लोकसभा चुनावों में कैसे लगा भाजपा को झटका ?

अठारहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अगर अपनी अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया और अकेले दम पर बहुमत नहीं पा सकी है तो उसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। मुख्य तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों ने मिल कर भाजपा का हराया है। 
सबसे पहली और उल्लेखनीय बात तो यह कि भाजपा ने नकारात्मक तरीके से अपना चुनाव प्रचार अभियान चलाया। इसके पीठे कांग्रेस के घोषणा-पत्र का प्रभाव रहा। नरेंद्र मोदी ने जैसे ही कांग्रेस का घोषणा-पत्र देखा, उन्हें लगा कि यह तो एक खतरनाक दस्तावेज़ है। अगर बहस इसके मुताबिक बेरोज़गारी, आरक्षण और महंगाई जैसे प्रश्नों पर होने लगी, तो सत्ता में उनकी वापिसी सांसत में पड़ सकती है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस के घोषणा-पत्र के खिलाफ एक साम्प्रदायिक मुहिम चलाने का फैसला किया। 
इस दस्तावेज़ को उन्होंने मुस्लिम लीग का घोषणा-पत्र करार दिया और लगातार मुस्लिमों के खिलाफ बातें करते रहे। सारी विरोधी पार्टियों पर उसने मुस्लिमों की एजेंट होने का आरोप मढ़ दिया। उसके नेता लोगों को डर दिखाते रहे कि कांग्रेस अगर सत्ता में आई तो आपकी भैंस खोल कर ले जाएगी, महिलाओं का मंगलसूत्र छीन लेगी और ये सब घुसपैठियों और अधिक बच्चे पैदा करने वालों को दे दिया जाएगा। यह कहते हुए स्पष्ट तौर पर उनका इशारा मुसलमानों की तरफ था। ज़ाहिर है कि जनता ने उनकी बातों पर कान नहीं दिया, और नकारात्मक मुहिम की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी। वैसे भी नकारात्मक के सकारात्मक परिणाम कभी नहीं निकलते। दूसरे, नरेंद्र मोदी को भाजपा के कई नेताओं ने भगवान का अवतार बताने की कोशिश की। उन्हें अविनाशी कहा गया, जबकि सनातन धर्म में अविनाशी सिर्फ ईश्वर को कहा जाता है क्योंकि धरती पर हर प्राणी नश्वर है। मोदी का स्वयं को घुमा-फिरा कर ‘नानबायलोजीकल’ या पंचतत्वों से परे होने का वक्तव्य भी इसी का अंग था। आम जनता पर इस तरह की वाहियात बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
लोगों ने जब भाजपा के 2014 और 2019 के चुनाव प्रचार अभियानों से वर्तमान चुनाव अभियान की तुलना की तो उन्होंने महसूस किया कि पिछले चुनाव विकास के वादे पर लड़े गए थे, जबकि इस बार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश की गई। दरअसल भारत की आम जनता उदारता और समरसता में विश्वास रखती है। कट्टरता उसे पसंद नहीं है। इसलिए ध्रुवीकरण की कोशिश का उल्टा ही असर हुआ और भाजपा का जो कट्टर समर्थक नहीं था, वह वर्ग उससे छिटक गया। यही कारण है कि आज भाजपा सबसे बड़ा दल होते हुए भी गठबंधन सरकार बनाने के लिए मज़बूर है। लेकिन इसके लिए भी उसकी राह आसान नहीं है। उसके गठजोड़ पार्टनर भी सोचेंगे कि अपमान सह कर उसके साथ रहना क्या उचित होगा? जिन चंद्रबाबू नायडू और नितीश कुमार की आज मिलाकर 28 के करीब सीटें आ रही हैं, वे अपने साथ किए गए व्यवहार को भूले नहीं होंगे। नायडू ने काफी पहले से भाजपा के साथ गठजोड़ की कोशिश शुरू कर दी थी, लेकिन भाजपा उनकी उपेक्षा कर जगन मोहन रेड्डी के साथ समझौते की कोशिश करती रही और आखिरी वक्त में जाकर नायडू के साथ समझौता किया। नितीश कुमार की तो एग्जिट पोल आने के बाद तक उपेक्षा की गई, क्योंकि उसमें दिखाया गया था कि भाजपा अकेले दम बहुमत हासिल करने वाली है। इसीलिए नितीश ने जब चुनाव के बाद भाजपा नेताओं से मिलने की कोशिश की तो उन्हें कोई भाव नहीं दिया गया था। ऐसी परिस्थिति में गठबंधन के साथी अब भाजपा का कितना साथ देते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
