अब वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी है श्रीनगर

श्रीनगर के हर घर, हर गली, हर नुक्कड़ पर बुनकरों, स्पिनर्स, शाल निर्माताओं, कशीदाकार, पेपरमेशी कलाकार, अखरोट की लकड़ी पर नक्काशी करने वाले, ब्रास व कॉपर वर्कर्स, सुनार, नमदा रग फेल्टर्स, मोम कारीगर, डायर और प्रिंटर दिखायी दे जायेंगे। होशियारी से गांठ बांधते हुए कालीन वर्कर्स लोकगीत गुनगुनाते हुए मिल जायेंगे। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि श्रीनगर को वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी घोषित किया गया है। यह हमारे देश के लिए गर्व की बात है।
कश्मीरी क्राफ्ट जहां एक तरफ रोज़गार व आय का महत्वपूर्ण ज़रिया है, वहीं अभिव्यक्ति व पहचान का माध्यम भी है। कश्मीर की दस मिलियन से कुछ अधिक की जनसंख्या में लगभग 3.50 लाख लोग सीधे क्राफ्ट से जुड़े हुए हैं। हाल के दशकों में महिलाएं भी कशीदाकारी से जुड़ने लगी हैं, विशेषकर इसलिए कि उनके पति व पिता अनुपस्थित थे (मृत्यु, जेल में या भारतीय मेट्रो में जीविकोपार्जन के लिए), जबकि एक जमाने तक इस क्षेत्र में केवल पुरुष ही राज किया करते थे। निश्चितरूप से यह दिल खुश करने वाली बात है कि जम्मू-कश्मीर की समर राजधानी को वर्ल्ड क्राफ्ट काउंसिल ने आधिकारिक तौर पर वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी की मान्यता दी है। हालांकि श्रीनगर के शानदार कलाकारों ने अपनी कला व समर्पण से पहले ही ग्लोबल ख्याति हासिल की हुई थी, लेकिन इस मान्यता से घाटी में हैंडलूम व हैंडीक्राफ्ट सेक्टर्स को आर्थिक दृष्टि से भी आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा। 
यह मान्यता श्रीनगर के शिल्पकारों की कड़ी मेहनत व अद्वितीय प्रतिभा का सम्मान है और इस तथ्य की स्वीकृति भी कि इन्होंने अपनी परम्परागत विरासत को संभालकर रखा है। इस खबर के मिलते ही कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। लगभग दो दशक पहले मैं श्रीनगर के पुराने हिस्से में मुहम्मद गनी की दुकान में था। एक साहब कशीदाकारी के लिए कपड़े पर ब्लाक-प्रिंटिंग करा रहे थे। दुकान में छत तक शानदार नक्काशी किये गये शहतूत की लकड़ी के ब्लॉक्स लगे हुए थे, जिनमें से कुछ तो सौ वर्ष पुराने थे। ब्लॉक्स में चिनार की पत्तियों, पैज़ले, किंगफिशर व आईरिस के डिज़ाइन नक्काशी किये हुए थे, जोकि घाटी के पेड़-पौधों व जंतुओं से प्रेरित थे। गनी कम ऊंचाई वाली मेज़ पर झुके हुए थे। उनकी फेरन व उंगलियां पर रंग था। पास में ही नमक की चाय व हुक्का भी था। चावल के आटे व राल से कोट किया ब्लाक जब वह कपड़े पर डिज़ाइन छापने के लिए बार-बार मारते तो लयात्मक ध्वनि उत्पन्न होती, जो उनके पुराने ट्रांजिस्टर पर बज रहे गीत के साथ मिलकर वातावरण को संगीतमय कर रही थी। गनी के चेहरे पर एक कलाकार की गंभीरता थी और वह एकाग्रता से अपने काम में व्यस्त थे। 
