गरीब प्रवासी मजदूरों के लिए आफत बनकर आया लॉकडाऊन

कोरोना महामारी से बचाव के लिए लगाया गया लॉक डाऊन गरीब-मजदूरों के लिए आफत बनकर आया है। इससे जहां मजदूर अपनी दैनिक मजदूरी से हाथ धो बैठे, वहीं उनको दर-बदर की ठोकरें खाने को भी विवश होना पड़ा। हालांकि लॉक डाऊन का प्रभाव सभी वर्गो पर पड़ा है लेकिन एकाएक प्रतिदिन हजारों, लाखों मजदूर पैदल ही भूखे-प्यासे अपने घरों को जाने लगे। इनमें गर्भवती महिलाएं, छोटे-छोटे बच्चे, बीमार व बुजुर्ग भी थे। जिन्हें यह भी नहीं पता था कि वह जिस रास्ते पर निकले है उस पर चलकर कितने दिनों में अपने घर को पहुंच पाएंगे। सरकार ने सभी का पेट भरने की बड़ी-बड़ी बातें की लेकिन इस वर्ग के लिए मददगार तो समाज-सेवी संस्थाएं व गांव वाले बने जिन्होंने भूखे पेट जा रहे इन सब लोगों को भोजन व आश्रय उपलब्ध करवाया। ये मजदूर उतर प्रदेश, झारखंड, बिहार, बंगाल आदि कई राज्यों के थे। जोकि यहां पर दिहाड़ी पर काम कर रहे थे लेकिन जब सब तरह का काम ही बंद हो गया तो इनके लिए परेशानी खड़ी हो गई। इनको जो विकल्प बेहतर सूझा वह था केवल ‘घर वापिसी’ चाहे उसके लिए चाहे जैसी ही व्यवस्था बन पड़े। जो जिसको उचित लगा, कोई पैदल निकल पड़ा, कोई साईकिल पर,  तो कोई अन्य किसी विकल्प से घर पहुंचने का जुगाड़ करने लगा। सभी मजदूर निकल पड़े अन्जान रास्तों पर सिर पर अपने परिवार की बची-खुची संपति की गठरी को उठाए हुए। कई जगह नियति ने भी परीक्षा ली। कभी औरंगाबाद जैसी बड़ी रेल दुर्घटना घटी तो कभी रात में हुई बरसात के कारण बस क्यू शैल्टर के नीचे दबने से मौत मिली। मजूदरों के लगातार पलायन पर राजनीति भी खूब हुई। सभी दलों ने अपने अपने तरीकों से इनका प्रयोग भी सियासी रोटियों सेंकने के लिए किया। प्रवासी मजूदरों के नाम पर केन्द्र व राज्य सरकारों में भी बड़े टकराव देखने को मिले। कई जगह इन मजदूरों को घर न भेज पाने की स्थिति में मजदूर पुलिस व प्रशासन से भिड़े। 
सरकार बस व ट्रेन चलाने की बात कह मजूदरों को रोकने का प्रयास करती रही लेकिन भूखे व बिना आश्रय के वह कितने दिन रह पाते। वहीं कहा यह भी जा रहा है कि कई बड़े  पूंजीपतियों व उद्योगपतियों ने भी सरकार पर दबाव बनाया कि अगर यह सब अपने घर चले गए तो उनके यहां काम कौन करेगा। उनके कारोबार ठप्प हो जायेंगे। लेकिन वह भूखा-प्यासा, बेबस कब तक सरकारी मदद की प्रतीक्षा करता। वह पैदल ही अपनी किस्मत लिखने के लिए सड़क पर चला आया। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र्र, हिमाचल प्रदेश जैसे अनेक राज्यों से यह मजूदर पैदल ही अपने घरों की ओर कूच कर गए। इनकी बड़ी तादाद देख लगता है कि इनके राज्यों की राज्य सरकारें किस दम पर अपने राज्यों को कल्याणकारी राज्य कहती है। जबकि उनके राज्यों की अधिकाशं जनता बाहरी राज्यों में निवास कर अपना भरण-पोषण कर पा रही है। सही में भरण-पोषण ही कहा जा सकता है क्योंकि इनके पास तो बचत के रूप में कुछ भी धनराशि नहीं है। यह तो हर रोज कुआं खोदते है और पानी पीते है। रहने का आश्रय भी किसी तरह से कर पाते है। 2020 के जिस भारत देश को विश्व गुरु बनाए जाने की बातें सरकारें करती आ रही है। लेकिन मजदूरों की इस व्यथा व उनकी अवस्था देखकर तो यही लगता है कि भारत को अभी विकसित राष्ट्र बनने में कईयों साल लगेंगें और वह भी तभी सही मायनों में बन पायेगा जब सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञ सही नीयत से इस बारे में सोचकर कार्य करने लगेंगे। 

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