भारत की तस्वीर बदल कर रख देगा तैरने वाला न्यूक्लियर प्लांट 

देश छोटे मॉड्युलर रिएक्टर से युक्त नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण करेगा। कई माइक्रो न्यूक्लियर रिएक्टर से मिलकर बनने वाला ये ‘भारत स्माल मॉड्युलर रियेक्टर प्लांट’ समुद्र पर तैरेगा। वित्तमंत्री सीतारमन ने आम बजट के दौरान बताया कि इस परियोजना के लिए एक लाख करोड़ रुपये आवंटित किये जा रहे हैं। ऊर्जा, पर्यावरण, आर्थिकी और तकनीकी के क्षेत्रों में यह योजना क्रांतिकारी प्रभाव डालेगी पर बजट सत्र के दौरान मिलने वाली संभवत: सबसे महत्वपूर्ण तत्कालीन सूचना के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया में इसकी चर्चा न्यून ही रही। ऊर्जा, अर्थशास्त्र एवं वित्तीय विश्लेषण संस्थान आईईईएफए के अनुसार, आज दुनियाभर में स्माल मॉड्युलर न्यूक्लियर रिएक्टर या एसएमआर की लगभग 80 अवधारणाएं विकास के विभिन्न चरणों में हैं। कई बड़ी नाभिकीय ऊर्जा परियोजनाओं में देरी के चलते नीति निर्माता 10 से 300 मेगावाट तक की क्षमता वाली इस परमाणु तकनीक को बढ़ावा दे रहे हैं।
 एसएमआर की तकनीक पर कई देश काम कर रहे हैं जैसे अर्जेंटीना, दक्षिण कोरिया, अमरीका। फ्रांस जैसे कुछ देशों के पास यह तकनीक मौजूद है; लेकिन रूस और चीन ही अभी तक तैरने वाले न्यूक्लियर रियेक्टर बना सके हैं। अमरीका का फ्लोटिंग रियेक्टर शायद 2035 तक कार्यक्षम हो पायेगा। भारत ने फिलहाल साल घोषित नहीं किया है पर 2021 से ही प्रयासरत सरकार जल्द इसे स्थापित करना चाहेगी। उसने अमरीका, फ्रांस से बातचीत की और अब 2020 में रूस के पहले तैरते नाभिकीय संयंत्र अकेदेमिया लोमोनोसोव का निर्माण करने वाली वहां की सरकारी परमाणु ऊर्जा कम्पनी रोसाटॉम भारत को ‘छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों’ या एसएमआर प्रौद्योगिकी की आपूर्ति के लिए आधुनिक तकनीक शीघ्र मुहैय्या कराने को तैयार है। जल्दी इसलिए क्योंकि देश पर संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य को समय से हासिल करने, कार्बन मुक्त बनने, उत्सर्जन शून्य करने का दबाव बढ़ता जा रहा है। 
हमें सभी के लिए सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करना और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाने के वैश्विक लक्ष्य को भी पूरा करना है ताकि विश्व मंच पर सुर्ख: हो सकें। ऐसे में यह भारत के सतत विकास के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाता है। देश के पारंपरिक वृहदाकार नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों से दूर होने और किफायती नाभिकीय समाधानों के नज़दीक जाने की शुरुआत को इंगित करता है। इस योजना पर आगे बढ़ने के बाद भारत तमाम विकसित देशों और पर्यावरण के पहरुओं के सामने कह सकेगा कि वह शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य पाने के लिये प्रतिबद्ध है, जिसका प्रमाण उसका यह प्रयास है, जिससे ग्रीन एनर्जी का इस्तेमाल बढ़ेगा, कार्बन फुटप्रिंट कम होगा और प्रदूषण घटेगा, घरेलू स्तर पर कार्बन ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलेगा, स्वच्छ ऊर्जा की तकनीकी में निवेश बढ़ेगा। पर्यावरण जिम्मेदारियों के साथ ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति होगी।
