्ज कर दिया। आजमगढ़ के एक स्कूल में कुछ बच्चे फर्श साफ कर रहे थे, पत्रकार संतोष जैसवाल ने तस्वीर खींच ली, पुलिस ने फि रौती मांगने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया। मिर्जापुर में मिड-डे मील में बच्चे नमक से रोटी खा रहे थे, एक पत्रकार ने वीडियो बना ली, पुलिस ने उस पर मुकद्दमा कायम कर दिया। यह आवाज़ें अकारण ही बंद नहीं की जा रही हैं।

—इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर