जब पहलवान के.डी. यादव ने उधार पैसे लेकर ओलम्पिक में कांस्य पदक जीता

के.डी. यादव ने 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक खेलों में फ्री स्टाइल कुश्ती में कांस्य पदक हासिल किया था। यादव की ओलम्पिक खेलों में पदक जीतने की बहुत ही संघर्षपूर्ण दास्तां है। 1926 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के गांव गोलेश्वर में जन्मे यादव को कुश्ती  अपने पिता दादा साहिब से विरासत में मिली और पांच वर्ष की आयु में पिता अपने पुत्र के कोच बने। उस समय यादव बहुत ही कमज़ोर दिखाई देते थे और इस कारण उसे कालेज के डीन ने कुश्ती टीम में शामिल करने से इन्कार कर दिया था परन्तु काफी मिन्नतें करने के बाद शामिल किया गया और फिर यादव ने ऐसा प्रदर्शन किया कि वह पाकेट डाइनमो के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जब के.डी. यादव को पता लगा कि 1948 के ओलम्पिक खेलें लंदन में हो रही हैं तो उसने अंग्रेज़ों की धरती पर पदक जीतने की ठान ली। वह मेहनत करने लगा परन्तु उस समय सरकार ओलम्पिक में जाने के लिए पैसे नहीं देती थीऔर खिलाड़ी स्वयं अपना खर्च करके जाते थे। उस समय यादव के पास पैसे नहीं थे कि वह लंदन में जा सके। इसलिए उसे अपना सपना टूटता दिखाई दिया परन्तु उसके हौसले को देखते हुए कोहलापुर के महाराजा सहायता के लिए आगे आए और महाराजा ने लंदन जाने का पूरा खर्च उठाया। दुर्भाग्य से लंदन में यादव 6वें स्थान पर आए परन्तु देशवासियों ने इस उपलब्धि को बेहद पसंद किया। लंदन में हारने के बाद भी जीत का जुनून यादव के सिर चढ़ कर बोलने लगा और वापस 1956 के ओलम्पिक की तैयारी करनी शुरू कर दी और यादव ने मेहनत से हर तरफ अपना नाम कुश्ती के क्षेत्र में चमकाया परन्तु जब 1952 में हेलसिंकी जाने की बात आई तो उस समय भी यादव के पास पैसे नहीं थे। यादव उस समय बाम्बे स्टेट के मुख्यमंत्री मुरारजी देसाई से मिले परन्तु उन्होंने भी खेल कर वापस आकर मिलने के लिए कहा। परन्तु जब यादव निराश होकर लौटे और राजाराम कालेज के प्रिंसीपल खरीडर ने अपना घर गिरवी रख कर 7 हज़ार रुपये की यादव की मदद की और बाद में सरकार ने सिर्फ 4 हज़ार की मदद की और यादव ने पैसे कम होने पर अपना घर भी गिरवी रखा और कई लोगों से उधार लेकर ओलम्पिक का सफर पूरा किया। 

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