सुप्रीम कोर्ट के ज़रिये आरटीआई को मिली नई ताकत

सुप्रीम कोर्ट का सूचना का अधिकार से संबंधित निर्णय ऐसे समय आया है जब आरटीआई एक्ट और आरटीआई अपीलों को देखने वाले सूचना आयुक्तों को कमज़ोर कर दिया गया है। वास्तव में केंद्र सरकार ने आयुक्तों की सेवा अवधि व सेवा शर्तों को तय करने का अधिकार अपने अधीन कर लिया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को सार्वजनिक प्राधिकरण मानते हुए, उन्हें आरटीआई एक्ट के दायरे में लाकर पारदर्शिता व जवाबदेही को कुछ हद तक बल प्रदान करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से देखा जाये तो न्यायपालिका ने आरटीआई एक्ट की सुस्पष्ट विशेषता को पुन: स्थापित करने की कोशिश की है। इस निर्णय ने इन धारणाओं को भी निराधार कर दिया है कि आरटीआई एक्ट के प्रावधान न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है कि सूचनाओं को सार्वजनिक करने से जनहित ही साधा जाता है, लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका पर मंडराते खतरे को संज्ञान में लेते हुए कहा कि आरटीआई एक्ट का प्रयोग इस संस्था को नष्ट करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए निर्णय में यह सही किया गया है कि आरटीआई एक्ट के प्रावधानों को प्रयोग करने के सन्दर्भ में कुछ सीमाएं लगा दी गई हैं। गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कुछ विवादों के कारण सुप्रीम कोर्ट के भीतर अनेक मुद्दों पर गंभीर मंथन हुआ है जैसे कॉलेजियम चर्चा, न्यायिक नियुक्तियों व ट्रांसफर में एग्जीक्यूटिव का हस्तक्षेप और बेंच निर्धारित करने के सिलसिले में सीजेआई के मास्टर ऑफ रोस्टर के रूप में जो अधिकार हैं। चूंकि न्यायाधीश ज़बरदस्त दबाव में काम करते हैं, इसलिए सूचना आयुक्तों को दो बातें सुनिश्चित करनी होंगीं। एक तो यह कि उनके आदेश त्वरित जनहित से संबंधित हों और न्यायाधीशों के कामकाज में बाधा उत्पन्न न करें। हाल की चिंताजनक स्थितियों के बावजूद पारदर्शिता को अपनाकर सुप्रीम कोर्ट ने अन्य जन सेवकों को ठोस संदेश दिया है। केन्द्रीय सूचना आयोग की 2013 की रूलिंग के बावजूद राजनीतिक पार्टियां आरटीआई एक्ट के तहत आने से इंकार कर रही हैं। सियासी दलों का यह दावा पूर्णत: बेबुनियाद है कि वह ‘जन सेवक’ नहीं हैं क्योंकि वह जनता से एकत्र किये गये फंड पर निर्भर करती हैं और उनके अस्तित्व का कारण जनहित सेवा ही है। आरटीआई एक्ट का मकसद है कि सूचना की प्रोएक्टिव जानकारी दी जाये, इसे प्रत्येक जन संस्था को अपना लेना चाहिए।अगर न्यायपालिका आरटीआई एक्ट के अधीन आ सकती है तो राजनीतिक पार्टियां क्यों नहीं? बहरहाल, जहां इस निर्णय का अपना महत्व है, वहीं इसमें कुछ उल्लेखनीय सुझाव भी दिए गये हैं जिनका संज्ञान लिया जाना चाहिए। मसलन, न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि हाईकोर्ट्स व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिन व्यक्तियों का चयन किया जाता है उनके लिए अनुमान्य नियम बनाये जायें और उन्हें सार्वजनिक किया जाये। न्यायाधीश एन.वी. रमण ने कहा कि पारदर्शिता के नाम पर न्यायाधीशों व न्यायपालिका की जासूसी नहीं होनी चाहिए।13 नवम्बर के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने सीजेआई व हाईकोर्ट्स के मुख्य न्यायाधीशों के कार्यालयों को ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ तो घोषित कर दिया। जिससे आरटीआई एक्ट के तहत उनसे सूचना ली जा सकती है।लेकिन न्यायाधीशों व न्यायपालिका को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए यह अनुमति ज़बरदस्त कैविएट्स (विराम-पत्रों या शर्तों) के साथ दी गई है, जैसे ‘न्यायिक स्वतंत्रता, निजता व वास्तविक जनहित। इसका अर्थ यह है कि सूचना इसी शर्त पर मिलेगी कि वह न्यायिक स्वतंत्रता व निजता को बाधित न करती हो और वह वास्तविक जनहित में मांगी जा रही हो। अब इस शर्त की व्याख्या सूचना देने के लिए भी की जा सकती है और न देने के लिए भी। खंडपीठ ने कहा, ‘जब जनहित की मांग सूचना को सार्वजनिक करने की होती है तो स्वविवेक के प्रश्न पर निर्णय लेते हुए न्यायिक स्वतंत्रता को संज्ञान में रखना चाहिए।’ हालांकि खंडपीठ ने यह कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता व जवाबदेही साथ साथ चलते हैं क्योंकि जवाबदेही न्यायिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करती है और उसका हिस्सा भी है। मुख्य निर्णय लिखते हुए न्यायाधीश खन्ना ने समझाया, ‘सीजेआई या न्यायाधीशों का कार्यालय सुप्रीम कोर्ट से अलग नहीं है और बॉडी, अथॉरिटी व इंस्टिट्यूशन के रूप में सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा है। सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट दो अलग व भिन्न ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ नहीं हैं, और मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीश मिलकर ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ का गठन करते हैं, जो कि भारत का सुप्रीम कोर्ट है।  इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि हाईकोर्ट्स व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्तियों के संदर्भ में आरटीआई एक्ट के तहत सूचना प्राप्त करने के प्रश्न पर जवाब उभयभावी रहा यानी दो विरोधी गुणों वाला। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति व ट्रांसफर से संबंधित कॉलेजियम के अंतिम निर्णय या प्रस्ताव और कॉलेजियम ने जिस इनपुट व डाटा का संज्ञान लिया और कारण दिए, उनमें अंतर करना होगा। इससे यही प्रतीत होता है कि कॉलेजियम जिस आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचता है, वह गुप्त ही रहेगा।