जब आम चुनाव शुरू नहीं हुए थे, तब सबको यही लग रहा था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा 72 से 75 सीटें जीत सकती है। लेकिन बाद में उ.प्र. से जो संकेत मिल रहे थे, उससे साफ लगने था कि राज्य में कुछ अप्रत्याशित घटने वाला है। और चुनाव परिणामों ने इन अंदेशों पर मुहर लगा दी। उ.प्र. में भाजपा ने शुरुआत से कई गलतियां की। अव्वल तो इसने राज्य में मौजूदा सांसदों के न के बराबर टिकट काटे, जबकि वहां पर सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर जबरदस्त एंटी इनकम्बेंसी थी। तमाम मतदाता कह रहे थे कि हमने दो चुनावों में मोदी जी के कहने पर वोट दिया, पर सांसदों ने अपेक्षित काम नहीं किया। इसकी ज़िम्मेदारी मोदीजी की नहीं तो किसकी है।
समाजवादी पार्टी ने न सिर्फ परिणामों से चौंकाया, बल्कि अखिलेश यादव इन चुनावों में सही अर्थों में सर्वाधिक सफल नेता साबित हुए। अखिलेश यादव ने बुद्धिमानी दिखाते हुए कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया। इससे एक तो अल्पसंख्यक वोटों के बीच में जो भी संभावित भ्रम था, वह दूर हो गया और सारा का सारा वोट एक ही जगह पड़ा। उसका ध्रुवीकरण हो गया। दूसरा, मायावती का जो दलित वोटर था। उसे भी एक ध्रुव की दरकार थी। कांग्रेस की वजह से उस वोटर ने साइकिल यानी सपा को चुना। इस तरह कांग्रेस और सपा, दोनों को दलितों के वोट मिले। इसके बाद अखिलेश यादव ने टिकट वितरण भी बुद्धिमानी से किया। जो पार्टी यादवों-मुसलमानों की मानी जाती थी, उसने सिर्फ पांच यादवों को टिकट दिए। इससे एक नैरेटिव सेट हुआ। सपा ने दस कुर्मियों को, छह सीटें कुशवाहा, मौर्य, शाख, सैनी बिरादरी को दीं। तीन निषाद, चार ब्राह्मण और एक पाल को टिकट दिया गया। यही नहीं, उन्होंने चुनावों के बीच में अपना पार्टी अध्यक्ष बदल कर श्यामलाल पाल (गड़रिया) को पार्टी अध्यक्ष बनाया। सपा ने दो दलितों को निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्यामूलक संरचना को ध्यान में रखते हुए जनरल सीटों से लड़ाया। ये भी एक तरह का मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ। इस तरह उन्होंने खुद को मुस्लिम-यादवों की पार्टी के टैग से खुद को बाहर निकाला। सपा के दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद पासी ने फैजाबाद (अयोध्या) की सीट पर भाजपा के लल्लू सिंह को करारी शिकस्त दी।
भाजपा के खिलाफ केवल उ.प्र. में ही नहीं सारे देश में कुछ नाराज़गी थी। वह इकट्ठी होते-होते अब 2024 के आम चुनावों में बाहर निकली। जाहिर है कि इसका असर उ.प्र. के मतदाताओं पर भी पड़ा। 2016 की नोटबंदी से असंगठित क्षेत्र ध्वस्त हो गया। इससे बेरोज़गारी तेजी से बढ़ी। 2019 में हुए ईडब्ल्यूएस आरक्षण की घोषणा को देश के दलित और पिछड़े ध्यान से देख रहे थे। उन्हें यह बात खटकी। इसलिए जब विपक्ष ने उनके बीच यह प्रचार किया कि भाजपा 400 सीटें इसलिए जीतना चाहती है, ताकि वो आरक्षण खत्म करने के लिए संविधान बदल सके, तो लोगों ने तुरंत विपक्ष की बात पर भरोसा कर लिया। वहीं, कोविड के दौरान बनाए तीन कृषि कानूनों का भी इन चुनावों पर असर दिखाई दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट भाजपा के विरोधी हो गए, तो राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के जाट भी भाजपा के विरोधी हो गए। इस तरह भाजपा ने पूरे जाट समाज को अपने खिलाफ कर दिया। इस चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी, आमदनी के मुद्दों पर मतदाताओं ने मुखर अभिव्यक्ति की है। सपा का राष्ट्रीय वोट का औसत करीबन चार प्रतिशत के आसपास पहुंचा गया है।
भाजपा के दायरों में लम्बे समय से चर्चा है कि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक खास तरह की राजनीति कर रहे हैं। उनके कारण उ.प्र. में राजपूत बिरादरी खुलकर भाजपा के खिलाफ रही। इस तरह उ.प्र. में राजपूतों के और जाटों के वोट भी मोदी-योगी के नाम पर नहीं मिले। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ऊपरी तौर पर अपने साम्प्रदायिक भाषण देते रहे। इससे लगा कि वे अपनी सारी ज़िम्मेदारियां पूरी कर रहे हैं। लेकिन पार्टी को जिताने के लिए उन्होंने कोई विशेष प्रयास नहीं किए। उ.प्र. में भाजपा का यह आंतरिक संकट भी सीटें घटने की एक बड़ी वजह है।