महामारी से आहत लोगों के साथ कर्ज के पैकेज का छल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह मान लिया है और बता भी दिया है कि कोरोना महामारी का स्वास्थ्य सेवाओं के स्तर पर मुकाबला करने के लिए उनकी सरकार जितना कर सकती थी, वह कर चुकी है। अब इससे ज्यादा की अपेक्षा सरकार से न रखी जाए। आर्थिक पैकेज का ऐलान करने के लिए राष्ट्र से मुखातिब हुए प्रधानमंत्री का पूरा जोर ‘आत्मनिर्भरता’ पर रहा। यही वजह रही कि उनके पूरे भाषण में न तो ‘अस्पताल’ शब्द का जिक्र आया, न ‘इलाज’ शब्द का और न ही कोरोना वारियर्स अर्थात डॉक्टर, नर्स और अन्य लोगों का।पिछले 55 दिनों के दौरान कोरोना वारियर्स के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने (अघोषित तौर पर आतिशबाजी भी) और अस्पतालों पर सेना के विमानों से फूल बरसाने तथा अस्पतालों के सामने सेना से बैंड बजवाने जैसे ईवैंट भव्य पैमाने पर करवा चुके प्रधानमंत्री मोदी ने इस बार के अपने भाषण में डॉक्टर, नर्स, पुलिस और फ्रंटलाइन पर खड़े अन्य कोरोना वारियर्स का एक बार भी जिक्र नहीं किया। हां, भारत से विदेशों को भेजी जा रही दवाओं का जिक्र उन्होंने ज़रूर किया।प्रधानमंत्री मोदी ने वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के हवाले से यह तो माना कि कोरोना वायरस लंबे समय तक हमारे जीवन का हिस्सा बना रहेगा, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि हम उसका मुकाबला कैसे करेंगे। वह यह बता भी नहीं सकते थे, क्योंकि वह जानते हैं कि उनकी सरकार ने कुल जीडीपी का महज 1.3 फीसद ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का प्रावधान बजट में किया है, जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।
जिस आर्थिक पैकेज को प्रधानमंत्री ने ‘आत्म-निर्भर भारत’ का प्रस्थान बिंदू बताया है, उसकी असलियत भी सामने आना शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के पैकेज को देश की जीडीपी का दस फीसद बताया है। भारत का इस साल का बजट 30 लाख करोड़ रुपए का है। अगर कथित राहत पैकेज इस से अलग है तो दोनों का जोड़ 50 लाख करोड़ रुपए हो जाता है जो 200 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी का 25 फीसदी होता है। सवाल है कि अगर 50 लाख करोड़ यानी जीडीपी का 25 फीसदी बजट खर्च हो जाएगा तो सरकार अतिरिक्त पैसा कहां से लाएगी? राजस्व की उगाही पहले ही लक्ष्य से बहुत कम हो रही है और अब कोरोना महामारी के चलते तो उसमें भी और कमी आना तय है। अगर सरकार विश्व बैंक से कर्ज लेती है तो उसे चुकाएगी कहां से?ज़ाहिर है कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित जिस आर्थिक पैकेज को राहत पैकेज के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, वह वास्तव में ऐसे कर्ज का पैकेज है, जिस पर एक निश्चित अवधि के बाद कर्ज लेने वाले को ब्याज भी चुकाना होगा। संभवत: इसीलिए प्रधानमंत्री ने पैकेज की विस्तार से जानकारी खुद न देते हुए यह काम वित्त मंत्री के जिम्मे कर दिया। प्रधानमंत्री के भाषण के एक दिन बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पैकेज के बारे में पहले, दूसरे और तीसरे चरण में जो जानकारी दी है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि यह पैकेज गरीबों, किसानों और मध्य वर्ग के लिए एक झुनझुने से ज्यादा कुछ नहीं है। जिन लोगों को आर्थिक मदद की तत्काल ज़रूरत है, जो सड़कों पर भूखे घूमते हुए भोजन की तलाश कर रहे हैं, उनके लिए इस पैकेज में कोई प्रावधान नहीं है।22 मार्च के जनता कर्फ्यू से लेकर अब तक जारी लॉकडाउन के दौरान वैसे तो समाज के हर तबके को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन सबसे दर्दनाक दुश्वारियों का सामना गरीबों और बड़े शहरों से पलायन कर अपने घरों को लौटने वाले प्रवासी मज़दूरों ने किया है।दुनिया के किसी भी देश में कोराना महामारी के दौरान इतने बड़े पैमाने पर आबादी का पलायन नहीं हुआ है, जितना बड़ा भारत में हुआ है और अभी भी हो रहा है। सिर पर सामान की गठरी, गोद में बच्चों को और पीठ पर बूढ़े मां-बाप को लादकर सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने और इस दौरान भूख-प्यास के साथ ही कई जगह पुलिस की मार सहते हुए प्रवासी मज़दूर इस कोरोना महामारी के दौर में सिर्फ  ‘गौरवशाली भारत’ में ही दिखाई दे रहे हैं। मगर प्रधानमंत्री के भाषण में इन मज़दूरों की दशा को रत्तीभर स्थान नहीं मिल सका। और तो और, पुलिस की मार से बचने के लिए रेल की पटरियों के सहारे अपने गांव लौटते जो मज़दूर रास्ते में ही मौत का शिकार हो गए, उनके बारे में भी प्रधानमंत्री के लम्बे भाषण में संवेदना के दो शब्द अपनी जगह नहीं बना पाए। यही नहीं, पलायन शब्द का तो उन्होंने अपने पूरे भाषण में एक बार भी इस्तेमाल नहीं किया।प्रधानमंत्री मोदी जवाहरलाल नेहरू के न सिर्फ  कटु आलोचक हैं बल्कि वह अक्सर कर्कश शब्दों में उनकी निंदा भी करते रहते हैं। लेकिन अपने इस भाषण में उन्होंने नेहरू का नाम लिए बगैर उनके आत्मनिर्भरता के नारे को अपनाने से कोई परहेज़ नहीं किया। उन्होंने अपने पूरे भाषण के दौरान 29 मर्तबा ‘आत्म-निर्भर’ शब्द का इस्तेमाल किया और हर क्षेत्र में आत्म-निर्भरता पर ज़ोर दिया।‘आत्मनिर्भरता के साथ आर्थिक विकास’, यह नेहरू की नीति थी, जिसकी घोषणा उन्होंने 1956 में दूसरी पंचवर्षीय में की थी। नेहरू के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की अल्पकालीन सरकार में भी लगभग इसी नीति पर अमल होता रहा, लेकिन 1991 में पीवी नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री बनते ही इस नीति को शीर्षासन करा दिया। उसके बाद की सभी सरकारें भी नरसिंहराव के अपनाए गए रास्ते पर पूरी शिद्दत से चलती रहीं। नरेंद्र मोदी ने भी कोई नया रास्ता नहीं अपनाया, बल्कि उन्होंने तो कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों के दरवाजे 100 फीसदी विदेशी निवेश के लिए खोल दिए। यह और बात है कि पिछले छह सालों से देश में सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव के चलते सरकार निवेशकों को आकर्षित करने में नाकाम रही है। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन और उनके द्वारा घोषित आर्थिक पैकेज निराशाजनक ही रहा, जिसमें मूल समस्या को नज़रअंदाज करते हुए और अपनी सरकार की अभी तक की नाकामी को भी शब्दों और आंकड़ों के मायाजाल से कामयाबी बताने का उपक्रम किया गया है। इसे सरकार की नाकामी का इऩ्कबालिया बयान भी कहा जा सकता है। (संवाद)