कोयले के इस्तेमाल में भारत का नंबर चीन के बाद दुनिया में दूसरा है। विकासशील देश होने के नाते हमें अभी बहुत ज्यादा ऊर्जा चाहिए, देश में बिजली चलित वाहनों को प्राथमिकता दी जा रही है। ऐसे में दो दशक के बाद हमें मौजूदा बिजली की उपलब्धता का लगभग दो गुना बिजली चाहिए। पवन ऊर्जा, हाइड्रोजन फ्यूएल, बायो फ्यूल, हाइड्रोजन ईंधन इत्यादि के भारी खपत के लिये फिलहाल बहुत व्यावहारिक नहीं है। ताप जलविद्युत, पर्यावरणानुकूल नहीं है, जीवाश्म ईर्ंधन हमें आयात करना पड़ता है, ऐसे में या तो अपना सस्ता कोयला इस्तेमाल करें या फिर नाभिकीय ऊर्जा। परमाणु ऊर्जा के बड़े संयंत्र खर्चीले हैं, इनकी स्थापना के लिये बड़ी जगह चाहिये। ऐसे संयंत्रों का नज़दीकी आबादी और पर्यावरणीय आंदोलनकारी विरोध करते हैं, परियोजना लटक जाती है, लागत बढ़ जाती है। फ्लोटिंग रिएक्टर बनाने का फैसला भूमि अधिग्रहण और उससे जुड़ी दिक्कतों को खत्म करेगा। जमीन का इस्तेमाल न होने और अत्याधुनिक तकनीक के चलते इसे कम खर्चीला माना जा रहा है। इनका प्रयोग सुदूर, तटवर्ती अथवा समुद्र के पास के पहाड़ी क्षेत्र, रणनीतिक महत्व वाले द्वीपों जैसे भारतीय सेना की इकलौती त्रिस्तरीय कमांड वाला अंडमान तक बिजली पहुंचाने में आसानी से किया जा सकता है। इसे किसी ग्रिड से जोड़ना, ग्रिड की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजित करना भी आसान है। एक 300 मेगावाट का एसएमआर हर दिन 72 हजार मेगावाट बिजली पैदा कर सकता है। क्योंकि यह चौबीसों घंटे चलता है। कोयले वाले बड़े नाभिकीय ऊर्जा रिएक्टर की तुलना में एसएमआर 7 गुना कम कार्बन पैदा करता है। बड़े रिएक्टर विकिरण आपदा के लिये अधिक आशंकित होते हैं। इन्हें नियंत्रित करना कठिन होता है जबकि छोटे रियेक्टरों को आसानी से सुधारा और नियंत्रित किया जा सकता है। 
दुनिया अभी भी अपनी ऊर्जा खपत का 82 प्रतिशत ज़रूरतें कोयला, पेट्रोल जैसे जीवाश्म ईंधन से पूरी करती है। अगर बिजली क्षेत्र को कार्बन मुक्त करना है तो सरकारों को ऐसे फैसले लेने ही होंगे। इसी वजह से सरकार छोटे-छोटे परमाणु रिएक्टरों के जरिए बिजली पैदा करना चाहती है। इसके लिये भारी बजट आवंटन चाहिये एक लाख करोड़ रुपये बस आरंभ के लिये ही ठीक है। सरकार को प्राइवेट कंपनियों से उम्मीद है जिनके साथ मिलकर वह भारत स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर बनाने और परमाणु ऊर्जा के जरिए ज्यादा से ज्यादा बिजली तैयार करने की सोच रही है। पर इसका दूसरा पहलू भी है। कंपनियां लंबे समय तक अनिश्चित निवेश से बचना चाहेंगी और अपना आर्थिक लाभ देखकर आयेंगी पर क्या नाभिकीय बिजली बेचना लागत और मुनाफे के आधार पर फायदे का सौदा रहेगा? 
फिलहाल विदेशी अध्ययन यह कहते हैं कि यह तकनीकि अभी भी नई है और व्यवहारिकता के धरातल पर कसा जाना बाकी है। मॉड्युलर के नाम से बोध होता है कि इसके टुकड़े कहीं बनाकर निर्माण स्थल पर लाकर जोड़ने जैसा आसान है। जी ई और हिताची जैसी कंपनियों का दावा है कि वे एक एसएमआर 12 से 48 महीनों में स्थापित कर सकती हैं। असलियत इससे उलट है। रूस ने तैरता रिएक्टर तैयार करने की समय सीमा तीन साल रखी थी, लगे कुल तेरह बरस। इसी तरह चीन ने स्माल रिएक्टर बनाने के लिये समय चार साल रखा था, बारह बरस लग गये। अर्जेंटीना ने भी इसके शोध और निर्माण के लिये महज चार साल रखे थे लेकिन यह तेरहवां साल चल रहा है और अभी भी विकास का काम पूरा नहीं हुआ है। अमरीकी फ्लोटिंग रिएक्टर चार साल निर्माणाधीन रहा, लागत इतनी बढी कि उत्पादित बिजली का प्रति किलोयूनिट का दाम 22 हजार डॉलर तक चला गया। कम्पनी ने 2022 में सौदा रद्द कर दिया। वह अब 2035 की समय सीमा के साथ दोबारा प्रयासरत है। 
विशेषज्ञों के अनुसार एसएमआर तकनीक काफी नई और अप्रमाणित है, इसलिए कार्यक्षमता और सुरक्षा के मामले में भी जोखिम मौजूद हो सकते हैं। इसके संचालन, कार्यकाल पूरा होने के बाद इसके निपटारे, विघटन या पुनर्बहाली, संयंत्र की सफाई और अपशिष्ट प्रबंधन में कितना खर्चा आयेगा क्या कैसे करना होगा इस बावत अभी बहुत कम जानकारियां उपलब्ध हैं। सरकार की सदिच्छा में कोई खामी नहीं है, लेकिन उसे इस योजना पर पूरी तरह आगे बढ़ने से पहले उसको गहन अध्ययन और शोध के निष्कर्ष पर परखना होगा। उम्मीद है कि जब तक वह सक्रिय होगी, तकनीकि विकास ये सारी तकलीफ दूर कर चुका होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर