‘म’ से बने मंत्री... और मोनालिसा भी!

पता नहीं, क्या रहस्य है इस ‘म’ शब्द में... अंक शास्त्री ‘म’ को अंक 9 जैसा शक्तिशाली मानते हैं। ‘म’ से ‘मैं’, ‘म’ से मंत्री। मंत्री भी बेहद ताकतवर होता है, और ‘मैं-मैं’ तो हर कोई करता है। ‘म’ से मोनालिसा भी तो बनता है। सचमुच बड़ी रहस्यमय मुस्कान की मलिका रही होगी मनोलिसा... तभी आज भी, जब भी उसकी तस्वीर की ओर देखो, एक रहस्यपूर्ण मुस्कान का लबादा ओढ़े हुए दिखती है। इस एक तस्वीर के संबंध में उतने ही किस्से जोड़ दिए गए हैं, जितने इस देश की राजनीति में प्राय: जुड़ते रहते हैं। इस देश की राजनीति की रहस्य-पिटारी में बड़े-बड़े घोटालेबाज़ बैठे हैं। कमाल यह भी है कि बड़े-बड़े चाराखोर हैं, तो चारागर भी बहुत हैं। सत्ता का कैसा भी जुगाड़ हो, बीन की धुन से घुमा लाते हैं। खाने वाले खाद-बीज भी खा गये, और दूसरी ओर किसान बेचारा गम खा-खा कर अपनी जान पर खेल-खेल जाता है। है न यह घोर आश्चर्य! जीने की चाह वाला मरता है, और जिसे जीने का शऊर तक नहीं पता, वह जिये जाता है। इस देश की राजनीति का कमाल यह भी है कि यहां जो भी आया, मंत्रि-पद पाकर और से और ताकतवर हुआ, परन्तु जो भी निकला इस बज़्म, से परीशां होकर निकला। राजनीति वो चक्र-व्यूह है जिसमें आना तो बेहद आसां है, परन्तु निकलना बहुत मुश्किल यानि... ‘छुटती नहीं है  काफिर, मुंह से लगी हुई।’
इस देश की राजनीति का एक कमाल यह भी है कि इसमें ‘म’ नाम वाली जितनी भी महिला नेत्रियां हुई हैं, बड़ी पावरफुल सिद्ध हुई हैं। उदाहरणतया, ‘म’ से ममता बैनर्जी यानि ममता दीदी। ‘म’ से माया बहिन जी हैं, और जया अम्मा भी ‘म’ प्रधान रहीं। साध्वी उमा भारती भी इसी ‘म’ से परवान चढ़ी हैं। ममता दीदी हठ पर अड़ती हैं, तो आकाश से तारे तोड़ लाने तक को व्यग्र हो जाती हैं। जया अम्मा भी जब तक जीवित रहीं, सत्ता उनकी चेरी रही। माया बहिन जी भी राजनीति को अपने घर की दासी बना कर रखना चाहती हैं। साध्वी उमा जी आजकल बेशक साधना की दहलीज़ के भीतर तक सीमित हैं, परन्तु जब तक सक्रिय राजनीति में रहीं, कोई न कोई कोप-भवन उनका पथ-वाहक रहा। जब भी बोलतीं, एक नया विवाद स्वत: जन्म ले लेता। एक बार तो उन्होंने यहां तक धमकी दे दी थी कि यदि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने दिया गया, तो वह आत्म-दाह कर लेंगी। वैसे, एक वह ही ऐसा कह सकती हैं, क्योंकि वह नेता हैं, साध्वी हैं, सांसद भी रही हैं। किसी आम आदमी ने ऐसा कहा होता तो उसे आत्म-हत्या की धमकी देने के आरोप में कब का धर लिया गया होता। बहुत पहले जब स्कूल में पढ़ते थे, तो एक अध्यापक होते थे...नाम था मास्टर छज्जू राम। यह मास्टर जी उनके नाम के साथ ऐसे जुड़ गया था जैसे तीतर के साथ बटेर। वह जब पढ़ाते थे, तो बेहद लयबद्ध होकर... बाकायदा संगीत की तर्ज पर। उनका अन्दाज़ भी बेहद शायराना होता। बच्चों से कहते, बोलो बच्चो ‘अ’ से ... और फिर स्वयं सस्वर अन्दाज़ में बोलते—अनार। बच्चे भी उनके साथ उसी लय में बोला करते, परन्तु जब वह ‘प’, ‘फ’ से आगे ‘म’ पर पहुंचते, तो उनके ‘म’ कहने के साथ ही कुछ बच्चे बीच में ही बोल देते—‘म’ से मास्टर जी। बहुत स्वाभाविक है कि इसके बाद पढ़ाई भी बंद हो जाती, और कुछ बच्चों को मुर्गा भी बनना पड़ता। मोनालिसा की मुस्कान की न्याईं ही रहस्यपूर्ण होती हैं हमारे मौसम विभाग की भविष्यवाणियां। मौसम विभाग जब कहता है कि वर्षा होगी तो सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जहां छींटे पड़ने की बात कही जाती है, वहां जल-थल हो जाता है। विभाग जब कहे कि मौनसून जल्दी आने वाला है, तो समझ लेना चाहिए कि मौनसून के आगमन में देरी होगी। मौसम के मिज़ाज को यदि वैज्ञानिक नहीं समझ सगके तो आम आदमी कैसे समझ सकता है। कभी-कभी ऐसा भी मौसम आ जाता है कि खेतों की एक मुंडेर के एक ओर वर्षा हो रही होती है, तो दूसरी ओर धूप खिली होती है। भारत की धरती पर वैसे भी मौसम पल-पल बदलता रहता है।
