संविधान की गरिमा और भारतीय गणतंत्र के 73 वर्ष

 

प्रतिवर्ष की भांति एक और गणतंत्र दिवस हमारी चौखट पर दस्तक दे चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी के लिए यह गर्व का दिन है क्योंकि भारत ने देश की आज़ादी के बाद स्वयं का संविधान बनाकर 26 जनवरी 1950 के दिन इसे लागू कर इसी दिन प्रभुत्ता सम्पन्न सार्वभौमिक प्रजातंत्रात्मक गणराज्य बनने का गौरव हासिल किया था लेकिन कड़वा सच यह भी है कि तभी से प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाए जाने की महज रस्म अदायगी ही हो रही है। 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप मनाने की शुरूआत के पीछे मूल भावना यही थी कि देश का प्रत्येक नागरिक इस दिन संविधान की मर्यादा की रक्षा करने, स्वयं को देशसेवा में समर्पित करने तथा राष्ट्रीय हितों के प्रति आस्था का संकल्प ले, साथ ही इन पर अमल भी करे लेकिन विड़म्बना है कि गौरवान्वित कर देने वाले इस विशेष अवसर पर ऐसे संकल्पों को प्रतिवर्ष दोहराकर या स्मरण मात्र करते हुए हम अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं।
सही मायनों में गणतंत्र की मूल भावना को हमने आज तक समझा ही नहीं है। ‘गणतंत्र’ का अर्थ है शासन तंत्र में जनता की भागीदारी। हालांकि हम कह सकते हैं कि शासन तंत्र में जनता को पूर्ण भागीदारी मिली है किन्तु क्या यह वाकई पूर्ण सत्य है? देश का संविधान लागू होने के इन 73 वर्षों में भी क्या वास्तव में शासन तंत्र में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हुई है? जनता को यह तो अधिकार है कि मतदान के जरिये वह अपना जनप्रतिनिधि चुने किन्तु एक बार संसद अथवा विधानसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद अगले पांच वर्षों तक इन जनप्रतिनिधियों पर उसका क्या कोई अंकुश नहीं रह जाता। वास्तविकता यही है कि इसी प्रावधान का लाभ उठाते हुए राजनीतिक दल देश की जनता का चुनाव के समय महज एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं और अपना मतलब निकलने पर जनप्रतिनिधियों पर जनता के दुख-दर्द के बजाय अपने लिए सुख-सुविधाओं का अंबार जुटाने की चिंता सवार हो जाती है और वे इसी कवायद में जुट जाते हैं कि येन-केन-प्रकारेण अगले चुनाव के लिए कैसे करोड़ों रुपयों का इंतजाम किया जाए। अहम सवाल यह है कि जिस राष्ट्र में जनता की भागीदारी चुनाव में सिर्फ वोट डालने और उसके बाद चुने हुए जनप्रतिनिधियों के आचरण से शर्मसार होकर आंसू बहाने तक ही सीमित रह गई हो, वहां ‘गणतंत्र’ का भला क्या महत्व रह गया है? खासतौर से ऐसी स्थिति में, जब गरीबी व भुखमरी से त्रस्त करोड़ों लोग चंद रुपयों की खातिर या लाखों लोग महज दो-चार शराब की बोतलों के लिए अपने वोट बेच डालते हों या ईवीएम के दौर में भी कुछ मतदान केन्द्रों पर गुंडागर्दी के बल पर वोट डलवाये जाते हों?
