चिकित्सा सेवाओं से वंचित आम जन

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में जिन क्षेत्रों में विशेष उन्नति हुई उसमें स्वास्थ्य सेवाएं भी हैं। आज से लगभग पच्चीस वर्ष पहले तक किसी भी व्यक्ति के लिए हार्ट सर्जरी करवाना टेढ़ी खीर थी। उससे पहले भी यही सुना जाता था कि जो साधन संपन्न व्यक्ति हैं वही विदेश में और देश के दक्षिण भाग में स्थित एक बड़े अस्पताल में उपचार के लिए जाते हैं। किडनी, ब्रेन, लिवर आदि महत्वपूर्ण अंगों के नकारा हो जाने पर तो इन्हें बदलने या ऑपरेशन द्वारा सही करवाने का यहां कोई सोच भी नहीं सकता था। अब अपने देश में अधिकतर प्रांतों के प्राइवेट अस्पतालों में यह सुविधा है, पर याद रखना होगा अधिकतर सरकारी अस्पतालों में ऐसी कोई सुविधा नहीं। विदेशों से भी अब लोग भारत में उपचार करवाने आते हैं। दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले भारत में इलाज सस्ता और सहज उपलब्ध है, पर दुख यह है कि भारत जैसा देश जहां दुनिया की कुल बहुत गरीब आबादी का 33 प्रतिशत निवास करता है, उस देश के अधिकतर लोग इन अत्याधुनिक सेहत सेवाओं का लाभ ले ही नहीं सकते। इन सेवाओं से उनकी पहुंच, कल्पना से भी दूर की बात है, क्योंकि धनी व्यक्ति और जनता के वोटों पर शासक बनने वाले व्यक्ति ही इन सुविधाओं को पा सकते हैं। अब प्रश्न यह है कि रोगी की सुरक्षा क्या है? रोगी को रोग मुक्त करना, स्वस्थ रखना ही उसकी सुरक्षा है। अपने भारत देश में सभी रोगी इतने भाग्यशाली नहीं कि वे अपने रोग का उपचार करवाकर रोग मुक्त हो सकें। सही स्थिति तो यह है कि जिसे हम आम आदमी कहते हैं अथवा गरीबी रेखा के नीचे या ऊपर मानते हैं, उसकी हैसियत तो इतनी भी नहीं कि वह उचित परीक्षण करवाकर यह जान पाए कि उसे किस बीमारी ने घेरा है। जब रोग की पहचान ही नहीं तो उपचार कौन करवाएगा? भारत के रोगियों को भी आर्थिक स्थिति के आधार पर ही विभिन्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है, यद्यपि सरकारी शब्दकोष में ऐसा नहीं है। जहां तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का संबंध है, उसका क्षेत्र तो बहुत बड़ा है, लेकिन दूर गांवों में, पिछड़े क्षेत्रों में और विशेषकर भारत के सीमांत इलाकों में सेहत सेवाएं लगभग गायब रहती हैं। बड़े-बड़े महानगरों में भी सरकारी अस्पतालों में वह सब कुछ उपलब्ध नहीं जो जीवन रक्षक माना जाता है। हमारे देश में जहां लाखों नहीं, करोड़ों लोग कुपोषण का शिकार हैं, अनपढ़ हैं, दस करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर रोटी कमाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन परिवारों के लिए बीमारी के लिए उपचार करने का कोई साधन ही नहीं होता।एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सर्वाधिक ‘शिशु-मातृ मृत्यु’ दर वाला देश है। इसका मूल कारण गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण ही है। यद्यपि देश में कई सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं लागू हैं, पर प्रश्न यह है कि अगर किसी के गुर्दे खराब हो जाते हैं, मस्तिष्क की सर्जरी होनी है, हृदय रोग में बाइपास सर्जरी जैसी उपचार की आवश्यकता पड़ती है, दुर्घटना होने की स्थिति में जब हड्डियां टूट जाती हैं, उसका उपचार करवाने के लिए डॉक्टरों की शरण में जाना पड़ता है। कैंसर ग्रस्त व्यक्ति जीवन के लिए तड़पता है, उस समय बड़े-बड़े शहरों के प्राइवेट अस्पतालों की दहलीज पार करने की भी हिम्मत इन गरीब व्यक्तियों में नहीं होती।रोगियों की सबसे बड़ी पीड़ा तो यह है कि दवाइयों की मार्कीट की लूट से उसे बचाया जाए। एम.आर.पी. अर्थात अधिकतम खुदरा मूल्य इतना ज्यादा लिखा रहता है कि गरीब उपचार से पहले ही घबरा जाता है। मेरा अपना अनुभव है कि थोड़ा-सा भी परिचय होने पर या दवाई मार्कीट की जानकारी होने पर एम.आर.पी. से एक-तिहाई कम कीमत पर भी दवाइयां मिलती हैं और सभी अस्पतालों में डॉक्टर जो भी टैस्ट करवाने के लिए रोगियों को अस्पताल से बाहर लैबोरेट्री में भेजते हैं वहां भेजने वाले डॉक्टरों का कमीशन प्रतिशत तय रहता है।इन बड़े अस्पतालों में सब प्रकार के मैडिकल टैस्टों की सुविधा क्यों न हो। आज की स्थिति तो यह है कि सरकारी अस्पतालों से जो थोड़ी-बहुत दवाई रोगी को मिलती है उससे कहीं ज्यादा दवाइयां मार्कीट से लेनी पड़ती हैं। यह अच्छा कदम है कि अब बहुत से प्रांतों में 108 एंबुलैंस सेवा दी गई है, जिससे दूरस्थ क्षेत्रों में से भी रोगी समय पर अस्पताल में पहुंच जाता है।पूरे भारत में सरकार बच्चों के जन्म के लिए माताओं को सभी सुविधाएं अस्पताल में नि:शुल्क दे दे तो भी मातृ मृत्यु दर तथा शिशु मृत्यु दर में भारी कमी आ सकती है। पंजाब का मेरा अनुभव बहुत सुखद है और देश के बहुत से प्रांतों में अब यह व्यवस्था प्रारम्भ हो गई है। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक भारत में हर साल सड़क दुर्घटनाओं में 1.38 लाख लोगों की मौत हो जाती है। घायलों की संख्या का तो कोई अनुमान ही नहीं। इन बेचारों का उपचार सरकार की जिम्मेवारी होना चाहिए, जो आज तक नहीं हो सका। देश बहुत बड़ा है। गरीबों की संख्या भी बहुत है, इसलिए समाजसेवी संस्थाओं का सुनियोजित और सुसंगठित सहयोग रोगियों की मदद कर सकता है। इसके लिए सरकार को सूत्रधार बनना होगा। बात फिर वही है, आज जिसकी जेब में जितने ज्यादा नोट हैं वह उतना ही अच्छा इलाज करवा सकता है। गरीब के लिए तो बड़े अस्पतालों की दहलीज के पार जाना भी असंभव है।

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