आज अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस पर विशेष  दुनिया का हो विकास दिव्यांग जनों के साथ

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) हर साल 3 दिसम्बर को विकास के हर स्तर पर विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय विकलांग व्यक्ति दिवस’ मनाता है। इस दिन डब्ल्यू.एच.ओ. जिनेवा स्थित अपने मुख्यालय पर लोगों को शिक्षित करने, विकलांग व्यक्तियों के प्रति संवेदना और जागरूकता बढ़ाने, दुनियाभर की राजसत्ताओं को विकलांग व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी नीतियों व संसाधनों पर उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने वाले निर्णय लेने की वकालत करने और इस संबंध में पिछले सालों में हासिल की गई उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम आयोजित करता है। इस कार्यक्रम के मौके पर हर साल विकलांग व्यक्तियों के लिए स्वास्थ्य व समानता पर एक वैश्विक रिपोर्ट भी जारी होती है, साथ ही उस साल के विशेष लक्ष्य हेतु, इस दिवस की एक थीम घोषित की जाती है। 
साल 2023 के लिए अंतर्राष्ट्रीय विकलांग व्यक्ति दिवस (आई.डी.पी.डी.) की थीम है- ‘विकलांग व्यक्तियों के लिए, विकलांग व्यक्तियों के साथ और उनके द्वारा सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु एकजुटता’। गौरतलब है कि सतत विकास लक्ष्य साल 2030 तक गरीबी उन्मूलन हेतु ऐसे 17 बड़े लक्ष्यों को साधने का संकल्प है, जिसके बाद पूरी दुनिया के लोगों को जीवन के न्यूनतम स्तर पर ही सही, पर एक जैसा एहसास हो। इसे हासिल करने के लिए दुनिया को करीब 169 असमानताओं को दूर करने के लिए अगले सात सालों तक जी-तोड़ प्रयास करना होगा, तब कहीं जाकर यह आदर्श स्थिति हासिल की जा सकती है कि दुनिया में न्यूनतम समानता महसूस की जा सके। 
दुनिया में असमानता के कई रूप हैं, उनमें एक रूप विकलांगता या जैसा कि अपने यहां इसके लिए नया शब्द ‘दिव्यांगता’ गढ़ा गया है, भी है। मैडीकल साइंस के इस क्रांतिकारी युग में भी दुनियाभर में करीब 1.3 अरब लोग किसी न किसी स्तर की विकलांगता या दिव्यांगता का अनुभव करते हैं। यह कोई छोटी मोटी संख्या नहीं है। यह संख्या दुनियाभर की आबादी की 16 प्रतिशत है। अगर दुनिया के सारे विकलांग लोगों को एक जगह बसा दिया जाए तो भारत और चीन के बाद दुनिया का यह तीसरा सबसे बड़ी आबादी वाला देश होगा। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया में आज भी विकलांगता कितनी बड़ी समस्या है? अगर हम अपने देश की बात करें तो अपने देश में भी साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 2.68 करोड़ लोग अलग-अलग स्तर के विकलांग हैं। इनमें कई तरह की शारीरिक दुर्बलताएं हैं। मसलन कुछ बोल नहीं पाते, कुछ सुन नहीं पाते, कुछ पूरी तरह से देख नहीं पाते, कुछ आंशिक रूप से अंधेपन का शिकार हैं, कुछ कुष्ठ रोगों से पीड़ित हैं, तो विकलांगों की एक बड़ी संख्या पागलपन का शिकार है।