हालांकि इसमें कोई संशय नहीं कि हमें विशुद्ध रूप में एक प्रजातांत्रिक संविधान प्राप्त हुआ है, जिसमें प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक सम्प्रदाय के लोगों के लिए बराबरी के अधिकार के साथ-साथ व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से कुछ मूलभूत स्वतंत्रताओं की व्यवस्था भी की गई है, प्रत्येक नागरिक के लिए मूल अधिकारों का प्रावधान किया गया है किन्तु गणतांत्रिक भारत में पिछले 73 वर्षों के हालातों का विवेचन करें तो यही पाते हैं कि हमारे कर्णधार एवं नौकरशाह किस प्रकार संविधान के कुछ प्रावधानों के लचीलेपन का अनावश्यक लाभ उठाकर कदम-कदम पर लोकतांत्रिक मूल्यों को तार-तार करते रहे हैं। नि:संदेह इससे लोकतंत्र की गरिमा प्रभावित होती रही है। संविधान निर्माताओं ने कभी इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि जिन लोगों के कंधों पर संविधान को लागू कराने की जिम्मेदारी होगी, वही इसके प्रावधानों का मखौल उड़ाते नज़र आएंगे। ऐसी दयनीय परिस्थितियों को देखकर निश्चित रूप से संविधान निर्माताओं की आत्मा खून के आंसू रोती होगी।
संसद-विधानसभाओं में एक-दूसरे के साथ मारपीट, घूंसेबाजी, चप्पल, माइक इत्यादि से प्रहार, कुर्सियां फैंकने जैसी घटनाएं भारतीय लोकतंत्र में शर्मनाक पैठ बना चुकी हैं। वक्त-बेवक्त संसद और विधानसभाओं के भीतर होती गुंडागर्दी सरीखी घटनाएं दुनियाभर में हमें शर्मसार करती रही हैं। जिस राष्ट्र में कानून बनाने वाले और देश चलाने वाले लोग ही ऐसी असभ्य हरकतें करने लगें, वहां अपराधों पर अंकुश लगाने की किससे अपेक्षा की जाए? संसद-विधानसभा सरीखे लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिरों में अपराधियों व बाहुबलियों का निर्बाध प्रवेश क्या एक स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत है? चुनाव जीतने के लिए आज हर राजनीतिक दल में ऐसे लोगों को पार्टी में शामिल करने, चुनाव जीतने के लिए उनका इस्तेमाल करने के अलावा उन्हें ही पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़वाकर अपनी सीटें बढ़ाने के फेर में ऐसे दागी लोगों को लोकतंत्र के मंदिरों में प्रवेश दिलाने की होड़ सी लगी है। संसद और विधानसभाओं में धड़ाधड़ प्रवेश पाते अपराधियों का संख्या बल देखें तो यह ‘प्रजातंत्र’ या ‘गणतंत्र’ कम, ‘अपराधतंत्र’ अधिक लगने लगा है। अदालतें जब भी संसद या विधानसभाओं में अपराधिक तत्वों का प्रवेश रोकने की दिशा में कुछ सार्थक पहल करने की कोशिश करती हैं, तमाम राजनीतिक दल उसे संसद के अधिकार क्षेत्र में न्यायिक दखलंदाजी करार देते हुए हो-हल्ला मचाने लगते हैं।
एक समय था, जब संसद में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सकारात्मक बहस होती थी, लेकिन अब हर संसद सत्र हंगामे और शोरशराबे की भेंट चढ़ जाता है। इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि संसद का एक-एक मिनट बहुमूल्य होता है। संसद के प्रत्येक मिनट के कामकाज पर ढ़ाई लाख रुपये से अधिक खर्च होते हैं अर्थात् आठ घंटे की संसद की कार्रवाई पर बारह करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च होते हैं। आए दिन इसी तरह संसद में हंगामे होने, सदन की कार्रवाई का बहिष्कार करने या सदन की कार्रवाई दिनभर के लिए स्थगित होने से देश को कितना आर्थिक नुकसान होता है, इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। संसद अथवा विधानसभाओं की कार्रवाई पर होने वाला यह भारी-भरकम खर्च जनप्रतिनिधियों की जेबों से नहीं निकलता बल्कि इसका सारा बोझ देश की आम जनता वहन करती है। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल यही है कि ‘गणतंत्र’ की जो तस्वीर हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत की जा रही है, क्या हम उस पर गर्व कर सकते हैं? गणतंत्र दिवस जैसे महत्वपूर्ण अवसर को इतनी धूमधाम से मनाए जाने का सही लाभ तो तभी है, जब न केवल देश का प्रत्येक नागरिक बल्कि बड़े-बड़े राजनेता और नौकरशाह भी संविधान की गरिमा को समझें और उसके अनुरूप अपने आचरण में पारदर्शिता भी लाएं।
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