संभव है अर्थ-व्यवस्था के संकट का समाधान 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर अभी हालिया किये गए आकलन ने कोरोना के मद्देनजर भारत में छाये आर्थिक निराशावाद को गहरा कर दिया है। इस आकलन के अंतर्गत आईएमएफ  ने भारत के चालू साल की आर्थिक विकास दर को लेकर पिछले जून में 4 फीसदी गिरावट का जो अनुमान लगाया था,उसे अब 10 फीसदी तक बढ़ने की बात कही गई है। बताते चलें कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का यह अनुमान दुनिया के सभी देशों में सर्वाधिक है । देखा जाए तो अभी समूची दुनिया में कोरोना महामारी को लेकर जो आर्थिक गतिरोध की स्थिति व्याप्त है, उस क्रम में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आईएमएफ  का यह आकलन उसी की स्वाभाविक परिणति है। कोरोना काल में अर्थ-व्यवस्थाओं का जो यह बुरा हश्र हमें देखने को मिल रहा है, उसके लिए हम सिर्फ  सरकारों को ही दोष दें तो यह बात बिल्कुल बेमानी कही जाएगी। दरअसल कोरोना एक ऐसी आपदा बनकर आयी है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए जितनी घातक है, सार्वजनिक अर्थ-व्यवस्था के लिए भी उतनी ही हानिकारक है। हां,यह जरूर है कि कोरोना को लेकर उपजी मौजूदा परिस्थितियां सरकारों की सूझबूझ, धैर्य, राहत व विकास के बीच के संतुलन लाने तथा समूची सरकारी मशीनरी द्वारा संवेदनशीलता व तत्परता बरते जाने का कड़ा इम्तिहान जरूर ले रही  हैं। इन हालात ने यह जतलाया है कि सरकार की तरफ  से इसमें किसी भी तरह की ढिलाई नहीं होने, भ्रष्टाचार व अनियमतिताओं के लिए किसी भी तरह की जगह नहीं होने तथा सरकारों द्वारा अपने बड़बोलेपन पर पूरे तौर से लगाम लगाने की जरूरत है। नि:संदेह भारत की अर्थ-व्यवस्था का जो यह जो बुरा हश्र हमें दिखा है, उसके पीछे देश में अति उत्साह में बिना व्यापक विचार मंथन, बेहतर पूर्वानुमान तथा दूरदृष्टि के लाया गया संपूर्ण लाकडाउन भी बहुत हद तक ज़िम्मेवार है। इसके इतर हमारे प्रधानमंत्री ने कहीं न कहीं कोरोना को लेकर कुछ बड़बोले बयान भी दिये और कुछ खोखले आर्थिक पुनरोद्धार की पहल भी दर्शाई जिनके नतीजे पूरी तरह शून्य रहे। मसलन लाकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री ने यह बयान दिया था कि कोरोना की लड़ाई में त्वरित तरीके से संपूर्ण लाकडाउन लाकर हमने पूरी दुनिया को चौंकाने का काम किया। इसके बाद भारतीय प्रधानमंत्री ने यह बयान भी दिया कि पच्चीस लाख करोड़ के आर्थिक पुनरोद्धार कार्यक्रम के जरिये कोरोना से प्रभावित अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाकर हम समूची दुनिया को चकित कर देंगे। काश, प्रधानमंत्री को दोनों बयान सच साबित हो परंतु इन दोनों मामलों में भारत फिसड्डी साबित हुआ।  दरअसल जब हम विगत की गलतियों को राजनीतिक नफा नुकसान के तराजू पर तौलते हैं, तब हम उन गलतियों से सीख न लेकर या तो अहंकार में डूब जाते हैं, या उन गलतियों को बार बार दुहराने का दुस्साहस करते हैं। प्रश्र यह है कि कोरोना काल के करीब आधा वर्ष बीत जाने के उपरांत करीब करीब वास्तविकताओं में तब्दील हो चुका अर्थ-व्यवस्था का यह चौतरफा संकट क्या किसी संभावित समाधान की  तरफ  भी बढ़ सकता है? सरकार गंभीरतापूर्वक और बिना उत्साह अतिरेक का प्रदर्शन किये आर्थिक संकटों की इन वास्तविकताओं को समाधान की व्यवहारिकताओं में तब्दील कर सकती है। इसके लिए सरकार को बिना किसी राजनीतिक औचित्य और अनौचित्य भाव को प्रदर्शित किये आर्थिक कायाकल्प के चरणबद्ध तरीके से प्रयास करने चाहिएं। वही सरकार को अपने बुनियादी आर्थिक कर्त्तव्यों को भी बिना किसी संशोधन के जारी रखने चाहिएं। इस क्रम में सरकार को अभी दीर्घकालीन विकास प्रक्रिया के कारकों मसलन बुनियादी संरचना के निर्माण, निवेश प्रोत्साहन, उत्पादन व रोजगार को प्रोत्साहन तत्वों को ज्यादा प्राथमिकता देने की बजाय फौरी तौर पर मांग बढ़ाने के हर संभव चौतरफा प्रयास करने चाहिएं। इस परिस्थिति को केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देर से ही सही परंतु ठीक-ठीक तरीके से समझ लिया है। उन्होंने उपभोग और मांग बढ़ाने को लेकर कुछ नयी घोषणाएं की हैं परंतु उनकी घोषणाएं केवल सरकारी कर्मचारियों तक सीमित हैं,जिन्हें दस हजार रुपये तक का एडवांस और बिना ब्याज के उपभोग ऋण की सहूलियत प्रदान की गई। वित्त मंत्री के लिए अपनी इस पहल को कर्ज सुरक्षा की दृष्टि से सरकारी कर्मचारियों पर लागू करना आसान था तो उन्होंने इस पहल को सीमित रूप में लिया। इस पहल को वह बड़े आराम से और भी विस्तार भी दे सकती थीं। मसलन देश में करीब 8 करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड धारक हैं जिन्हें बिना ब्याज के उपभोग कार्य के लिए बैंक लोन दिया जा सकता था। इसी तरह देश में पीएफ कार्ड धारक कामगारों की संख्या करीब साढ़े चार करोड़ है। इन कार्ड धारकों को भी बैंकों से बिना ब्याज के सुरक्षित उपभोग ऋण दिया जा सकता है।  इस मामले में अभी त्योहारों का मौसम मौजूदा आर्थिक स्थिति के लिए एक बड़े उत्प्रेरक व उद्धारक की भूमिका निभा सकता है।

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