अभी ज्यादा गम्भीर नहीं हैं भाजपा की परेशानियां

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के आलोचकों को एक बार फिर कुछ मसाला मिल गया है, जिसके आधार पर उन्हें लगता है कि वे इस पार्टी को कुछ आड़े हाथों ले सकते हैं। सत्ताधारी पार्टी की आलोचना के लिए उपयुक्त यह मसाला तीन किस्म का है। पहला, महाराष्ट्र और हरियाणा में हुआ भाजपा का चुनावी नुकसान। आलोचकों की मान्यता है कि भाजपा ने चुनावी मुहिम के दौरान मीडिया की मदद से बढ़-चढ़ कर जो डींगें मारी थीं, वे ज़मीन पर मुंह के बल गिर पड़ी हैं। महाराष्ट्र में उसके हाथ से सत्ता ही छिन गई है, और हरियाणा में वह ऐसे राजनीतिक तत्वों के साथ सत्ता में हिस्सा बंटाने के लिए मजबूर है जिनकी राजनीतिक साख भाजपा के अपने मानकों पर खरी नहीं उतरती। दूसरा, भाजपा की गठजोड़ राजनीति को होने वाला नुकसान। इसके मुताब़िक आलोचकगण कहना चाहते हैं कि अब भाजपा का सबसे पुराना और विचारधारात्मक रूप से सबसे नज़दीक सहयोगी दल शिव सेना उससे अलग हो गया है, जिसका असर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए) की संरचना पर पड़ेगा। इसके अलावा झारखंड के विधानसभा चुनावों के संदर्भ में भी भाजपा का साथ उसके पुराने सहयोगी दल आल झारखंड स्टूडेंट यूनियन ने छोड़ दिया है। आलोचक इसका मतलब यह निकाल रहे हैं कि भाजपा की गठजोड़ राजनीति कमज़ोर हुई है। तीसरा, अर्थव्यवस्था का निरंतर जारी संकट। आलोचकों के मुताबिक सरकार ने इस संकट को नरम करने के लिए जो कदम उठाये हैं, वे न केवल नाक़ाफी हैं, बल्कि अगर उनका असर होगा भी तो बहुत दिनों बाद। इस बीच में आर्थिक दिक्कतों के कारण समाज के कई तब़कों के बीच राजनीतिक असंतोष पैदा हो सकता है। एक तरह से देखा जाए कि 2019 में ज़बरदस्त जीत के बाद मोदी सरकार का इस तरह तितऱफा संकट में फंसा होना, उसके आलोचकों को कई तरह की बातें बोलने का मौका दे रहा है। आलोचकगण इसलिए भी ़खुश हैं कि भाजपा को 2020 और 2021 में दो बहुत कठिन विधानसभा चुनावों का सामना करना है। 2020 की शुरुआत में उसे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से टकराना है जिसके लिए भाजपा का स्थानीय संगठन तैयार नहीं दिख रहा है। इसके बाद 2021 में उसे बंगाल में ममता बनर्जी से टक्कर लेनी है जो एक मज़बूत क्षेत्रीय नेता हैं और जिनकी ताकत कम तो की जा सकती है, पर जिन्हें उस तरह से नहीं हराया जा सकता जैसे त्रिपुरा और असम में भाजपा ने विजय प्राप्त की थी। भाजपा के सामने ओडीशा का उदाहरण भी है, जहां की जनता ने लोकसभा में उसे पसंद किया, पर साथ ही साथ विधानसभा के लिए क्षेत्रीय नेता नवीन पटनायक को आराम से जिता दिया। इस लिहाज से भाजपा को यह डर है कि बंगाल में लोकसभा में मिली अभूतपूर्व 18 सीटें विधानसभा चुनाव के अनुकूल परिणामों में नहीं बदलेंगी। आलोचक यह भी मानते हैं कि 2019 का परिणाम आम तौर पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनाधार का भाजपा में नियोजित हस्तांतरण का परिणाम था। माकपा की स्थानीय शक्तियां ‘उन्नी शेर ह़ाफ, इक्की शेर स़ाफ’ (2019 में तृणमूल की ताकत को आधा कर दो, ताकि 2021 में उसका पूरी तरह से स़फाया किया जा सके) की रणनीति के तहत काम कर रही थीं। इस चक्कर ने तृणमूल को हराने के लिए अपने हितों की बलि दे दी। माना जा सकता है कि यह रवैया माकपा 2021 के विधानसभा चुनाव में नहीं दोहराएगी, और उस सूरत में भाजपा को अपने दस-बारह ़फीसदी वोटों से ही संतुष्ट रहना पड़ सकता है। समीक्षकों का यह भी मानना है कि ममता बनर्जी लोकसभा में झटका (34 से घट कर 22 पर) खाने के बाद सतर्क