अशांति का कारण
एक वृद्ध महात्मा थे। नगर के बाहर जंगल में एक सुन्दर-सी कुटिया बना रखी थी। कुटिया के चारों ओर फल फूलों के वृक्ष और पौधे उगे हुए थे। पास से कल कल करती हुई नदी बहती थी। बड़ा मनोरम दृश्य था।
महात्मा अधिकतर समय ईश्वर साधना में ही लीन रहते थे। उनके तीन शिष्य थे। उनमें से गोपीनाथ नाम का शिष्य उन्हें परमप्रिय था। तीनों बारी-बारी से भिक्षा के लिये जाते थे। महात्मा तो कभी कभार ही भिक्षार्थ निकलते थे। वे भिक्षा में अन्न और वस्त्र ही ग्रहण करते थे। रूपया-पैसा नहीं लेते थे।
एक दिन उनका परम प्रिय शिष्य गोपनाथ महात्मा जी से बोला-‘गुरुदेव, मुझे अपने गांव गये काफी समय बीत गया है। समाचार आया है कि मां बीमार है। उनकी सुध लेना भी मेरा परम धर्म है। यदि आप आज्ञा दें तो कुछ समय के लिये मैं गांव हो आऊं?’
महात्मा ने कहा-‘पुत्र, यह तो बड़ी अच्छी बात है। माता पिता की सेवा करना तो संतान का परम धर्म और कर्त्तव्य है। तुम अवश्य गांव जाओ।
चलते समय शिष्य गोपीनाथ महात्मा से बोला-‘गुरुदेव, मेरे पास चांदी के पचास सिक्के हैं। उनमें से आधे सिक्के आप रख लीजिये, आवश्यकता पड़ने पर काम आएंगे।
महात्मा ने कहा-‘नहीं पुत्र धन का मुझे क्या करना है? भिक्षा में आवश्यकता की सभी सामग्री तो गृहस्थों से प्राप्त हो जाती है। चांदी के सिक्के तुम अपने पास ही रखो। इन्हें मां-बाप की सेवा में खर्च करना।’
लेकिन गोपीनाथ नहीं माना। उसने महात्मा के बिस्तरे के सिरहाने छोटा सा गड्डा खोदते हुए कहा-‘गुरुदेव, मैं आधे सिक्के आपके सिरहाने गाड़ कर जा रहा हूं। आवश्यकता पड़ी तो निकाल लीजिये नहीं तो मैं वापस आकर इन्हें निकाल लूंगा।’
गोपीनाथ गुरु के चरणों में नतमस्तक होकर उनसे विदा ले गांव की ओर चला गया।
सिक्के महात्मा की अशांति का कारण बन गये। जब वे भिक्षा के लिये जाते तो उनके मन में शंका उठ खड़ी होती कि सिक्कों को कोई चोर निकाल कर न ले जाये? इसलिये उन्होंने सिक्कों को खोदकर बाहर निकाल दिया और एक पोटली में बांध कर रख लिया। जब वे भिक्षा के लिये जाते तो पोटली को साथ लेकर जाते। वापस आकर फिर गड्डे में गाड़ देते थे। सिक्कों के कारण उनकी रात की नींद भी हराम हो गई थी।
वृद्ध शरीर था, एक दिन महात्माजी बीमार पड़े और शरीर त्याग दिया।
महात्मा जी के मरणोपरान्त रात्रि में एक घटना घटने लगी। सारी रात खट-खट की आवाज़ आती रहती। लगता जैसे कोई खडाऊं पहन कर इधर-उधर घूम रहा है। दोनों शिष्य डर के मारे सो नहीं पाते थे। भय था कि यह कोई भूत प्रेत है लेकिन इस बात से आश्वस्त थे कि चाहे कोई भी हो पर किसी को कोई दुख नहीं देता।
एक दिन उनका परम प्रिय शिष्य गोपीनाथ भी गांव से लौटकर आ गया। उसे महात्मा जी के स्वर्गवासी होने का पता चला तो बड़ा दुखी हुआ। दोनों शिष्यों ने उसे रात में होने वाली खट खट की आवाज के विषय में बताया तो उसे यकीन नहीं आया।
आधी रात बीती, तीनों शिष्य विश्राम कर रहे थे। तभी खडाऊं पहने किसी व्यक्ति के चलने फिरने की आवाज़ सुनाई पड़ी। गोपीनाथ बोला-‘अरे, यह तो गुरुदेव की खडाऊं की आवाज है।’
गोपीनाथ ने प्रार्थना की-हे गुरुदेव, आप तो महात्मा थे। परम पिता परमेश्वर के परम भक्त थे। आपने तो जीवन भर तप जप ही किया है। कभी किसी का अहित नहीं किया। फिर आपकी आत्मा रात्रि में इस तरह क्यों भटक रही है?’
महात्मा शिष्य को दिखाई पड़े और बोले-‘हे, परमप्रिय शिष्य, तूने मेरे सिरहाने कुछ चांदी के सिक्के गाड़े थे। प्राण त्यागते समय मेरा मन सिक्कों के मोह में फंसा रहा, इसीलिये मेरी आत्मा अभी तक उन सिक्कों के इर्दगिर्द भटक रही है। तूं उन्हें वहां से निकाल कर किसी धार्मिक कार्य में लगा दे जिससे मुझे मुक्ति मिले।’
शिष्य ने अगले दिन ऐसा ही किया। महात्मा की आत्मा फिर कुटिया के प्रांगण में नहीं भटकी।
वासनाओं में फंसे रहते हुए प्राण त्यागना दुर्गति का कारण बन जाता है। ‘जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है। मरो तो ऐसे, जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं।’ (उर्वशी)



