जन कल्याण योजनाएं : कितनी कारगर ?

लोकतन्त्र में चुनाव अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक योजनाबद्घ तरीके से वोट बैंक भुनाने का प्रयास किया जाता है। सत्ता में आने के पश्चात देश के विकास व जन-कल्याण के लिए क्या-क्या योजनाएं बनाई जाएंगी तथा उनका कार्यान्वन किस प्रकार किया जाएगा, ये बातें आकर्षण का मुख्य केन्द्र रहती हैं। विजयी पक्ष द्वारा सरकार बनाने के पश्चात इन योजनाओं के प्रारूप तैयार करके इन्हें लागू करने की घोषणा भी हो जाती है। मीडिया के माध्यम से जानकारी भी जन-जन तक पहुंचाई जाती है। अपने वादों पर ़खरा उतरने के लिए सरकार का महिमा ब़खान भी हो जाता है तथा जनता भी सरकार की उदारता से अभिभूत होकर नतमस्तक हो उठती है, आगामी चुनाव के लिए आधार भी स्वत: ही तैयार होने लगता है। किंतु ह़कीकत से सामना होते ही प्रचार-प्रसार का मुलायम सुनहरी आवरण उतर जाता है। थोथी, कोरी, खुरदरी तथा कड़वी वास्तविकता सामने आते ही आम आदमी स्वयं को ठगा हुआ-सा महसूस करता है। ऐसी अनेक घटनाएं देखने-सुनने में आती ही रहती हैं जब पता चलता है कि योजनाएं तो महज फाइलों का ही हिस्सा हैं, स़िर्फ सरकार की ़िफराकदिली का ढिंढोरा पीटने का ज़रिया मात्र। दिल में आक्रोश का दर्द उभरता है लेकिन आम आदमी की आवाज़ प्रचार-प्रसार के हो-हल्ले में ही दब कर रह जाती है। 
़गौरतलब है कि 2005 में पंजाब सरकार द्वारा ‘बालड़ी रक्षक योजना’ चलाई गई थी जिसका उद्देश्य था कन्या जन्म दर को सुधारना। योजना के तहत चयनित 18 साल तक प्रत्येक लड़की को 500 रुपए प्रतिमाह मिलना तय हुआ था।  सरकार द्वारा यह भी ऐलान किया गया था कि जो भी आंगनवाड़ी वर्कर योजना के तहत परिवार नियोजन के लिए महिलाओं का रजिस्ट्रेशन करवाएंगी, उन्हें भी प्रति केस के हिसाब से 500 रुपए दिए जाएंगे। बड़े ही जोश व उत्साह से आरम्भ की गई इस योजना की गति दो साल बाद यानि 2007 में ही मंद पड़ने लगी तथा 2015 के बाद से तो यह पूरी तरह से फाइलों में ही सिमट कर रह गई। नई सरकार ने न तो इस योजना में कोई रुचि ही दिखाई, न ही इसे गंभीरता से लेना अपना ़फर्ज ही समझा। अगर हम ज़िले की ही बात करें तो अकेले जालंधर की ही 137 बेटियों को इस योजना के लाभ हेतु चुना गया था। प्राथमिक चरण में 500 परिवारों को लाभ देने की बात कही गई थी लेकिन सरकारों की उठा-पटक में यह योजना लाभार्थियों के लिए मात्र आहत होने का विषय बनकर रह गई है। जानकारी के अनुसार पिछले चार सालों में एक भी बेटी इस योजना का लाभ नहीं उठा पाई।
एक ऐसी ही जनकल्याण योजना का कड़वा सच बीते दिनों ही सामने आया। केन्द्र सरकार ने बड़े ही धूम-धड़ाके से ‘आयुष्मान योजना’ आरम्भ की जिसके तहत ़गरीबों को सस्ता व सही इलाज़ मिल सके। लेकिन इस योजना की अमली हक़ीकत से आहत व पीड़ित होना पड़ा एक दम्पत्ति को, जिन्हें आयुष्मान योजना के तहत बने कार्ड को लेकर सिविल अस्पताल व पैनल के तहत आते प्राइवेट अस्पतालों में रात भर भटकने के बाद भी कहीं भर्ती न मिली। मजबूरन 20 हज़ार रुपए देकर परिवार ने प्रसव पीड़ा से जूझती महिला की प्रसूति एक चेरीटेबल अस्पताल में करवाई। ये तो मात्र उदाहरण भर हैं। ऐसी बहुत-सी योजनाएं समय-समय पर आने वाली सरकारों द्वारा चलाई जाती रहीं हैं, किंतु वे केवल नाममात्र की ही योजनाएं बन कर रह गईं। आ़िखर क्या ़फायदा ऐसी कोरी योजनाओं का जिनकी सक्षमता की जांच भी ज़रूरी न समझी जाए? लाभार्थियों का लाभांश आ़िखर कहां जाता है, यह जानने की चेष्टा भी नहीं की जाती। काम में दम होना चाहिए वरना नाम में क्या रखा है? जो योजनाएं फाइलों का हिस्सा ही बन कर रह जाएं उन्हें आरम्भ करने का भला क्या औचित्य? वास्तविकता से पर्दा उठता है तो मीडिया के आवाज़ उठाने पर संबंधित अधिकारियों द्वारा हर बार बस उचित कार्यवाही का आश्वासन भर दे दिया जाता है किंतु इस आश्वासन से सरकार व प्रशासन कितना हऱकत में आते हैं या फिर इसे भी हर बार की तरह हवा में ही उछाल दिया जाता है, यह संशय का विषय बनकर ही रह गया है।