तभी खामोश हवा में अज़ान गूंज उठी, मुअज़्ज़िन धर्मभीरुओं को मस्जिद में इबादत के लिए बुला रहा था। गनी की दुकान के बराबर में ही कुछ महिलाएं बैठी हुईं कपड़े पर कशीदाकारी कर रही थीं, उनकी अरी सुइंयां नियमित पुक-पुक की ध्वनि कर रही थीं- इस आवाज़ से घाटी सदियों से परिचित है। लेकिन यह शांति माया साबित हुई। अचानक धमाका हुआ। गनी ने गुस्से में मेज़ पर मुक्का मारा। हवा में धुआं फैल गया। एक पत्थर दुकान की खिड़की पर लगा, शीशा टूट गया। भीड़ पथराव कर रही थी, दुकानों में आग लगायी जा रही थी, सशस्त्र जीप व पुलिस उग्र भीड़ को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही थी। कर्फ्यू लगा दिया गया। सप्ताहभर तक कोई काम नहीं होना था। घाटी की अर्थव्यवस्था सदियों से पर्यटन व क्त्राफ्ट पर निर्भर रही है, वह पतन की ओर जाने लगी। 
अब श्रीनगर को वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी घोषित किये जाने के बाद मैं एक बार फिर नाइद कदाल में हूं, गनी की दुकान पर। कुछ खास नहीं बदला है, गनी की उम्र बढ़ गई है जो उनके चेहरे पर दिखायी देने लगी है, लेकिन अपनी कला के प्रति उनमें वही पुराना समर्पण है। इन दो दशकों के दौरान घाटी में काफी कुछ बदला है, धारा 370 निरस्त की जा चुकी है, विद्रोह भूमिगत हो गया है, बेचैन सी खामोशी है। पर्यटक घाटी में धीरे-धीरे लौटने लगे हैं। लेकिन कश्मीर में क्राफ्ट पर खतरा मंडरा रहा है। प्रतिभा या शिल्पकारों में कमी नहीं आयी है बल्कि खतरे का कारण यह है कि रचनात्मकता को जीवित रखने के लिए जागरूक प्रोत्साहन का अभाव है। अब जो कट-प्राइस पैकेज टूर पर पर्यटक आ रहे हैं, उन्हें महंगे मास्टरपीस की जगह सस्ते सौवेनियर चाहिए। स्वयं कश्मीरी लुधियाना में मशीन निर्मित जमावर शाल की नकल बेच रहे हैं। यही हाल अन्य क्राफ्ट्स का है। 
हालांकि गनी की दुकान पर अब पहली जैसी भीड़ नहीं है, गिनती के ही ग्राहक आते हैं, लेकिन किस्मत से घाटी में इंटीरियर डेकॉर, क्लोथिंग व कलाकृतियों के रूप में घरेलू जीवन का हिस्सा है। कश्मीरी कालीनों पर परिवार अब भी बैठते, काम करते व सोते हैं। महिलाएं कशीदाकारी किये शाल व फिरन ओढ़ती हैं। जामा मस्जिद के निकट ख्वाजा नक्शबंद का मकबरा अब भी खतमबंद (लकड़ी की नक्काशी) की सबसे अच्छी मिसाल है, लेकिन घरों की छत व हाउसबोट अब भी देवदार की लकड़ी पर की गई खूबसूरत नक्काशी से सजे हुए हैं। पुराने शहर की गलियों में कॉपर पर की गई नक्काशी वाली चीज़ें अब भी स्थानीय उपभोग के लिए उपलब्ध हैं- समोवर, थाली, ट्रे पर सुंदर पैज़ले या कैलीग्राफी की नक्काशी व एम्बॉस है।
श्रीनगर को जो नई मान्यता मिली है, उससे उम्मीद की जाती है कि उसकी शिल्प की विशिष्ट गुणवत्ता में फिर से दिलचस्पी बढ़ेगी और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक व खरीदार लौटेंगे। मटेरियल, प्रतिभा व शिल्पकारों की कोई कमी नहीं है। कश्मीरियों की शिल्पकार बनने की वजह क्या है? बात केवल कॉमर्स की नहीं है बल्कि इसमें पर्यावरण व जीवन पर रचनात्मक प्रतिक्रिया भी शामिल है। कश्मीरी शिल्प उसके लैंडस्केप की गूंज है जो उसके सूफी दर्शन को भी व्यक्त करती है। हिंसा के ज़ख्मों के बावजूद कश्मीरियत आवश्यक रूप से अपने आपमें सभ्यता है। श्रीनगर को मिली मान्यता विश्व में शिल्प की क्षमता की स्वीकृति है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर