भविष्य में कृषि क्षेत्र की चुनौतियां

कृषि 47 प्रतिशत आबादी को रोज़गार मुहैया करती है और 65 प्रतिशत लोग आर्थिक तौर पर इस पर निर्भर हैं, जो कृषि विकास दर गिर रही है, वह चिंता का विषय है। गत दशक के अंत में डा. मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में यह विकास दर 4.3 प्रतिशत थी जो अब 2.9 प्रतिशत पर आ गई है। इसके बावजूद नरेन्द्र मोदी सरकार ने किसानों की आमदनी 2022 तक दुगुनी करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि विकास दर 10.4 प्रतिशत वार्षिक की ज़रूरत है। वर्ष 2015-16 से लेकर अब तक विकास दर में कोई वृद्धि नहीं हुई, अपितु यह कम हुई है। कृषि का भविष्य कृषि उत्पादों की कीमतें न बढ़ने और किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार मूल्य न मिलने के कारण धुंधला नज़र आता है। कृषि आमदनी बढ़ाने के लिए कई चुनौतियां सामने हैं, जो दूर करनी पड़ेंगी। कृषि खोज में बदलाव लाने की ज़रूरत है। खोज गेहूं, धान के अलावा अन्य समस्याओं और फसलों पर अधिक की जानी चाहिए। पहली हरित क्रांति के दौरान सफलता प्राप्त करके अब यह स्थिति हो गई है कि भारत अनाज (गेहूं और चावल) अपितु निर्यात कर रहा है। अब ज़रूरत अनाज सुरक्षा की नहीं, पौष्टिक सुरक्षा की है। खोजकारों को पशुपालन, बागवानी और सब्ज़ियों की काश्त, मछलियों की पैदावार तथा तेल बीज फसलों आदि की खोज की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि इन क्षेत्रों में पैदावार बढ़े। गुणवत्ता की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। भविष्य में व्यापक तपिश एक बड़ी समस्या दिखाई दे रही है। पर्यावरण गर्म होने से पहाड़ों में ग्लेशियर पिघल जाते हैं जो सिंचाई के लिए पानी मुहैया करने का स्रोत हैं। विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार तपिश में 1 डिग्री सैल्सियस पर्यावरण में तापमान बढ़ने से चावल का उत्पादन 10 प्रतिशत कम हो जायेगा। विश्व की दो तिहाई आबादी भोजन के लिए चावल पर निर्भर है। वर्ष 2050 तक तापमान 1-2 डिग्री सैल्सियस बढ़ने की सम्भावना है। खोज को ऐसे पर्यावरण को ध्यान में रखना पड़ेगा और किसानों को भी अपना फसली चक्र और सिंचाई के साधन इसके मद्देनज़र अपनाने पड़ेंगे। फसल में पानी खड़ा रखने और अधिक पानी देने के स्थान पर बूंद और छिड़काव सिंचाई के साधन अपनाने पड़ेंगे, जिसके बाद पानी की बचत होगी और उत्पादकता में वृद्धि होगी।विशेषज्ञ यह सलाह देते हैं कि पानी की खपत कम करने के लिए ट्यूबवैलों को मुफ्त दी जा रही बिजली की सुविधा खत्म करने की ज़रूरत है। इससे पानी बड़ी मात्रा में व्यर्थ होता है, परन्तु ऐसा राजनीतिक प्रशासकों के लिए करना सम्भव नहीं। विगत में जब इस संबंध में बनी विशेषज्ञों की कमेटी द्वारा यह सिफारिश की गई तो उस समय के पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने इस सिफारिश को मानने से इन्कार कर दिया और अपनी मजबूरी जाहिर की। ज़रूरत से अधिक फसलों में नाइट्रोजन देने से पानी प्रदूषित होने की समस्या है। यूरिया पर भारी सब्सिडी होने के कारण किसान फसल में यूरिया विशेषज्ञों की सिफारिशों से अधिक दर पर डालते जा रहे हैं। गेहूं में 110 किलो यूरिया की ज़रूरत है, जबकि किसान 200-225 किलो प्रति एकड़ तक यूरिया फसल को दे रहे हैं। इस संबंध में चीन और यूरोपियन यूनियन ने भी यूरिया की खपत कम करने के लिए कदम उठाये हैं। पंजाब में कृषि सचिव काहन सिंह पन्नू ने इस संबंध में विशेष