दान का महत्वपूर्ण तरीका

सुरेश भाई भंडारी इंदौर के प्रसिद्ध कारोबारी व समाजसेवी थे। एक बार उनके पास इंदौर के जन चिकित्सालय की संचालन समिति के सदस्य चंदा लेने आए। यह उस अस्पताल को बेहतर बनाने के लिए लोगों से दान इकट्ठा कर रहे थे। उनमें से एक सदस्य भंडारी जी से बोला, महोदय हमारी प्रबंध समिति ने यह निर्णय लिया है कि जो दस हजार रुपये दान देगा, उसका नाम अस्पताल के मुख्य द्वार पर लगने वाले शिला लेख पर लिखा जाएगा।
उनकी बात सुनकर भंडारी जी मुस्कराने लगे। उन्हें बैठने का संकेत कर उन्होंने अपनी तिजोरी से रुपये निकालकर सदस्यों के सामने रख दिए। सदस्य रुपये गिनने लगे। कुल नौ हजार नौ सौ निन्यानवे रुपये थे। सभी सदस्य हैरानी से एक-दूसरे को देखने लगे। उन्हें लगा शायद भंडारी जी उनकी बात नहीं समझ पाए या उन्होंने गलती से यह राशि दी है। तभी एक सदस्य थोड़ा सकुचाते हुए उनसे बोला, महोदय आपके द्वारा नौ हजार नौ सौ निन्यानवे रुपये दिये गये हैं। यदि आप एक रुपया और दे दें तो पूरे दस हजार हो जाएंगे। इस तरह अस्पताल के मुख्य द्वार के शिलालेख पर आपका नाम आ जाएगा। सदस्य की बात सुनकर भंडारजी विनम्रता पूर्वक बोले, मेरे लिए इतना दान ही उत्तम है। मैं पूरे दस हजार रुपये देकर अपने दान का विज्ञापन नहीं करवाना चाहता। विज्ञापन से दान का महत्व नष्ट हो जाता है। महत्व चिकित्सालय के उद्देश्य का रहना चाहिए, न कि दानदाता का। यदि दान प्रचारित किया जाता है, तो निर्धन व्यक्तियों को त्याग और सेवा करने की प्रेरणा कैसे और कहां से मिलेगी ? वे कम राशि देने में संकोच करेंगे। सच बात तो यह है कि नि:स्वार्थ सेवा में जो आनंद है, वैसा पत्थर पर नाम लिखवाने में नहीं। सभी सदस्य उनकी बात सुनकर दंग रह गए। वे मन ही मन उनके उदार विचारों के कायल हो गए। (सुमन सागर) 
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