पाकिस्तानी अंग्रेजी उपन्यासों की ‘गॉड मदर’ - बापसी सिधवा

पारसी मूल की पाकिस्तानी अंग्रेजी उपन्यासकार बापसी सिधवा को वहां के अंग्रेजी साहित्य में, वही दर्जा हासिल है, जो समूचे इंग्लिश लिटरेचर में जेन ऑस्टेन को है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद के शुरुआती दशकों में, पाकिस्तान में जो एंग्लोफोनिक साहित्य (ऐसे देशों का अंग्रेजी लेखन, जहां की अंग्रेजी मूल भाषा न हो) लिखा गया, उसमें महिलाएं सबसे महत्वपूर्ण होकर उभरीं। हालांकि पाकिस्तान में विभाजन के पहले और विभाजन के समय भी उर्दू लेखन का मज़बूत सिलसिला था। इस्मत चुगताई व कुर्तुल एन हैदर जैसी पूर्ववर्ती लेखिकाओं के साथ ही उस समय उर्दू कथा साहित्य में अतिया फैजी और सुरैया हुसैन ने भी अपनी शानदार जगह बना ली थी। लेकिन पाकिस्तान के उत्तर औपनिवेशिक साहित्य में, विशेषकर एंग्लोफोनिक साहित्य में महिलाएं बहुत मज़बूती के साथ उभरीं। इतनी मज़बूती के साथ की आज बापसी सिधवा और सारा सुलेरी जैसी पाकिस्तानी मूल की एंग्लोफोनिक साहित्यकारों की चर्चा 21वीं शताब्दी की प्रमुख विश्व महिला लेखकों में होती है। बाद में इनमें कामिला शम्सी और फातिमा भुट्टो का भी नाम जुड़ गया। लेकिन जो ख्याति पाकिस्तान में अंग्रेजी लेखिका के रूप में बापसी सिधवा ने कमाया है, वह ख्याति किसी और को नहीं मिली।
11 अगस्त, 1938 को कराची (जो कि उन दिनों बम्बई प्रेसिडेंसी का हिस्सा थी) के एक जोराष्ट्रियन परिवार में जन्मी बापसी जब अभी दो साल की ही थीं कि अपने माता-पिता पेशोतन और तहमीना भंडारा के साथ लाहौर चली गईं। उन्हीं दिनों उन्हें पोलियो का अटैक हुआ, जिसने उनकी समूची जिंदगी बदलकर रख दी। पोलियो के अटैक के कारण उन्हें शुरुआती पढ़ाई अपने घर में रहकर करनी पड़ी और बार-बार यह ताना सुनना पड़ा कि उन्हें कोई डॉक्टर या प्रोफेसर तो बनना नहीं, इसलिए सामान्य बीए पढ़ लेना बहुत है। जबकि वह इससे ज्यादा पढ़ना चाहती थीं। जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था, तब उनकी उम्र 9 साल थी, बाद में उन्होंने अपने उपन्यास ‘क्रैकिंग इंडिया’ में उस समय जो 9 साल की एक बच्ची एहसास कर सकती थी, उस सबको लेनी के चरित्र में व्यक्त किया है। उनकी जिंदगी के सफर का ब्यौरा ‘बापसी: साइलेंस ऑफ माइ लाइफ’ नामक एक डाक्यूमेंट्री में मिलता है, जो 28 अक्तूबर, 2022 को ‘द सिटी’ ज आर्कइव ऑफ पाकिस्तान के आधिकारिक यू-ट्यूब चैनल पर, ‘फर्स्ट जनरेशन स्टोरी ऑफ पार्टीशन: बापसी सिधवा’ शीर्षक से जारी किया गया है। उन्होंने 1957 में लाहौर के किन्नेयर कॉलेज फॉर विमेन यूनिवर्सिटी से बीए किया और उसी दौरान उनकी शादी कर दी गई। तलाक लेने से पहले वह पांच साल मुंबई में रहीं। बाद में उन्होंने एक जोराष्ट्रियन व्यक्ति नौसेर से शादी की। एक लेखिका के रूप में उनका शानदार कॅरियर शुरु होने के पहले, उन्हें बहुत सारी परेशानियों से गुजरना पड़ा। साल 1978 तक पाकिस्तान में अंग्रेजी की किताबें नहीं छपती थी, इसलिए उन्होंने अपने उपन्यास ‘द पाकिस्तानी ब्राइड’ के लिए पश्चिमी देशों में प्रकाशक ढूंढ़ने की कोशिश की, लेकिन अमरीका से लेकर इंग्लैंड, फ्रांस और इटली तक के प्रकाशकों से उन्हें बार-बार पांडुलिपि वापसी का दंश झेलना पड़ा। दो साल तक इस कवायद के बाद जब उन्हें प्रकाशक नहीं मिल सका और पाकिस्तान अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन का चलन नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने कुछ दोस्तों और प्रशंसकों की सलाह पर खुद अपनी किताब छापी और लाहौर में गली गली और दुकान दुकान तक बेंचा। लेकिन जब यह छपी हुई किताब उनके किसी दोस्त की बदौलत किसी बड़े पब्लिशिंग एजेंट के हाथ लग गई और उसने उनके उपन्यास में वजन देखा तो वह कुछ बड़े प्रकाशकों से मिले और इस तरह जाकर 1984 के आसपास उनका पहला उपन्यास छपकर बाहर आता है। इसके बाद उन्हें दुनियाभर से जबरदस्त ऑफर मिलने लगे और उनकी किसी भी किताब के लिए कोई समस्या नहीं हुई।
