मधुर भाषा

एक आदमी का स्वभाव बड़ा ही चंचल था। उसकी वाणी भी बहुत कर्कश थी। वह सबके साथ कठोर व्यवहार करता था। छोटे-बड़े, किसी का लिहाज उसके भीतर नहीं था। इसका जो परिणाम होना चाहिए था, वही हुआ। उसके प्रति सबके मन में कटुता उत्पन्न हो गई। वह जिधर जाता, लोग उसे देखकर मुंह फेर लेते। उसके तने हुए चेहरे से लोगों के दिलों में तिरस्कार का भाव पैदा होता था। वह आदमी यह सब देखकर दुखी तो होता था, पर बेचारा अपने स्वभाव से लाचार था। अप्रिय शब्द बोलने और कड़वी भाषा का प्रयोग करने से वह अपने को रोक नहीं पाता था। संयोग से एक दिन एक साधु वहां आए। वह आदमी उनसे मिलने गया। बोला, ‘यह दुनिया बहुत बुरी है। मुझे उसने इतना सताया है कि आपसे कुछ कह नहीं सकता।’ इसके बाद उसने लोगों की उपेक्षा की बात विस्तार से बताते हुए कहा, ‘मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूं। साधु उस व्यक्ति के चेहरे की कठोरता और उसकी तीखी भाषा सुनकर समझ गए कि उसका रोग क्या है। उन्होंने उससे कहा, ‘जाओ, एक दीपक ले आओ और बाती के लिए रूई।’ वह आदमी गया और दीपक तथा बाती के लिए रूई ले आया। साधु ने कहा, ‘दीपक में बाती डालो।’ आदमी ने बाती डाल दी। साधु ने कहा, ‘अब इसमें पानी भरो।’ उस आदमी ने पानी भर दिया। साधु बोले ‘अब इसे जलाओ।’ उस आदमी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर साधु महाराज उसे दीपक जलाने को क्यों कह रहे हैं। कहीं वह कोई चमत्कार तो नहीं करने वाले हैं ? उसने दियासलाई लेकर दीपक को जलाने का प्रयत्न किया। लेकिन वह नहीं जला। उसने कहा, ‘यह तो जलता नहीं।’ साधु ने कहा, ‘अरे पगले, जब तक दीये में स्नेह अथवा तेल नहीं पड़ेगा, यह जलेगा कैसे ?’ तुम्हारे दीये में पानी पड़ा है। उसे फेंक दो और स्नेह डालो। तभी वह जलेगा और प्रकाश देगा। वह आदमी सब कुछ समझ गया। उसने अपनी बोली सुधारने का संकल्प किया।

-मुकेश शर्मा