चलिये, एक बार फिर ‘म’ से मंत्री पर आते हैं। इस देश में जब कोई मंत्री बन जाता है तो समझो, उसकी कई पीढ़ियों की ़गरीबी कट गई। कई-कई जन्मों के उसके पाप बस, एक कुर्सी मिलने से कट जाते हैं। है न यह एक करिश्मा! कभी समय था जब राजनीति में आने वालों का एकमात्र लक्ष्य समाज-सेवा होता था। उनके पास समय भी होता था, स्रोत भी, साधन भी और सुविधा भी। वे जागते रहते थे, ताकि उनके लोग सो सकें। किन्तु आज के नेताओं के पास तो फुर्सत ही नहीं है। आज राजनीति व्यवसाय हो गई है, प्रतिस्पर्धा— बाप मंत्री है, तो बेटा विधायक है, और पोते ने अपना अलग राजनीतिक दल ही गठित कर लिया है। आज राजनीति में जाने का एकमात्र अर्थ होता है सांसद, विधायक या फिर पार्षद बनना, और फिर जैसे-कैसे भी हो जोड़-तोड़ करके मंत्री पद प्राप्त करना। यह न हो, तो किसी बोर्ड अथवा निगम का चयरमैन बन जाना, या फिर महापौर बन जाना, या पार्षद ही बन जाना। आजकल तो पार्षद पति और पार्षद पत्नी का भी ज़माना है। पंजाब की ग्रामीण फिज़ाओं में कभी एक पंजाबी गीत का यह मुखड़ा बड़ा गुनगुनाया जाता था—‘ऐवें आवीं न कटा के नावां, वे कौन आखू हौलदारनी।’ बस, एक बार मंत्री बन गए तो फिर कई-कई पीढ़ियों का हो गया कल्याण। जनता जाए भाड़ में। लोगों का क्या है, लोग तो भेड़ जैसे होते हैं, भीड़ भी होते हैं—नारे लगाने वाले, भाषण सुनने वाले। लोग भाषण सुनते हैं, नेता भाषण देते हैं। भीड़ तो कीड़े-मकौड़ों जैसी होती है। भीड़ मंत्री बना सकती है, बन नहीं सकती। वैसे भी मंत्री के पास जिस प्रकार की चालाकी चाहिए, वह आम आदमी के पास नहीं होती। मंत्री होने के लिए आदमी को तोता-चश्म भी होना चाहिए। मिट्ठू मियां की भांति उसे अपनी आंखों की पुतलियों को घुमाने का तरीका भी आना चाहिए। जो जितनी जल्दी आंखें फेर लेता है, वह उतना ही सफल मंत्री कहलाता है। कुछ राजनीतिज्ञ ऊपर से जितना उदार, मासूम, सौहार्दपूर्ण और मैत्रीभाव से पूर्ण दिखते हैं, अन्दर से उतना ही अनुदार, कपटी, विरोधी और शत्रुता-भाव ले ग्रस्त होते हैं।  कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कोई एक भला-चंगा आदमी, भला-मानुस, उदार-मना, उदार-चेता, हिताभिलाषी शख्स एक ही रात में राजनीतिज्ञ बन कर इतना अनुदार, अशिष्ट, असभ्य और अहंकारी कैसे हो जाता है। इस एक तथ्य के उदाहरण बकौल तस्वीर-ए-मोनालिसा...एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं। मंत्रियों एवं राजनीतिज्ञों की खूबियों पर वैसे तो पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है, परन्तु उनमें यह एक गुण जैसे सभी में साझा होता है—वे कहते कुछ हैं, और करते कुछ हैं। नाम पर उनके घर में चाहे कुल जमा 37 रुपये निकलें, किन्तु देश के दो-तीन बड़े शहरों में उनके बेनामी होटल अथवा बगीचे अवश्य होते हैं। अनेक बड़े शहरों में फ्लैट, कोठियां, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं भी बन जाती हैं, किन्तु उनके पुराने मकान की एक ईंट भी नहीं बदलती ताकि वे कह सकें—देख लीजिए, हमारे पास तो रहने को घर भी नहीं है। इतना कुछ पास होने पर भी इनके अपने नाम पर अथवा अपनी पत्नी, अपने बेटे-बेटी के नाम लाखों-करोड़ों रुपये का बैंक ऋण भी अवश्य होता है। जैसे कला विशेषज्ञ मोनालिसा की मुस्कान में छिपे रहस्य को आज तक भी खोजते चले आ रहे हैं, जैसे मौसम विज्ञानी आज भी मौसम के रहस्यों की परतें उघाड़ते रहते हैं। 
जैसे पक्षी विज्ञानी अभी भी मियां मिट्ठू (तोते) की आंख के थेवे का रहस्य नहीं पा सके, वैसे ही मनोवैज्ञानिक आज भी इस रहस्य का पता लगाने में जुटे हैं कि आखिर क्या कारण है कि एक अच्छे-भले आदमी के मंत्री बनते ही उसकी आंखों में तोते का थेवा जा कर कैसे जम जाता है। ...वह आंख को झपकता ही नहीं।