हम न सुधरेंगे कभी’
देखते ही देखते ज़िन्दगी का व्याकरण बदल गया। शब्दों के अर्थ बदल गये। सत्य का मतलब कुछ यूं बदला कि हर भावार्थ झूठा सच लगने लगा।
ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ यूं बदला कि सक्रिय शब्द निष्क्रिय हो गये, और धनात्मक मूल्य पंगु होकर ऋणात्मक रास्तों को जगह देने लगे। तप, त्याग और अध्यवसाय को कौन तलाशता है? अब तो संक्षिप्त मार्ग संस्कृति सम्पर्क सहयोग की बैसाखियों पर चलती हुआ नज़र आती है। लोग अपना काम करवाने के लिये अपनी वंशावली टटोल रहे हैं, ताकि किसी बड़े आदमी का दूर नज़दीक का कोईर् रिश्ता उनके लिए सफलता की सीढ़ी बन जाये और सफलता भी ऐसी कि जिसमें ‘चट मंगनी, पट व्याह’ हो। पहले व्याह के साथ ‘हम दो हमारे दो’ का परिवार नियंत्रण संदेश मिलता था। लोग रहन-सहन के प्रति चैतन्य हुए तो ‘हम एक हमारा एक’ का मूल्य सबको घुट्टी में मिला। लेकिन हमने कहा न, हर युग का अपना मन्त्र होता है, और सफलता का अपना-अपना राह और अपनी अपनी तमीज़।
वोट बैंक की राजनीति प्रबल हुई तो कर्णधार फरमाने लगे, तुम्हारे इस परिवार नियोजन या जनसंख्या वितरण का ढांचा चरमराने लग। जितना अधिक परिवार नियोजन होगा, उतना ही जनसंख्या के संकुचित होने की समस्या बनेगी। संकुचित होगा वोट वर्ग। इसका सम्बन्ध आगे निकलेगा कम वोट संख्या और जीत की परेशानी पर हार की सम्भावना। तो सबसे पहले तो परिवार नियोजन के घुट्टी मंत्र को अब भूल जाओ। अब जल्दी से जल्दी परिवार को बढ़ाने की समस्या बनी है। आप लाख दो व्यस्कों के प्रेम समझौते को खुलेआम होने की वकालत कर लो।
फिर करोड़ों रुपये का यहां बैंड, बाजा, बारात का धंधा है। लोग शादियां करना छोड़ देंगे तो इस धंधे के संचालक धनपतियों का क्या होगा? इसलिये अब मछली पत्थर चाट कर लौटी है। अब फिर सात जन्म के लिये सात फेरों से रिश्ता कायम करने की वकालत हो रही है। समाज बदल कर भी न बदले, यही इस देश के नये युग का मूल मन्त्र है।
जी हां, इसे यथास्थितिवाद कहते हैं। नैतिक मूल्यों को बनाए रखने के लिये शादी नाम की संस्था पर खरोंच न लगने देने की बात होती है। खरोंच लगनी भी नहीं चाहिए। शादी की पवित्रता, पावनता बनी रहे तो समाज पुरुष प्रधान रहेगा। व्यर्थ के आडम्बर के साथ शादियां होती रहेंगी तो न जाने कितने लोगों की पौ-बारह होगी। इसलिये देश में शादियां उसी प्रकार होती रहें, ताकि पंडित-पुरोहितों, बिजली सजावट करने वालों और बैंड बाजा से लेकर फूल बेचने वालों तक का व्यवसाय चलता रहे। चलता रहेगा, तो चाहे घोषित कर लो ‘दहेज लेना देना अपराध है,’ लेकिन जो देना है, अपनी लड़की को देना हैं के पर्दादार बहाने के साथ यह सब चलता रहेगा।
हज़ारों साल पुरानी हमारी संस्कृति है, इसलिये जो कल सच था, वह आज भी अकाट्य तथ्य बना रहे, चाहे कितना ही हम क्रांति और बदलाव के नाम पर इसका कोई भी नामकरण कर दें।
यहां कहीं कुछ नहीं बदलता। सब कुछ वैसा ही बना रहता है और हम कहते हैं, बदलाव आ गया, क्रांति हो गयी, और इस बदलाव की सफलता का ऐसा उत्सव मनाते हैं, कि उसकी धूम-धाम से लगता है वास्तव में देश क्रांतिकारी हो गया।
आज़ादी और प्रगति महोत्सव मनाने के बाद पता चलता है कि अरे हम तो वहां के वहां खड़े हैं। इसलिए सूचकांकों का मूलाधार बदल जाता है ताकि चमकदार दुनिया बने। हर क्षण सफलता का कसीदा पढ़ते हुए उपलब्धियों के आंकड़े बढ़ें।
घोषणा होती है कि देश पहले से बड़ी आर्थिकता बनने के रास्ते पर चल पड़ा है। ग्यारह साल पहले हम दुनिया का एक बेचारा-सा अल्पशक्ति देश थे। फिर इतने बरसों से दुनिया की पांचवीं, फिर चौथी बड़ी आर्थिक महाशक्ति बने। आने वाले दिनों का रोडमैप है कि हम जल्दी ही तीसरी बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन जाएंगे, फिर दूसरी और तब पहली। लेकिन टूटी हुई सड़क पर गिरा हुआ आदमी सोचता है कि देश तो हर पल बड़ी से बड़ी आर्थिकता बनता चला गया, लेकिन देश के करोड़ों लोग आज भी सस्ते राशन की दुकानों के बाहर कतार लगा कर खड़े हैं। हमने दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश की दो तिहाई जनता को सस्ता राशन बेच कर एक रिकार्ड बना दिया है। यह रिकार्ड बनाये रखना चाहते हैं हम। आज़ादी का शतकीय महोत्सव मनायेंगे। विकसित देश कहलायेंगे। तब हमारा इरादा दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन जाने का है अर्थात इस समय दुनिया की पहली और दूसरी महाशक्ति को पछाड़ कर दुनिया की सबसे ताकतवर आर्थिक बन जाने का है। नैतिक मूल्यों के अलम्बरदार हैं हम, इसलिये हज़ारों साल से हम दुनिया के गुरुदेव थे, और गुरुदेव ही बने रहेंगे। न बनते नज़र आएंगे तो प्रगति, उपलब्धियों और विकास दर के अर्थ ही बदल डालेंगे। आज भी हमारे गांव की बड़ी हवेली के मालिक सफलता का भूत बने घूमते हैं। उम्मीद करते हैं कि हमने धरती और धन बांट दिया है, समता का सन्देश दिया है। जी हां, धरती और धन बांट दिया है लेकिन अपनी जैसी हथेलियों के बीच। देश के करोड़ों गरीब कल भी गरीब थे, और आज भी, क्योंकि उन्हें कर्म की जगह अनुकम्पा संस्कृति का नारा जीने का ढंग आ गया है।