देश में अगर इन दिव्यांगजनों को महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग आबादी के रूप में देखें तो विकलांग लोगों की कुल आबादी में से करीब 56 प्रतिशत यानी 1.5 करोड़ पुरुष हैं और 44 प्रतिशत यानी करीब 1.18 करोड़ महिलाएं हैं। भारत में दिव्यांगजनों की यह आबादी साल 2011 की आबादी के आंकड़ों के हिसाब से 2.21 प्रतिशत है, जो पिछली जनगणना के मुताबिक .01 प्रतिशत कम है। अगर दुनिया में विकलांगता को विभिन्न देशीय समुदायों के रूप में देखें तो सबसे ज्यादा विकलांगता अमरीका के मूल निवासियों में है। मूल अमरीकियों की कामकाजी पीढ़ी के 16 प्रतिशत वयस्क लोग विकलांगता का शिकार हैं। जबकि दूसरे स्तर पर सबसे ज्यादा विकलांग अफ्रीकी मूल के अश्वेत लोगों में है, जो करीब 11 प्रतिशत है। इसके बाद 9 प्रतिशत श्वेत, 7 प्रतिशत हिस्पैनिक और 4 प्रतिशत एशियाई मूल के विकलांग हैं। विकलांग लोगों की इस आबादी में शहरों और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में भी बड़ा फर्क देखने में आता है। 
यूं तो सैद्धांतिक स्तर पर दुनिया में करीब-करीब सभी देश विकलांगों को दूसरे ही सामान्य नागरिकों की तरह सभी तरह के अधिकार और अवसरों को मुहैय्या कराने की बात करते हैं, लेकिन व्यवहार में किसी भी देश में विकलांगों के साथ यह न्याय नहीं हो पाता। अपने देश में भी विकलांगों की यही सबसे बड़ी समस्या है। उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार में ऐसे अवसर नहीं प्रदान किए जाते कि वे अपनी शारीरिक कमी के बावजूद सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लायक बन सकें। जबकि दुनिया में सैकड़ों सालों का यह खरा अनुभव है कि अगर विकलांग लोगाें को अच्छे तरीके से किसी भी क्षेत्र में ट्रेंड किया जाए जो उनकी शारीरिक क्षमताओं के अनुकूल हो, तो उनमें करीब-करीब सामान्य लोगों जैसी क्षमताएं विकसित हो जाती हैं, बशर्ते कि उन क्षमताओं को हासिल करने के लिए पूरी तरह से शारीरिक निर्भरता न हो। हमने अपने इर्दगिर्द ऐसी तमाम कहानियां देखी, सुनी और महसूस की होंगी, जब कोई दिव्यांगजन अपनी दिन रात की विशिष्ट ट्रेनिंग और अभ्यास के जरिये हतप्रभ करने वाली कुशलता हासिल कर लेते हैं। 
दरअसल अगर विकलांगजनों को सामाजिक रूप से दयाभाव दिखलाने की जगह उन्हें सामान्य लोगों के बराबर के हक और कुछ विशेष सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएं तो ऐसे लोगों को किसी की भी दया और सहानुभूति की ज़रूरत नहीं रहती। देशभर में भीख मांगकर गुजारा करने वाले विकलांग लोगों को अगर ईमानदारी से और व्यवस्थित तरीके से अलग-अलग क्षेत्रों की कुशलताओं में ट्रेंड किया जाए, तो 90 प्रतिशत तक या उससे भी ज्यादा ऐसे विकलांगों को भीख मांगने की ज़रूरत नहीं रह जायेगी। लेकिन दुनिया के ज्यादातर देशों की तरह अपने यहां भी कागजों में तो विकलांगों के भरपूर अधिकार हैं और उन्हें सुरक्षित रखने के दावे भी हैं। लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि दिव्यांगजन निरीह, मज़बूर दिखें और दूसरों पर निर्भर रहें। 
पूरी दुनिया के अनुभव से इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि दुनिया का कोई भी समाज सौ प्रतिशत हर समय दिव्यांगजनों के प्रति सहानुभूति नहीं रखता। इसलिए सहानुभूति या दया पर दिव्यांगजनों को नहीं छोड़ा जाना चाहिए। ऐसे में सरकारों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे पूरी सजगता से शारीरिक और मानसिक रूप से विभिन्न स्तरों के अक्षम लोगों के अनुरूप रोज़गार की दुनिया का विकास करें और उन्हें स्वास्थ्य और शिक्षा में आम लोगों के बराबर ही नहीं बल्कि थोड़ी बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराकर सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मौका दें। इस विशेष दिन की यही सबसे बड़ी सीख हो सकती है।

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