लेकिन शायद उन्हें इस बात का भी फायदा मिला कि 1980 के बाद वह अमरीका चली गईं और तब से अब तक वहीं रहती हैं। अब उन्हें अमरीका की नागरिकता भी मिल चुकी है और अमरीकियों से आश्चर्य के स्वर में कहती हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि अमरीकी नागरिक होना किस कदर कुछ खास होना है। वर्तमान में वह ह्यूस्टन में रहती हैं। हालांकि उन्होंने अब तक की कुल अपनी जिंदगी में आधा वक्त पाकिस्तान से बाहर अमरीका में गुजारा है और ह्यूस्टन, कोलंबिया, ब्रैंडिश और राइस जैसे कुलीन विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का काम किया है, लेकिन उनके विश्व प्रसिद्ध पांचों उपन्यास- द क्रो ईर्ट्स, द पाकिस्तानी ब्राइड, क्रैकिंग इंडिया, एन अमेरिकन ब्रैट और वाटर, उस लाहौर की पृष्ठभूमि में ही लिखे गये हैं, जहां उन्होंने अपने बचपन और जवानी का एक बड़ा वक्त गुजारा है और लेखक बनने की सबसे बड़ी पीड़ा और संघर्ष को झेला है। उनके इन उपन्यासों के अलावा लाहौर पर लिखी गई उनकी कुछ कविताएं- सिटी ऑफ सिन एंड स्प्लैंडर राइटिंग्स ऑफ लाहौर में संकलित हैं, जो कि 2006 में छपी है। उनके उपन्यास क्रैकिंग इंडिया को छपने के साल में न्यूयार्क टाइम्स ने साल की एक महत्वपूर्ण और गुणवत्तपूर्ण किताब का दर्जा दिया था। उनके इस उपन्यास पर भारतीय मूल की कैनेडियन, डायरेक्टर दीपा महेता ने ‘अर्थ’ नाम की फिल्म बनायी थी। जबकि बापसी का उपन्यास वाटर दीपा महेता के इसी नाम से बनी फिल्म पर आधारित है। 
साल 2007 में ह्यूस्टन स्टेच रेपेट्री ने उनके उपन्यास एन अमेरिकन ब्रैट को एक नाटक के रूप में ढाला था और उसका मंचन किया था, जिसे जबरदस्त प्रशंसा मिली थी। उन्होंने एक नाटक भी लिखा है- ‘शो, केम विद हनी’। उसका भी साल 2003 में लंदन में मंचन हुआ है और उनके इस नाटक ने भी आलोचकों की जबरदस्त प्रशंसा हासिल की है। पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों ने उन्हें महिलाओं के विकास से संबंधित बनायी गई कमेटी का सलाहकार बनाया था। बापसी खुद को पंजाबी पारसी बताती हैं। हालांकि उनकी लिखने की भाषा अंग्रेजी है, लेकिन वह बातचीत गुजराती में करना पसंद करती हैं या फिर उर्दू में। बोलने के लिहाज अंग्रेजी उनकी तीसरी पसंदीदा भाषा है। बापसी ने अपने लेखन में गुजराती व उर्दू से अंग्रेजी में बहुत सारे शब्दों का साब्दिक अनुवाद किया है। 
बापसी सिधवा की समूचे लेखन में बार-बार विभाजन की छाया उभरती है। उन्हें दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले हैं। मसलन- लीला वालेस- रीडर्स डाइजेस्ट राइटर अवार्ड, उन्हें उनके उपन्यास वाटर के लिए विदेशी लेखकों के लिए दिया जाने वाला इटली का प्रीमियो मोंडेलो पुरस्कार भी मिला है। इसके अलावा पाकिस्तान ने उन्हें अपने देश के कला का सर्वोच्च सम्मान सितारा-ए-इम्तियाज दिया है और रॉकफेलर फाउंडेशन सेंटर, बेलाजियो (इटली) में वह विजिटिंग स्कॉलर रह चुकी हैं और उन्हें हार्वर्ड में बंटिंग फेलोशिप भी मिली है। न्यूयार्क टाइम्स में उनकी किताब की समीक्षा करने वालों में भारतीय लेखक व कांग्रेस के नेता शशि थरूर भी शामिल हैं, जो उन्हें दुनिया की उत्कृष्ट लेखिका मानते हैं और उनकी किताब क्रैकिंग इंडिया को विभाजन के लिहाज से एक महत्वपूर्ण काम मानते हैं। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर