आसान नहीं है चीतों का पुनर्वास

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण के चलते वन्य जीवों के सामने चुनौतीपूर्ण हालात उत्पन्न हो गए हैं। उनके संरक्षण एवं पुनर्वास की अनेक कोशिशों के बावजूद न तो संरक्षण की स्थिति संतोषजनक हुई है और न ही गिरवन के सिंह जैसे दुर्लभ प्राणियों का पुनर्वास कूनो-पालपुर अभयारण्य में संभव हो पाया है। सर्वोच्च न्यायालय ने 74 साल पहले भारत में पूरी तरह लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्य प्रदेश सरकार के वन विभाग को दी थी। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नमीबिया से लाकर सागर ज़िले के नौरादेही अभयारण्य में नया ठिकाना बनाया जाएगा। यहां पिछले एक दशक से चीतों को बसाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जा रही हैं। दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता है। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर ज़िले का कूनो-पालपुर अभयारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज्यादा श्रेष्ठ माना गया। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है। एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था जिसे मार गिराया गया था। चीता तेज़ रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह सबसे तेज़ धावक था। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया। मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा। इस अभयारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र प्रस्तावित है। यह इलाका सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर ज़िलों में फैला हुआ है। सबसे ज्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 गांव सागर ज़िले में हैं। इनमें से 10 गांवों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है। शेष छतरपुर व नरसिंहपुर ज़िलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है। अर्थात् जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है, उससे ज्यादा कठिन व खर्चीला काम गांवों का विस्थापन है। देश में चीतों एवं सिंहों के पुनर्वास के प्रयत्न अब तक असफल ही रहे हैं।  दरअसल,  1993 में चार चीते दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से दिल्ली के चिड़ियाघर में लाए गए थे। बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए जाने वाला चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगटी राष्ट्रीय उद्यान और नमीबिया के जंगलों में भी गिनती के चीते ही हैं। ज्योऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ  लंदन की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो चुके थे। अब पूरी दुनिया में केवल 7100 चीते बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासाईमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब वहां इनकी संख्या गिनती की रह गई है।    इस सदी के पांचवे दशक तक चीते अमेरिका के चि?ियाघरों में भी थे। प्राणी विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया था। पर किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका।  भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य 1947 में बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में देखे गए थे। प्रदेश अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के ज़रूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया।मार्को पोलो ने तेरहवीं शताब्दी के एक दस्तावेज़ के हवाले से बताया है कि कुबलई खान ने अपने कारोबारी पड़ाव पर एक हज़ार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। चीते की लंबाई साढ़े चार से पांच फ ीट होती है। बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में चीते की पूंछ सबसे ज्यादा लंबी होती है। पूंछ की लंबाई तीन से साढ़े तीन फीट होती है। इसकी टांगें लंबी और कमर पतली होती है। पूरे तन पर छोटे-बड़े काले गोल-गोल धब्बे होते हैं। इसकी आंखों की कोरों से काली धारियां निकलकर इसके मुख तक आती हैं। ये धारियां बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों में नहीं होतीं। इसके गालों का हिस्सा उभरा हुआ होता है तथा सिर शरीर के अनुपात में थोड़ा छोटे होने के साथ धनुषाकार होता है, जिससे दौड़ते वक्त फेफड़ों से छोड़ी गई हवा के आवागमन कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। चीता बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों की तरह अपना शिकार रात में न करके दिन में करता है। इसके ज्यादातर शिकार छोटे प्राणी होते हैं। शिकार दृष्टिगत होते ही चीता शिकार की तरफ  दबे पैरों से आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और जैसे ही शिकार इसकी तूफानी गति के दायरे में आ जाता है, यह तत्परता से गति में आकर शिकार को दबोच लेता है। यह कार्रवाई इतनी आनन-फ ानन में होती है कि शिकार संभल भी नहीं पाता। चीता अपनी कोशिश में यदा-कदा ही नाकाम होता है। इसके प्रिय शिकार काला हिरण और चिंकारा हैं। शिकार से उदरपूर्ति करने के बाद चीता चट्टानों की गहरी गुफाओं अथवा घने जंगलों में आराम फ रमाता है। दरअसल एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के संरक्षण में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ  आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं इनके स्वाभाविक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। (स्रोत फीचर्स)