डरा कर कमाने वाले रामसे ब्रदर्स के अनसुने किस्से

सिंध प्रांत, जोकि अब वर्तमान पाकिस्तान में है, में रामसे परिवार, जिसका वास्तविक सरनेम रामसिंघानी है, का संबंध एक व्यापारी परिवार से था और वह 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में कराची व लाहौर में इलेक्ट्रॉनिक शॉप्स चलाया करता था, जिन पर रेडियो सेट्स बेचे जाते थे। 1947 में जब देश का विभाजन हुआ, तो रामसे परिवार को भी अपना मूल वतन छोड़ना पड़ा। इस तरह बिना किसी साज़-ओ-सामान और पैसे के फतेहचंद यू रामसे (एफयू रामसे) को अपने बड़े परिवार के साथ बॉम्बे (अब मुंबई) में शरण लेने के लिए मज़बूर होना पड़ा। उनके परिवार में एक पत्नी, सात बेटे और दो बेटियां थीं। मुंबई में फतेहचंद ने रेडियो सेट्स व इलेक्ट्रॉनिक गुड्स के उसी निर्माता से डीलरशिप का समझौता किया, जो कराची में उनका सप्लायर था और लमिंगटन रोड पर उन्होंने अपने बड़े बेटों के साथ मिलकर एक छोटी सी इलेक्ट्रॉनिक शॉप खोल ली। हालांकि उनकी दुकान अच्छी चल निकली, लेकिन परिवार काफी बड़ा था, उसकी ज़रूरतें ज्यादा थीं, इसलिए अच्छी आमदनी भी अपर्याप्त थी, कम पड़ जाती थी। फतेहचंद व्यापार का विस्तार करने के बारे में सोचने लगे।
आज की तरह उस समय भी मुंबई भारत के मनोरंजन उद्योग का केन्द्र था। यह तो स्पष्ट नहीं है कि फतेहचंद के लिए फिल्मी दुनिया में प्रवेश करने की असल वजह क्या थी, लेकिन प्रबल संभावना यह है लॉटरी-लगने (यानी जल्द मोटा पैसा कमाने) जैसे आकर्षण ने उनका रुझान बॉलीवुड की ओर कर दिया। फतेहचंद ने अन्य सिन्धी शरणार्थियों के व्यापारी समूह की सदस्यता ग्रहण की और 1954 में ‘शहीद-ए-आज़म भगत सिंह’ नामक फिल्म का निर्माण किया। हालांकि इस फिल्म में मुहम्मद रफी की आवाज़ में ‘सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जैसा कालजयी गाना था, लेकिन यह बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप हो गई। बहरहाल, फिल्मों से मोटी कमाई का आकर्षण अधिक था, इसलिए लम्बे अंतराल के बाद फतेहचंद ने एक बार फिर फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा और ‘रुस्तम सोहराब’ (1963) व ‘एक नन्ही मुन्नी लड़की थी’ (1970) फिल्में बनायीं। यह फिल्में भी फ्लॉप साबित हुईं और रामसे ब्रदर्स पर काफी कज़र् हो गया।
बहरहाल, ‘एक नन्ही मुन्नी लड़की थी’ का एक सीन फतेहचंद व उनके रामसे ब्रदर्स बैनर के लिए प्रेरणा का स्रोत बना और उनकी किस्मत बदल गई बल्कि यूं कहा जाये कि उनकी लॉटरी लग गई। इस सीन में पृथ्वीराज कपूर चोरी करने के लिए शैतान का मुखोटा लगाते हैं और मुमताज़ को डराते हैं। हालांकि यह फिल्म तो न चली थी, लेकिन इसके ‘शैतान’ सीक्वेंस को दर्शकों ने बहुत पसंद किया था। इससे फतेहचंद को हॉरर (डरावनी) फिल्में बनाने की प्रेरणा मिली, जोकि बाद में रामसे ब्रदर्स की विशेष पहचान बन गई। फतेहचंद की बेटी आशा ने उन्हें एक कहानी