दिव्यांगों के प्रति सोच बदलने की ज़रूरत

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के रूप में 3 दिसम्बर का दिन तय किया गया था। इस दिवस को समाज और विकास के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों और कल्याण को बढ़ावा देने और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के हर पहलू में दिव्यांग लोगों की स्थिति के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। दिसम्बर 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांगों को ‘दिव्यांग’ कहने की अपील की थी, जिसके पीछे उनका तर्क था कि किसी अंग से लाचार व्यक्तियों में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। तब से भारत में हर जगह विकलांग के स्थान पर दिव्यांग शब्द प्रयुक्त होने लगा है। हमारा देश भारत विकासशील देशों की गिनती में आता है। विज्ञान के इस युग में हमने कई नई ऊंचाइयों को छुआ है। लेकिन आज भी हमारे देश, हमारे समाज में कई लोग हैं जो हीन दृष्टि झेलने को मजबूर हैं। आज समाज दिव्यांगों के लिए एक बेहतर जीवन और समाज में समान अधिकार के लिए आवाज बुलंद कर रहा है। लेकिन इसी बीच एक सच्चाई यह भी है कि भारत में दिव्यांगों को आज भी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। आज दुनिया में करोड़ों व्यक्ति दिव्यांगता के शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है, क्योंकि शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाये तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सकारात्मक रहा जाये तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं। दिव्यांगता से ग्रस्त लोगों का मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार है। आज हम इस बात को समझें कि उनका जीवन भी हमारी तरह है और वे अपनी कमजोरियों के साथ उठ सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्राप्त आंकड़ों के अनुसार दुनिया के 65 करोड़ लोग दिव्यांग की श्रेणी में आते हैं। यह दुनिया की सम्पूर्ण जनसंख्या का 8 प्रतिशत है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 2.68 करोड़ दिव्यांग हैं। जिनमें 45 फीसदी दिव्यांग आबादी अशिक्षित है। जबकि पूरी आबादी की बात की जाए तो अशिक्षितों का प्रतिशत 26 है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं, उनमें 59 फीसदी मात्र 10वीं पास हैं, जबकि देश की कुल आबादी का 67 फीसदी 10वीं तक शिक्षित है। देश में दिव्यांगों के लिए सरकार ने कई नीतियां बनायी हैं। उन्हें सरकारी नौकरियों, अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है। साथ ही दिव्यांगों के लिए सरकार ने पैंशन की योजना भी शुरू की है। लेकिन ये सभी सरकारी योजनाएं उन दिव्यांगों के लिए महज एक मजाक बनकर रह गयी हैं। जब इनके पास इन सुविधाओं को हासिल करने के लिए दिव्यांगता का प्रमाण-पत्र ही नहीं है। दिव्यांगता शारीरिक अथवा मानसिक हो सकती है किन्तु सबसे बड़ी दिव्यांगता हमारे समाज की उस सोच में है जो दिव्यांग जनों से हीन भाव रखती है और जिसके कारण एक असक्षम व्यक्ति असहज महसूस करता है। देश में दिव्यांगों को दी जाने वाली सुविधाएं कागजों तक सिमटी हुई हैं। दिव्यांगों को अन्य देशों में जो सुविधाएं दी जा रही हैं उसकी एक चौथाई सुविधाएं भी हमारे देश में नहीं मिल रही हैं। अब दिव्यांग लोगों के प्रति अपनी सोच को बदलने का समय आ गया है। दिव्यांगों को समाज की मुख्य धारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे, इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान की ज़रूरत है। (संवाद)