भारत-ईरान के बदलते कूटनीतिक रिश्ते

क्या आजकल भारत का विदेश मंत्रालय कूटनीतिक संवेदनाओं को लेकर लापरवाह हो रहा है? पिछले कुछ महीनों के भीतर ईरान के साथ हमारे रिश्तों में जिस तरह की रफनेस और उदासीनता देखी गई है, अब के पहले वैसी कभी नहीं थी। हाल के दिल्ली दंगों ने इस आग में घी डालने का काम किया है। ईरान के जो कड़वे बोल पहले सरकार तक सीमित हुआ करते थे, अब वे यहां की मीडिया और छात्रों तक पहुंच गये हैं। यह खतरनाक स्थिति है। ईरान भारत के लिए बहुत ही कूटनीतिक महत्व रखता है। सिर्फ  आर्थिक ही नहीं, भारत की आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियां और कश्मीर के नजरिये से भी ईरान का भारत के पक्ष में रहना बहुत जरूरी है। लेकिन इसके लिए शायद ही कोई प्रयास हो रहा हो।,बात ईरान के विदेशमंत्री जावेद जरीफ  और सर्वोच्च नेता अयातुल्लाहिल उज्मा सैयद अली खामेनई तक सीमित नहीं रह गई। वहां के छात्र संगठनों और मीडिया तक को इसे साबित करने में शामिल कर लिया गया है कि भारत में मोदी सरकार मुसलमानों पर जबरदस्त तरीके से जुल्म कर रही है। आईआरआईवी टीवी-रेडियो वर्ल्ड सर्विस की हिंदी वेबसाइट ‘पार्स टुडे’ ने आठ मार्च के संस्करण में ‘खुद को भारतीय बताने की भारतीय मुसलमानों को इतनी बड़ी सजा’ शीर्षक में जो कुछ लिखा, उससे लगता है कि वहां का मीडिया पूरी जिम्मेदारी से खबरें नहीं प्रकाशित कर रहा है। खबर में लिखा गया है, ‘भारतीय हिंदुत्ववादियों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 50 मुसलमानों की हत्या कर दी। जमकर तांडव किया, गरीब मुसलमानों के घरों और व्यवसायों को जलाकर राख कर दिया। कई मुसलमान युवक लापता हैं।’
काश, इस खबर को फाइल करने से पहले उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे में मरने वालों की सूची पार्स टुडे के संवाददाता ने देख ली होती। हिंदी न्यूज वेबसाइट ‘पार्स टुडे’ ने इस समाचार में जमकर विषवमन किया है। यह छोटा-सा उदाहरण है कि ईरानी शासन के टुकड़ों पर पलने वाला वहां का गोदी मीडिया कितना गैर जिम्मेदार है और कहां तक गिर सकता है। दो देशों के बीच माहौल खराब करने का सिलसिला थमा नहीं है। हम यह नहीं कह सकते कि पहली बार मोदी सरकार के समय ही ईरान से संबंध बिगड़ने लगे हैं या वहां के नेता मुसलमानों पर सितम के सवाल उठा रहे हैं। साल 1992 और 2002 में भी ईरानी नेतृत्व ने तत्कालीन भारत सरकार पर आरोप लगाया था।  साल 1992 में बाबरी विध्वंस के समय तेहरान रेडियो ने सर्वोच्च नेता अली खामेनई के हवाले से कहा कि मस्जिद का टूटना स्थानीय मुद्दा नहीं है। यह भारतीय मुसलमानों का फर्ज है कि ऐसी हरकतों को बर्दाश्त न करें। उस समय के विदेशमंत्री अली अकबर विलायती ने बयान दिया कि भारत सरकार मुसलमानों के अधिकार का एहतराम करे। उन दिनों हामिद अंसारी तेहरान में भारत के राजदूत थे। वहां के टेलीविजन पर एक इंटरव्यू में बयान दिया कि जो गलतियां हुईं, उसे दुरूस्त करेंगे और वहीं पर मस्जिद का पुनर्निर्माण करेंगे। उसके अगले साल सितंबर 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने ईरान का दौरा किया। मार्च 1994 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने कश्मीर के सवाल पर भारत के विरूद्ध प्रतिबंध का प्रस्ताव लाने की चेष्टा की। ईरान तब भारत के समर्थन में खड़ा था और यह विषय टल गया।
अगस्त 1994 में उस समय के सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल के सलाहकार हसन रोहानी भारत आये और सारे किये पर पानी फेर दिया। रोहानी ने बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का सवाल उठा दिया और यहां तक कह दिया कि कश्मीर समस्या का समाधान बिना हुर्रियत कांफ्रेंस को विश्वास में लिये संभव नहीं। दो माह बाद अक्टूबर 1994 में ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति अली अकबर हाशमी रफसंजानी को भारत आना था। मगर, सरकार ने सूरत में प्लेग का बहाना बनाकर उनका आना टाल दिया। उन दिनों अफगानिस्तान में पाक खुफिया आईएसआई तालिबान के बूते बड़े खेल में लगी हुई थी। भारत की विवशता थी कि वह तेहरान के प्रति नरम पड़े। ईरान से बिगड़ते संबंधों का सबसे बड़ा कारण तेल व्यापार रहा है। अमरीकी प्रतिबंध से पहले चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर था, जो ईरान से सर्वाधिक क्रूड आयल आयात करता था और उसकी कीमत डॉलर में नहीं, रूपये में अदा करनी होती थी। आज चीन, ईरान से तेल आयात में अगली पांत में है। दिसंबर 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि चीन के वास्ते ईरान से कच्चे तेल आयात का सालाना औसत 14.77 मिलियन टन का था। दरअसल, तेल के वैश्विक कारोबार की दुर्गति ट्रम्प की जिद की वजह से हो रही है। ईरान से हमारे रिश्तों की किरकिरी की मुख्य वजह भी कारोबार है। यह दुरूस्त हो जाए तो ईरान, मुसलमानों की फिक्रमंदी वाला ब्रह्मास्त्र चलाना बंद कर देगा। पहले भी भारत-ईरान की कूटनीति में रूठने-मनाने का सिलसिला रहा है।

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