आबनूस का पेड़  जिसकी लकड़ी पानी में डूब जाती है

जी हां, आपने बिल्कुल सही पढ़ा है आबनूस की लकड़ी इतनी सघन और वजनी होती है कि यह पानी में डूब जाती है। जानकारों के मुताबिक यह लकड़ी बहुत सूखने पर और भली भांति उपचारित होने पर भी पानी में डूब जाती है। जबकि आमतौर पर लकड़ी पानी में तैरती है, इंसान के जलपरिवहन का विचार पानी में लकड़ी के तैरने को देखकर ही आया था। पानी में जिस पहली किसी नाव या जहाज के जरिये इंसान ने एक जगह से दूसरी जगह का सफर तय किया था, वह कुछ और नहीं बल्कि लकड़ी की एक सूखी टहनी ही थी। लेकिन लकड़ी के इस सार्वभौमिक गुण से आबनूस की लकड़ी अलग होती है। आबनूस की लकड़ी बहुत भारी और सघन होने के साथ-साथ दीमकरोधी है यानी इसमें दीमक नहीं लगती। यह सड़ती भी नहीं है। इसीलिए यह सबसे महंगे फर्नीचर बनाने के काम आती है। कहा जाता है कि ताजमहल की नींव उसके नीचे बने जिन 50 कुंओं पर टिकी है, उन कुंओं में महोगनी और आबनूस के लट्ठे पड़े हैं, जिनकी आयु कई सौ साल बतायी जाती है। आबनूस की लकड़ी कितनी सघन और वजनी होती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि यह ओक की लकड़ी की तुलना में 50 प्रतिशत ज्यादा सघन होती है और इसका विशिष्ट गुरुत्व 1.0 से ज्यादा होता है। 
आबनूस की लकड़ी बेहद उपयोगी और महंगी होती है। इससे उच्च गुणवत्ता वाले फर्नीचर, संगीत वाद्ययंत्र, कलात्मक वस्तुएं और गहने बनते हैं। आबनूस की लकड़ी का सबसे प्रसिद्ध उपयोग पियानो कीज में है। यह लकड़ी अपने गहरे भूरे और काले रंग के कारण अलग से पहचानी जाती है। प्राचीनकाल में मिस्र, यूनान और रोम में आबनूस के पेड़ को शक्ति और धन का प्रतीक एक दैवीय पेड़ माना जाता था। आबनूस का पेड़ भारत और श्रीलंका का मूल निवासी है। यहां इसकी कई प्रजातियां होती हैं, लेकिन जो प्रजाति भारत और श्रीलंका में बहुतायत में पायी जाती है, उस प्रजाति का नाम- डायोस्पायरोस एबेनम है, जिसे सीलोन एबोनी या इंडिया एबोनी भी कहा जाता है। आबनूस की एक और महत्वपूर्ण प्रजाति भारत में पायी जाती है जिसे डायोस्पायरोस मेलानॉक्सिलॉन कहते हैं। इसका दूसरा नाम कोरोमंडल आबनूस भी है। आबनूस का पेड़ मध्यम आकार का होता है, जिसमें कई तरह की शाखाएं-प्रशाखाएं होती हैं। इसके पत्ते चिकने और आयाताकार तथा पेड़ का तना कठोर और काला होता है। 
आबनूस की लकड़ी को टेम्बुरिनी या तेंदू के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन ओड़ीसा, झारखंड और असम में इसे केंदू कहते हैं। आबनूस का पेड़ उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगते हैं। ये पेड़ अफ्रीका और एशिया में मुख्य रूप से पाये जाते हैं। एक मझौले कद के आबनूस के पेड़ की कीमत भी 1 लाख रुपये से ज्यादा होती है। लेकिन अफ्रीका के दुर्लभ काले आबनूस पेड़ की कीमत कम से कम 10 लाख रुपये होती है। भारत में सबसे ज्यादा आबनूस के पेड़ लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार के द्वीप समूह में, असम के ऊपरी हिस्सों और तमिलनाडु के तटवर्ती क्षेत्रों में पाये जाते हैं। आबनूस की लकड़ी दुर्लभ मानी जाती है, यह दुनिया की सबसे महंगी लकड़ियों में से एक है। अपनी बेहद टिकाऊ और दुर्लभ होने के कारण इसकी कई प्रजातियां इंसान द्वारा विलुप्त कर दी गई हैं। इसीलिए कुछ काले आबनूस की प्रजातियों को आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर- अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ) द्वारा संरक्षित लाल सूची में डाला गया है। माना जाता है कि मध्य और पश्चिम अफ्रीका की मूल में करीब 3 करोड़ आबनूस के पेड़ बिखरे हुए हैं, इसे अफ्रीका की सबसे बड़ी दौलत समझा जाता है। 
अपनी उच्च गुणवत्ता के कारण आबनूस की लकड़ी की तस्करी होती है। दुनियाभर में इसकी बहुत ज्यादा मांग होने के कारण तस्करों ने इसकी अवैध रूप से बहुत कटाई की है। आबनूस का पेड़ इसलिए भी बहुत दुर्लभ है, क्योंकि इसके विकसित होने में 70 से लेकर 200 साल तक लग जाते हैं। आबनूस का पेड़ सालभर हराभरा रहता है। आबनूस के पेड़ को संस्कृत में तिंदुक स्फूर्जफ और कालस्कंद कहते हैं जबकि हिंदी में गाम और तेंदू कहा जाता है। लघु शुष्क मौसम के साथ 200 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी ये आसानी से मिलते हैं। सही तरीके से विकसित आबनूस का पेड़ 60 मीटर से भी ऊंचा हो सकता है। आबनूस की लकड़ी जिन और उत्पादों के लिए प्रसिद्ध हैं- उसमें चाकू के हैंडल, विभिन्न संस्कृतियों के राजदंड, पीने के दुर्लभ प्याले और घरों के कैबिनेट बनाने में काम आती है। इस पेड़ की छाल, इसके फल, बीज और पुष्प सबका का इस्तेमाल औषधि के रूप में होता है। यह जल्दी तैयार होने का वाल पेड़ नहीं होता इसलिए आम किसानों की रूचि इसे लगाने और विकसित करने में नहीं होती। लेकिन यह प्रकृति के सबसे मूल्यवान पेड़ों में से है।

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