मुहिम चलाई, जिसके परिणाम अभी प्रत्यक्ष होने हैं। भारत सरकार ने भी 50 किलो यूरिया थैले में डालने की बजाय 45 किलो यूरिया डालना शुरू कर दिया ताकि किसान कम से कम एक थैला प्रति एकड़ कम कर दे। इस समय भारत यूरिया विदेशों से मंगवा रहा है। इसकी खपत कम होने से विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी। भारत के कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी ने सुझाव दिया है कि मूत्र एकत्रित करके भी फसलों को नाइट्रोजन मुहैया की जा सकती है और यूरिया के आयात से मुक्त हुआ जा सकता है। पंजाब में आज तक फसली विभिन्नता के संबंध में कोई प्राप्ति नहीं हो सकी। हर वर्ष धान की काश्त निचला रकबा बढ़ता जा रहा है, जो इस वर्ष 30 लाख हैक्टेयर को पार कर गया। गेहूं की काश्त बदस्तूर 35 लाख हैक्टेयर रकबे पर हर वर्ष की जा रही है। फसली विभिन्नता लाने की कड़ी ज़रूरत है। कृषि खोज में इस संबंध में स्थिरता आ गई प्रतीत होती है। किसानों को गेहूं-धान के फसली चक्र जितनी आमदनी देने वाली फसलों की योग्य किस्में विकसित करके देने की ज़रूरत है। भारत हर वर्ष तेल बीज फसलें और तेल आयात कर रहा है। इस पर विदेशी मुद्रा खर्च की जा रही है। इस संबंध में जी.एम. तकनीक विधि अपनाने की ज़रूरत है, जिससे सरसों और तेल बीज आदि फसलों की उत्पादकता 20 प्रतिशत तक बढ़ जायेगी। नरमे में यह तकनीक अपनाने के परिणाम सामने हैं। अब बीटी नरमे पर 12-13 दवाइयों के छिड़काव के स्थान पर दो छिड़काव ही करने पड़ते हैं। इस तकनीक के आने से उत्पादकता भी बढ़ी है। किसानों का मुनाफा बढ़ने की बजाय कम हो रहा है। फसलों की उत्पादकता में आई स्थिरता पर काबू पाने की ज़रूरत है। इस समय 1 प्रतिशत उत्पादकता भी नहीं बढ़ रही जबकि कृषि खर्चों में लगातार वृद्धि हो रही है। कृषि व्यवसाय में आधी आबादी लगी हुई है। लगभग 16-17 प्रतिशत आबादी गरीबी के स्तर पर है, जिनको पेट भर कर दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती और वह भूखे ही सो जाते हैं। यह नहीं कि भारत में हुए उत्पादन में से उनको भोजन मुहैया नहीं किया जा सकता उनमें खरीद शक्ति नहीं, जिसको बढ़ाने की ज़रूरत है। मनरेगा कार्यक्रम अस्तित्व में होने के बावजूद गरीबी की समस्या है, जबकि पंजाब के कृषि घराने की आमदनी 23133 रुपए महीना है। यह आमदनी उत्तर प्रदेश में 6668 रुपए है और भारत की औसत 8931 रुपए प्रति महीने की है, जो कृषि व्यवसाय पर लोग लगे हुए हैं, उनको इससे बाहर निकाल कर अन्य व्यवसायों में रोज़गार देने की ज़रूरत है। कृषि के लिए खेत पहले ही छोटे हैं, जो वैकल्पिक हालात में व्यवहारिक नहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो छोटे और मध्यम 2 हैक्टेयर  तक के किसानों को 6,000 रुपए प्रति वर्ष का भत्ता देने का फैसला किया है, उसके लिए किन साधनों से पैसा आयेगा, इसका फैसला करना भी आने वाली भविष्य की सरकार के लिए आवश्यक होगा। अधिकतर किसान भी यही समझते हैं कि लोकसभा के चुनावों के कारण यह ऐलान किया गया है,  जो चिरकाल नहीं। इस भत्ते और ऋणों की माफी के बावजूद इसीलिए किसानों में गुस्सा और निराशा है, जो भी पार्टी अब सत्ता में आती है, उसको समूचे ढांचे का पुनर्गठन, मार्किट एक्ट में संशोधन, कीमीयाई खाद, सिंचाई और ऋणों की माफी संबंधी चिरकाल नीति बनानी पड़ेगी, ताकि कृषि व्यवसाय में उत्पादकता बढ़े और यह लाभदायक तथा व्यापारिक धंधा हो।

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