देश की अर्थ-व्यवस्था मोदी सरकार के लिए बनेगी एक बड़ी चुनौती

मई के महीने के आखिरी दिनों में नरेंद्र मोदी की सरकार दो महत्वपूर्ण मसलों पर सोच रही थी। पहला, क्या चौथे लॉकडाउन के बाद पांचवां लॉकडाउन भी किया जाना चाहिए? दूसरा, मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा हो गया है, कोविड-19 के ज़माने में इसे कैसे मनाया जाना चाहिए? दोनों सवाल पेचीदा थे। ़खासे ऊहापोह के बाद सरकार ने दोनों के जवाब खोज लिये। उसने लॉकडाउन खोलने की कवायद शुरू कर दी। और, प्रधानमंत्री ने स्वयं अ़खबारों में देशवासियों के नाम पत्र लिख कर पहले तो अपनी लोकोपकारी योजनाएं गिनाईं, और फिर कोरोना का ‘बहादुरी और कामयाबी’ से म़ुकाबला करने के लिए अपनी सरकार की पीठ ठोंकी। हां, यह ज़रूर है कि यह आत्मप्रशंसा आम जनता के कोरोना-विरोधी पराक्रम की ताऱीफ की आड़ में की गई है। यह देख कर ताज्जुब नहीं होता कि प्रधानमंत्री के लेख में उनकी सरकार की किसी आलोचना का कोई जवाब नहीं है। उनकी और उनके समर्थकों की अघोषित मान्यता है कि आलोचनाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। कारण यह कि वे आम जनता के मूड को सरकार के प्रति नाराज़गी की तऱफ ले जाने की क्षमता से सम्पन्न नहीं हैं। मोदी सरकार के रणनीतिकार यह भी मानते हैं कि जब तक विपक्षी दलों के प्रति आम लोगों के मानस में भरोसे की कमी रहेगी, तब तक सरकार की जायज़ आलोचना से भी सरकार विरोधी भावनाएं नहीं पनपने वाली। जहां तक केंद्र की राजनीति का सवाल है, इन रणनीतिकारों का यह विश्लेषण ठीक है। लेकिन, राज्यों की राजनीति के संदर्भ में यह रवैया नाकाम होने के लिए अभिशप्त है? कोरोना-संकट से पहले की राजनीति से तो यह इशारा मिलता ही है। उसके  दौरान और बाद की राजनीति से भी मोदी सरकार के लिए एक ऐसी चेतावनी निकलती है जिसकी अभिव्यक्ति भले ही अभी मंद हो, लेकिन ज़बरदस्त आर्थिक संकट के साथ मिल कर यह राज्य स्तरीय चेतावनी मोदी और भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व के लिए दिक्कत-तलब बन सकती है। यह एक ह़क़ीकत है कि कोरोना के कारण देश भर में लॉकडाउन तो मार्च, 2020 में हुआ, लेकिन कश्मीर में उससे आठ महीने पहले से लॉकडाउन चल रहा है। देशव्यापी लॉकडाउन हटाने का सिलसिला तो शुरू हो गया है, लेकिन कश्मीर का लॉकडाउन हटने की स्थितियों की अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अकसर नरेंद्र मोदी की ताऱीफ में लिखने वाली एक वरिष्ठ स्तम्भकार ने भी टिप्पणी की है कि कश्मीर में घरबंदी के भीतर एक घरबंदी चल रही है, और सरकार इसे खोलने की किसी भी योजना से कोसों दूर है। इस घरबंदी के कारण सरकार को इतनी कामयाबी ज़रूर मिली है कि घाटी की सड़कों पर होने वाली हिंसा की घटनाएं पहले की तरह बार-बार नहीं हो रही हैं। लेकिन, पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी संगठनों की कार्रवाइयां बदस्तूर जारी हैं। गृह मंत्री अमित शाह द्वारा की गई कश्मीर की शल्यक्रिया के बाद मरीज़ अभी भी आईसीयू में है। इससे कम से कम एक नतीजा तो निकाला ही जा सकता है कि अगर धारा 370 के कारण कश्मीर को ‘मुख्यधारा’ से बाहर रहना पड़ रहा था, तो उसे हटाने के बाद भी वह मुख्यधारा से दूर ही है। मुख्यधारा में आने का पहला और सबसे पहला मतलब होता है- लोकतांत्रिक राजनीतिक गतिविधियों का उसी तरह से चालू होना जिस तरह वे किसी भी सामान्य भारतीय प्रदेश में चलती हैं। उत्तर-पूर्व के जिन प्रदेशों में अलगाववादी संगठन भारतीय राज्य को