सुनायी थी, उसी पर उन्होंने व उनके बेटों ने 1972 में ‘दो गज़ ज़मीन के नीचे’ फिल्म बनायी। इस फिल्म का रेडियो पर आधा-घंटे के लेट-नाईट शो में विज्ञापन किया गया, जिससे इसके रिलीज़ होने पर सिनेमाघरों में ‘हाउसफुल’ के बोर्ड लगने लगे। यह फिल्म मामूली बजट पर बनायी गई थी और इसकी अपार सफलता ने न सिर्फ रामसे ब्रदर्स के दिन हमेशा के लिए पलट दिए बल्कि हॉरर फिल्मों का ट्रेंड भी शुरू कर दिया। बाद में रामसे ब्रदर्स ने लगभग 30 हॉरर फिल्में बनायीं, जिनमें ‘वीराना’, ‘पुराना मंदिर’, ‘बंद दरवाज़ा’, ‘तहखाना’, ‘पुरानी हवेली’ आदि काफी कामयाब हुईं। 
उन दिनों सामान्य हिंदी फिल्में लगभग 50 लाख रूपये के बजट से तैयार की जाती थीं और उनके निर्माण में कम से कम एक वर्ष का समय लगता था। ‘दो गज़ ज़मीन के नीचे’ मात्र 3.5 लाख रूपये से सिर्फ 40 दिन में तैयार कर ली गई और इसने 45 लाख रूपये की कमाई की। कम खर्च व कम समय के फार्मूले ने रामसे ब्रदर्स को काफी मुनाफा कराया। चूंकि फतेहचंद के परिवार के सदस्य ही फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं को संभालते थे, इसलिए प्रोडक्शन कास्ट अपने आप ही काफी कम हो जाता था। उनका फिल्म निर्माण का फार्मूला बहुत सरल था। पूरा परिवार व कुछ स्माल-टाइम कलाकार बसों में भरकर लोकेशन पर चले जाते, वहां सरकारी गेस्ट हाउस में सस्ते में रहने के लिए कमरे बुक कराते और फिल्म बनानी शुरू कर देते। चूंकि वह लोकेशन पर शूटिंग करते थे, इसलिए सेट्स पर खर्च नहीं करना पड़ता था। वह कास्ट्यूम पर भी खर्च नहीं करते थे कि एक्टर्स की वार्डरॉब से ही कपड़ों का चयन कर लिया जाता था। फिल्म निर्माण के सभी विभागों की ज़िम्मेदारी सातों भाइयों में वितरित थी, मसलन गंगू रामसे, जिनका 83 वर्ष की आयु में 7 अप्रैल, 2024 को मुंबई में निधन हुआ, सिनेमेटोग्राफर की भूमिका निभाते थे। कुमार रामसे पटकथा लिखते थे, किरण रामसे साउंड डिपार्टमेंट देखते थे, केशु रामसे की ज़िम्मेदारी प्रोडक्शन की थी, अर्जुन रामसे एडिटर थे और श्याम रामसे व तुलसी रामसे निर्देशन करते थे। उनकी फिल्में हॉरर, रोमांस व कॉमेडी का मिश्रण हुआ करती थीं, जो 70 व 80 के दशक में काफी पसंद की जाती थीं। रामसे ब्रदर्स की 1994 में ‘महाकाल’ फिल्म आयी थी, वह भी सफल रही।
रामसे ब्रदर्स के जीवन व फिल्मों का अटूट हिस्सा थे एक्टर अजय अग्रवाल। एक मैडीकल समस्या के कारण उनका चेहरा बिगड़ गया था, इसलिए भूत की भूमिका स्वाभाविक रूप से उनके लिए उचित हो गई और रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में वह हॉरर का चेहरा हो गये। इन भूमिकाओं से अजय इतने विख्यात हुए कि अपनी ही सफलता का दास बन गये। वह अपने अंदर के कलाकार को एक्सप्लोर करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ में डाकू की भूमिका भी निभायी।                     

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