बलिदान की महानता के पुंज—बाबा दीप सिंह जी

शहीद उस कौम का मान-सम्मान होते हैं जिस में उनका जन्म होता है। वे कौमें भी धन्य होती है जो अपने पूर्वजों के महान कार्यों को अकसर याद करती रहती हैं। शहीद तथा शहादत अरबी भाषा के शब्द है। शहादत का अर्थ गवाही देना या साक्षी होना होता है। इस प्रकार शहीद किसी कौम की ओर से दी गई कुर्बानियों के सच्चे गवाह होते हैं।  दीन दुखियों की रखवाली, सत्य धर्म एवं मानवता के लिए देश, कौम तथा समाज के ऊपर आए सकटों का प्रसन्तापूर्वक स्वागत करना, इन संकटों का डट कर मुकाबला करना, इस मुकाबले के किसी निर्णायक मोड़ आने तक अपने कदम पीछे न करना तथा अपने मनोबल तथा मनोरथ की सिद्धि के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर देना शहीदों की पहचान होती है।शहीद  फ़ौलादी इरादे का मालिक होता है, जिस के विचारों को बदला नहीं जा सकता। इसी तरह के इरादे तथा विचारों की पूंजी रखने वाले थे बाबा दीप सिंह जी शहीद। शहीद बाबा दीप सिंह का जन्म 26 जनवरी 1682 ई: को अमृतसर ज़िले को तरन तारन की तहसील पट्टी के गांव पहुविन्ड में रहने वाले एक साधारण परिवार में भाई भगतु तथा माता जिऊणी के घर हुआ। आम बालकों की तरह बाबा जी के बचपन का नाम भी दीपा रखा गया। जब दीपे की उम्र 18 साल की हुई तो वह अपने माता-पिता के साथ श्री आनंदपुर साहिब में श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के दर्शन करने के लिए गया। कुछ दिन रह कर दीपे के माता-पिता तो गांव पहुविंड आ गए परन्तु दीपा वहीं रह गया। कलगीधर पातशाह से अमृत की दात प्राप्त करके दीपे के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आ गया तथा वह दीपे से दीप सिंह बन गया। श्री आनन्दपुर साहिब रह कर दीप सिंह ने शस्त्र व शास्त्र विद्या में से मुहारत हासिल कर ली। 20-22 साल की उम्र तक दीप सिंह ने जहां भाई मनी सिंह जैसे उस्ताद से गुरबाणी का अच्छा-खासा ज्ञान हासिल कर लिया वहां वह एक निपुण सिपाही भी बन गये। कुछ समय बाद बाबा दीप सिंह अपने गांव पहुविंड आ गया। गांव आ कर उन्होंने आस-पास के इलाके में धर्म प्रचार के कार्य को बड़ी लगन तथा श्रद्धा से करना आरम्भ कर दिया, जिसका नौजवान वर्ग पर बहुत ही सार्थक एवं उच्च प्रभाव पड़ने लगा।1709 ई. में जब बाबा बन्दा सिंह बहादर की ओर से जालिमों का मुकाबला किया जाने लगा तो बाबा दीप सिंह ने सैंकड़ों शूरवीरों की फौज लेकर उनका डट कर साथ दिया। इस साथ के कारण ही सिखों ने सरहंद की ईंट से ईट खड़का दी। बाबा जी की ओर से इस जंग में निभाई गई अहम भूमिका के कारण ही उन्हें जिन्दा शहीद के खिताब से नवाज़ा गया। बाबा दीप सिंह जी शहीदी मिसल के जत्थेदार भी थे। अहमद शाह अब्दाली ने हिन्दोस्तान पर कई हमले किए। इन हमलों के दौरान उस की फौजों का राह रोकने वाले सिखों से वह बहुत परेशान तथा द:खी था। अपनी परेशानी तथा दु:ख को कम करने के लिए उसने अपने पुत्र तैमूर को पंजाब का सूबेदार बना दिया और उसके सहयोग के लिए ज़ालिम स्वभाव के सेनापति जहान खां की नियुक्ति कर दी।  जहान खां को किसी ने बताया कि अमृतसर में पवित्र  सरोवर तथा श्री दरबार साहिब के होते हुए, सिखों का खात्मा नहीं किया जा सकता क्योंकि इन दोनों सोत्रों से उन्हें नया उत्साह मिलता है। 1760 ई. में जहान खां ने अमृतसर को सदर मुकाम बना लिया। इस मुकाम के दौरान उस ने दरबार साहिब की इमारत को गिरा कर पवित्र सरोवर को भर दिया । जत्थेदार भाग सिंह ने तलवंडी साबो आ कर बाबा दीप सिंह जी को खबर दी तो उनका खून उबलने लगा। अरदास करने के पश्चात बाबा जी ने 18 सेर का खण्डा उठा लिया तथा श्री अमृतसर साहिब की ओर चल दिए। दमदमा साहिब से चलते समय उनके साथ कुछ सिख थे परन्तु रास्ते में जत्थेदार गुरबख्श सिंह आनन्दपुरी भी आ गए। तरनतारन तक पहुंचने पर सिखों की संख्या सैकड़ों से हज़ारों तक पहुंच गई।  दूसरी तरफ  जहान खां को जब बाबा जी के काफिले की अमृतसर की ओर आने की खबर मिली तो उस ने अपने एक जरनैल अतई खां की अगवाई में एक बड़ी फौज सिखों का रास्ता रोकने के लिए भेज दी। इस समय दौरान याकूब खां तथा सादक अली खां भी बाबा दीप सिंह जी के साथ मुकाबले में आ गए। याकूब खां तथा बाबा जी के बीच घमासान टक्कर हुई। याकूब खां  को ढेर होता देख कर एक अन्य अफगानी असमान खां भी मैदान-ए-जंग में आ गया। जंग में बाबा जी का शीश धड़ से अलग हो गया। एक सिख ने बाबा दीप सिंह को अरदास और प्रण को याद करवाया तो वह कटे हुए शीश को अपने बायें हाथ का सहारा दे कर दाहिने हाथ में पकड़े हुए खंडे से दुश्मनों का नाश करने लगे। अपने किए हुए प्रण को निभाने के बाद बाबा दीप सिंह जी ने अपना शीश श्री हरिमन्दिर साहिब की परिक्रमा में  भेंट कर दिया तथा 15 नवम्बर 1760 ई. को शहादत का जाम पी गए।

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