हिंसक चुनौतियां दे रहे थे, वहां राजनीतिक गतिविधियों का सिलसिला इसलिए चल पाया कि उन संगठनों ने चुनाव की प्रक्रिया में भाग लेना स्वीकार कर लिया। कश्मीर की स्थिति इस लिहाज़ से भिन्न है कि वहां चुनावी गतिविधियों में भाग लेने वाली पार्टियों की वैधता ही ़खत्म हो गई है। ये पार्टियां कथित आज़ादी की मांग करने वाले संगठनों और ‘कश्मीर भारत अभिन्न अंग है’ का दावा करने वाली राजनीति के बीच पुल का काम करती थीं। अब इस पुल की आवश्यकता ही खत्म हो गई है। आज की ताऱीख में यह कल्पना करना मुश्किल है कि अगर निकट या दूरगामी भविष्य में कश्मीर में चुनावों की घोषणा होती भी है तो ये पार्टियां क्या कह कर घाटी के वोटरों के बीच जाएंगी। दरअसल, कश्मीर में आज तक होती रही राजनीति पूरी तरह से शून्य हो गई है। इस शून्य को कैसे भरा जाएगा, यह भारतीय जनता पार्टी को भी नहीं पता है। अगर कश्मीर को एक विशेष मामला मान कर थोड़ी देर के लिए किनारे भी कर दें (जो हमें कतई नहीं करना चाहिए, क्योंकि धारा 370 खत्म हो जाने के बाद कश्मीर एक विशेष मामला रह ही नहीं गया है) तो भी मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल भाजपा के विचारधारात्मक एजेंडे को लागू करने और उसके कारण पैदा हुए विवादों के लिए जाना जाएगा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है नागरिकता का प्रश्न। मार्च में कोरोना के प्रकोप की शुरुआत से ठीक पहले फरवरी में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दौरे के समय राजधानी दिल्ली हिंसा के दौर से गुज़र रही थी। इस हिंसा ने 54 लोगों की जान ले ली थी। सारे देश में शाहीन बाग जैसे धरने चल रहे थे। नये नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आपस में जुड़ जाने के कारण पैदा हुए माहौल ने देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न तर्कों के आधार पर प्रतिरोध आंदोलनों की शुरुआत कर दी थी। उत्तर-पूर्व में इस आंदोलन की बागडोर असमिया हिंदुओं के हाथ में थी। उत्तर-मध्य और पश्चिमी भारत में मुख्य रूप से अल्पसंख्यक इस आंदोलन के हरावल में थे। दक्षिण भारत में तमिल हिंदू श्रीलंकाई तमिलों की नागरिकता के सवाल को ले कर उत्तेजित हो रहे थे। भाजपा ने इस आधार पर साम्प्रदायिकीकरण करने की भरपूर कोशिशें करते हुए दिल्ली के चुनाव की बाजी जीतने की कोशिश भी की पर उसमें उसे बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (राजग) को उस समय गहरी चोट पहुंची जब भाजपा की सबसे पुरानी साथी शिव सेना ने चुनाव जीतने के बाद उसका साथ छोड़ दिया, और सरकार भी छीन ली। हरियाणा में भाजपा को एक छोटे और नये राजनीतिक दल के सामने झुक कर सरकार बनानी पड़ी। इस हालत से निकलने वाले नतीजों को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है। 2014 में चुनाव जीतने के बाद भाजपा कई राज्यों में चुनाव जीतती चली गई थी। लेकिन 2019 की जीत के बाद केंद्र की सत्ता राज्यों को अपने आगोश में खींचने के मामले में लगातार चुक रही है। ‘डबल इंजन’ की सरकार का उसका तर्क नहीं चल रहा है। मोदी की श़िख्सयत विधानसभा चुनावों में अपना जादू नहीं दिखा पा रही है। यह सही है कि अभी भी केंद्रीय स्तर पर मोदी का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन, पहले से मात खाती जा रही अर्थव्यवस्था कोरोना के ज़बरदस्त धक्के के बाद अगर जल्दी ही नहीं सँभली, तो राज्यों में भाजपा के प्रति दिख रहा अनमनापन केंद्र में उसकी आरामदेह स्थिति पर बुरा असर डाल सकता है।