साहिब बनाम साहिबी के दुर्खांत

साहब लोग साहिबी से रिटायर तो हो जाते हैं। लेकिन साहब का मन कभी भी रिटायर नहीं होता है। मन किसी भी सूरत में यह मानने को तैयार नहीं होता है कि अब सबकुछ पहले जैसा नहीं रहा। घूम फिर उनका मन साहिबी के आसपास ही भटकता रहता है। लेकिन साहबी तो ऐसी चिड़िया होती है कि रिटायर होते ही साथ छोड़ जाती है। जैसे मृत्यु के तुरंत बाद आत्मा साथ छोड़ जाती है। बल्कि उससे पहले ही अपने लक्षण दिखाने लगती है। साहब हाथ बढ़ा-बढा कर उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन कहीं बीता वक्त भी मुट्ठी में पकड़ाता है।
जब साहब रिटायर होते हैं तो उनके जीवन से बहुत कुछ रिटायर होता है। उनका बंगला, ड्राइवर, चपरासी और उनको दिन भर झुक कर सलाम करने वालों की भीड़ सब के सब रिटायर होते हैं। और साहब एक छोटे बच्चों के जैसे हाथ पैर पटक कर रह जाते हैं। धीरे-धीरे और एक-एक करके यह सारी चीज़ गायब होती तो शायद साहब संभल भी जाते लेकिन एकाएक गायब होने से साहब की दशा पागलों के जैसी हो जाती है घोर अवसाद में डूब जाते हैं। अब साहब भी क्या करें जीवन भर जिसको आदत पड़ी हो मखमली कालीन पर चलने कि उसे अचानक से मिट्टी में पैर रखना पड़े तो वह परेशान तो होगा ही। और इन सब लक्जरियत का इस्तेमाल करने व सलाम लेने की आदत रिटायर नहीं होती है। वह तो मरते दम तक बनी रहती है अगर मिलना संभव हो तो। यह तो अच्छा है कि रिटायर होने के बाद साहिबी नहीं रहती है। और साहब को आम आदमी के जैसे जीने का मौका मिल जाता है। वरना साहब को आम आदमी के जैसे धूप, लू और गर्मी, सर्दी भी धरती पर आता है पता ही नहीं चल पाता। 
अब चुकी साहब तो साहब है। तो वह अपने आप को दुनिया से ऊपर और अपने को ज्ञानी ध्यानी व्यक्ति मानते हैं। और मानने का उनका कारण यह है कि वह अपने जहानियत के वजह से ही इस पद तक पहुंचे थे। वह सबसे आला दर्जे के इंसान है सबसे स्पेशल इंसान है। साहब ऐसा मानते हैं। उनको लगता है कि उनके बिना साहबी में जैसे उनका दफ्तर नहीं चल सकता था रिटायर होने के बाद होने के बाद यह धरती नहीं चल पाएगी।
लेकिन यह सिर्फ एक कोरा भ्रम ही साबित होता है। दफ्तर उनके बिना चलता भी है। और लोगों का काम भी चलता है। लेकिन साहब को तो आदत है लोगों को  मार्गदर्शन देने की साहब बेचैन होते रहते हैं। की कब लोग आए और कब वह उनको मशवरा देकर अपना ज्ञान दुनिया में सार्थक करें। लेकिन रिटायर होने के बाद उनके ज्ञान का भी हाल हारे हुए नेता के बयान जैसा हो जाता है। मान नहीं रह जाता है।
पहले साहब लोगों से कन्नी काटते थे। अब लोग रिटायर साहब से कन्नी काटने लगते हैं। दूरी बनाने लगते हैं। बाहर वाले तो बाहर वाले खुद साहब के बीवी बच्चे भी उन्हें सठियाया हुआ साबित करने पर तुल जाते हैं। बच्चों की नज़रों में वह रिस्पेक्ट नहीं नज़र आता है। घर के नौकर भी अब साहब के साथ दो चार अधिक शब्द बोल लेते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि साहब को सुनने की आदत नहीं साहब को सिर्फ सुनाने की आदत है। साहब की दुनिया एकदम अचानक से पूरी तरह बदल जाती है। रिटायर होते ही दफ्तर वाले पीठ पीछे उनको गरिआते हैं। खूब भला बुरा कहते हैं। सनकी सठियाया, घमंडी जैसे तमगा देते हैं। पहले इस बात का पता चलता था तो साहब उन लोगों को छठी का दूध याद दिला देते थे। लेकिन अब चुपचाप इस तरल गरल को कंठ के नीचे उतार लेते हैं।
धीरे-धीरे साहब को अपनी स्थिति का भान होने लगता है। अब वह लोगों से मिलना जुलना चाहते हैं मिलनसार होना चाहते हैं। अपनी कार का दरवाजा खुद खोल लेते हैं। जो चीज उनके जानने वाले उनको मुफ्त में उपहार देते थे। अब वह उनका पैसा देना भी सीख जाते हैं। किसी से मिलते हैं तो अब उनकी वाणी में कटुता के बजाय मिठास भरी होती है। साहब लोगों को कोसते हैं। लेकिन यह बहुत मन को तोड़ने वाला होता है साहब की काफी दर्दनाक स्थिति हो जाती है।
इससे बचने के लिए साहब गार्डनिंग का शौक पालते हैं। कद्दू, पपीते, तरोई उगाते हैं। रिटायर होने के दर्दनाक स्थिति को झेलते हुए साहब को हजारों बीमारियां घेर लेती है। घर में और कोई तो नहीं सुनेगा कम से कम कुत्ता सुनेगा। इसीलिए कुत्ता पाल लेते हैं कुत्ते को जिंदगी भर कुत्ता समझते रहे। अब कुत्ते के नसीब में भी प्रेम आत्मीयता और मालिक का दुलार नसीब हो जाता है। जैसे-जैसे साहब को लोग समझना बंद कर देते हैं। वैसे-वैसे साहब कुत्ते को समझना शुरू कर देते हैं और कुत्ता साहब को समझना शुरू कर देता है। साहब और कुत्ता दोनों एक-दूसरे की भाषा बहुत अच्छे से समझने लगते हैं। यह संबंध पीड़ा का होता है इसीलिए बहुत ही आत्मीय होता है।