हो गई हैं। उन्होंने एक नयी रणनीति बनाई है जिसके केंद्र में ‘डीकेबी’ यानी ‘दीदी के बोलो’ नामक नया जनसम्पर्क कार्यक्रम है। इस नयी रणनीति में एक हथकंडा यह भी है कि वे सीधे नरेंद्र मोदी पर हमला करने से बच रही हैं। ठीक उसी तरह जैसे अरविंद केजरीवाल दिल्ली की स्थानीय राजनीति में मोदी से सीधा पंगा लेने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। उनका नारा है ‘दिल्ली में तो केजरीवाल’। आलोचकों की बातें क़ाफी-कुछ ठीक हैं। लगातार शक्तिशाली होती जा रही सत्तारूढ़ पार्टी की ़खामियों और कमज़ोरियों को रेखांकित करना भी ज़रूरी है। लेकिन, आलोचना के उत्साह में कुछ अहम सच्चाइयां नज़रअंदाज़ करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य दूषित हो जाता है। आ़िखकार एकतऱफा निंदा करना और उसके म़ौके तलाशते रहना आलोचना और समीक्षा-कर्म की जगह नहीं ले सकता। पहली बात तो यह देखने की है कि भाजपा इस समय देश की अकेली ऐसी पार्टी है जिसका प्रभाव-क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है। बाकी सभी पार्टियां अपना प्रभाव-क्षेत्र बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। दूसरे, हरियाण और महाराष्ट्र में भाजपा ज़रा-सी फिसली भर है। इसे उसकी पराजय मानना भूल होगी। हरियाणा में एंटीइनकम्बेंसी होने के बावजूद अगर छह सीटों पर उसे कुल मिला कर महज़ पौने दो हज़ार वोट और मिल जाते तो उसे अकेले बहुमत मिल सकता था। महाराष्ट्र में तो बाकायदा उसका चुनाव-पूर्व गठजोड़ जीता है। अगर शिव सेना ने भाजपा से आधी सीटें जीतने के बावजूद मुख्यमंत्री के पद के लिए आश्चर्यजनक रूप से समझौताहीन रवैया न अपनाया होता, तो इस समय उसकी सरकार आराम से चल रही होती। तीसरे, अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस-कांग्रेस-शिवसेना की सरकार ठीक से न चली और मध्यावधि चुनाव की नौबत आई तो सारा चुनावी लाभ भाजपा को ही मिलेगा। चौथे, भाजपा की ये कथित चुनावी मुश्किलें क्या यह संदेश नहीं देतीं कि एंटीइनकम्बेंसी के बावजूद इस पार्टी का चुनावी प्रदर्शन कोई ़खास कमज़ोर नहीं हुआ है। पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने अगले चार साल के लिए अपने प्रसार का लक्ष्य दक्षिण भारत को बनाया है। वह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को केंद्र करके दक्षिण में अपनी उपस्थिति में इज़ाफा करने जा रही है। ऐसा ही लक्ष्य उसने पूर्वी भारत के लिए 2014 में बनाया था। हम जानते हैं कि उसका परिणाम क्या हुआ। भाजपा ने असम और त्रिपुरा के चुनाव जीते, अन्य पांच राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ाया और बंगाल में ममता बनर्जी की नाक में दम कर दिया। दक्षिण में वह कर्नाटक में पहले से जमी हुई है। तेलंगाना में उसका लोकसभा परिणाम बेहतर निकला है। सुना जाता है कि सुनील देवधर (जिन्होंने त्रिपुरा में संघ की तऱफ से जा कर डेरा डाला था) को आंध्र में घर ़खरीद कर दे दिया गया है, और वे वहां डेरा डाल चुके हैं। लोकतांत्रिक राजनीति स्वाभाविक रूप से छोटी-मोटी या कभी बड़ी दिक्कतें पेश करती रहती है, और उनसे शक्तिशाली पार्टियां भी परेशान हो जाया करती हैं। इनके बावजूद राष्ट्रीय राजनीति का रुझान भाजपा के पक्ष में है। दरअसल, भाजपा के सामने चुनावी प्रदर्शन इतनी बड़ी दिक्कत नहीं है। असली मसला आर्थिक संकट है। अगर यह संकट संरचनागत निकला (जैसा कई अर्थशास्त्रियों का दावा है), तो भाजपा को साल-दो साल में बड़े सामाजिक-राजनीतिक असंतोष का सामना कर पड़ सकता है। आलोचकों को दम साध कर उस दिन की प्रतीक्षा करनी चाहिए।