लोगों का फतवा

जिस तरह कि उम्मीद ही की जा रही थी कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों में आम आदमी पार्टी को बड़ी जीत प्राप्त हुई है। 8 फरवरी को मतदान के बाद बहुत सारे टी.वी. चैनलों और सर्वेक्षण एजेंसियों के सर्वेक्षण आम आदमी पार्टी के पक्ष में थे। इसका बड़ा कारण गत 5 वर्षों में केजरीवाल सरकार द्वारा आम लोगों की बुनियादी सुविधाओं में की गई वृद्धि है। इसमें सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाना, स्वास्थ्य सुविधाओं की तरफ अधिक से अधिक ध्यान देना, पानी की सप्लाई में सुधार तथा बिजली की दरों में कमी करना आदि था। इसके अलावा केजरीवाल ने अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह पानी और बिजली के बिलों में एक स्तर तक छूट देने और लगभग 3 महीने पूर्व बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने का भी ऐलान किया। इसके मुकाबले में भारतीय जनता पार्टी ने नागरिकता संशोधन कानून और राम मंदिर के निर्माण से लेकर एक सम्प्रदाय को बहलाने के लिए पूरी शक्ति लगाई, परन्तु अंत में उसके द्वारा खेला गया यह साम्प्रदायिक पता अधिक काम नहीं आ सकता। इसके अलावा नागरिकता संशोधन कानून में मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने की प्रक्रिया से बाहर रखने से जो विवाद पैदा हुआ और जिस तरह भाजपा की इस नीति के विरुद्ध आम लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की उसका खमियाज़ा भी पार्टी को भुगतना पड़ा। चाहे इसी दौरान शाहीन ब़ाग जैसे लम्बे धरनों के विरुद्ध प्रचार करके भाजपा यह उम्मीद करती थी कि इससे हिन्दू समुदाय उसकी तरफ झुकेगा, परन्तु उसका जन-मानस पर ज्यादा असर नहीं हुआ। चुनावों से पूर्व राम मंदिर के निर्माण के लिए ट्रस्टियों का किया गया ऐलान भी इसी कड़ी का हिस्सा था। इसी कड़ी में योगी आदित्यनाथ और भाजपा के अन्य कई वरिष्ठ नेताओं द्वारा जो बयानबाज़ी की जाती रही उसको भी मतदाताओं ने नकार दिया। आम आदमी पार्टी की जीत को दिल्ली सरकार के कार्यकाल से भी जोड़ा जा सकता है। केजरीवाल का तीसरी बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना भी यह दर्शाता है कि देश की राजधानी के लोगों ने आज तक उन पर विश्वास बनाये रखा है। जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है लगभग 7 वर्ष पूर्व बनी इस पार्टी ने अब तक अनेकों ही उतार-चढ़ाव देखे हैं। केजरीवाल के नेतृत्व में यह पार्टी लोकपाल बिल के लिए चले आन्दोलन के आधार पर अस्तित्व में आई थी। उस समय अन्ना हज़ारे इसका नेतृत्व कर रहे थे। केजरीवाल ने अन्ना हज़ारे की असहमति के बावजूद यह पार्टी बनाने का ऐलान किया था। भ्रष्टाचार विरोधी माहौल के दौरान वर्ष 2013 में दिल्ली विधानसभा के हुए चुनावों में यह पार्टी दूसरे स्थान पर रही थी। इस पार्टी को 70 में से 28 सीटें मिली थी, परन्तु कांग्रेस की सहायता से इसने 40 दिन सरकार चलाई थी। दूसरी बार वर्ष 2015 में इसको विधानसभा के चुनावों में बड़ा समर्थन मिला था और इसने 70 में से 67 सीटें जीत ली थी। इसी समय के दौरान इस पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण, शांति भूषण, किरण बेदी और योगेन्द्र यादव आदि ने केजरीवाल के तानाशाही रवैये के कारण पार्टी छोड़ दी थी। बाद में कुमार विश्वास जैसे नेता भी उसको छोड़ गये थे। केजरीवाल ने उस समय समूचे देश में चुनाव लड़ने का ऐलान किया था, परन्तु पंजाब के अलावा उनकी समूचे देश में हुए लोकसभा चुनावों में कोई बात नहीं बनी थी। पंजाब में भी पहले मिले बड़े समर्थन के बाद इस पार्टी में अनेक कारणों से और खास तौर पर चुनावों के दौरान टिकटों के आबंटन में भ्रष्टाचार के लगे आरोपों के कारण इसके बहुत सारे नेता इसको छोड़ गए थे। विधानसभा के चुनावों में यह पार्टी पंजाब में शासन करने के सपने देखती हुई दूसरे स्थान पर पहुंच गई थी। अब दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत प्राप्त करने के बाद इस पार्टी के पंजाब में पुन: उभार की सम्भावना बनी नज़र आती है। परन्तु इसके लिए केजरीवाल को दिल्ली की तरह ही अपनी राजनीति बदलने की ज़रूरत होगी। जिस तरह दिल्ली में केजरीवाल ने अपनी नीतियों में बड़ा बदलाव लाया है उसी तरह पंजाब में भी उनको अपनी नीतियां और प्राथमिकताएं बदलनी पड़ेंगी। इन चुनावों के परिणामों से यह बात भी प्रमाणित हो जाती है कि जन-समस्याओं से जुड़ने वाली पार्टियों को ही अंतत: लोगों द्वारा बड़ा समर्थन मिलता है। आगामी समय में केजरीवाल की दिल्ली सरकार पर लोगों द्वारा और भी अधिक उम्मीदें लगाई जाएंगी, जिस कारण उनकी ज़िम्मेदारी में और भी बड़ी वृद्धि हो जाएगी। आगामी दिनों में पंजाब में यह पार्टी किस ढंग से विचरती है, उसको भी बड़ी दिलचस्पी से देखा जाएगा, क्योंकि पंजाब की राजनीतिक पार्टियों में बड़ी गिरावट आई देखी जा रही है। इससे निकलने के लिए राजनीतिज्ञों को लोगों में पुन: उत्साह और विश्वसनीयता पैदा करनी पड़ेगी। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द