संविधान के रक्षक राष्ट्र्रपति का दिन है गणतंत्र दिवस

हमारे पहले राष्ट्रपति ने अपना पद हमारे पहले गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 1950) को संभाला था। हमारे पहले प्रधानमंत्री ने अपना पद हमारे पहले स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त 1947) को संभाला था। इसलिए मैं समझता हूं कि जिस प्रकार स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का लालकिले से दिया गया भाषण उनका वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण ऐलान होता है,उसी तरह से गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संबोधन, उनका साल का सबसे अहम भाषण होता है। इस दृष्टि से देखा जाये तो अगर स्वतंत्रता दिवस प्रधानमंत्री का दिन है, तो गणतंत्र दिवस राष्ट्रपति का दिन है।लेकिन इसके बावजूद यह सोचने की बात है कि जितनी चर्चा प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस के भाषण की होती है, उतनी राष्ट्रपति के गणतंत्र दिवस के संबोधन की नहीं होती है। उसके मुकाबले राष्ट्रपति का संबोधन मात्र औपचारिकता बनकर रह जाता है, खासकर इसलिए कि सरकार जो कुछ उन्हें अपनी नीतियों, योजनाओं, कार्यक्त्रमों, सफलताओं आदि के बारे में लिखकर देती है, वही उन्हें बोलना पड़ता है। यह एक तरह से ‘राष्ट्रपति रबर की मोहर से अधिक कुछ नहीं’ की प्रचलित धारणा को ही बलवती करता है। मुझे यह बात हमेशा ही अजीब लगी क्योंकि हमारे कुछ राष्ट्रपति (डा. एस राधाकृष्णन, केआर नारायण, डा. एपीजे अब्दुल कलाम) तो उच्चस्तरीय चिंतक व लेखक थे। क्या वे अपना भाषण स्वयं लिखकर राष्ट्रीय संभाषण में महत्वपूर्ण योगदान नहीं कर सकते थे? मैं 72वें गणतंत्र दिवस के सिलसिले में इस व इसी प्रकार के प्रश्नों पर विचार कर रहा था कि तभी मेरी निगाह दसवें राष्ट्रपति केआर नारायण के 1998 के गणतंत्र दिवस भाषण पर पड़ी, जो न सिर्फ राष्ट्रपतियों के भाषणों में अपवाद है बल्कि आज की स्थितियों में भी प्रासंगिक है। कोचरिल रमण नारायण जब राष्ट्रपति बने तो वह स्कॉलर्स, चिंतकों व शिक्षाविदों के बीच बहुत अधिक सम्मानित व विख्यात थे। जिन राजनयिकों व सांसदों के साथ उन्होंने काम किया वे भी उनका व उनके ज्ञान का बहुत अधिक सम्मान करते थे। हालांकि हिंदी पट्टी में उन्हें कम लोग ही जानते थे, लेकिन उनकी निष्ठा, बुद्धिमत्ता व स्वतंत्र-सोच पर किसी को कोई संदेह नहीं था। वह दलित होने के कारण राष्ट्रपति नहीं बने थे बल्कि उनका सर्वसम्मति से चयन इसलिए हुआ था, क्योंकि वह इस पद के योग्य थे और उनकी वजह से इस पद की गरिमा में वृद्धि हुई। इसलिए उनसे यह उम्मीद थी कि वह अपने पहले गणतंत्र दिवस पर वही कहेंगे जो वह कहना चाहते हैं और भाषण के शब्द भी उनके अपने होंगे और यही हुआ भी। 
जनवरी 1998 में भी राष्ट्रपति कार्यालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय व कैबिनेट सचिव से आये दिशानिर्देशों के अनुसार गणतंत्र दिवस के संबोधन का प्रारूप तैयार किया। इस प्रारूप को नारायण के समक्ष रखा गया। लेकिन नारायण तो अपनी सोच व अपने लेखन के आदी थे। उन्होंने ड्राफ्ट ध्यानपूर्वक पढ़ा, अपना कलम उठाया, ड्राफ्ट वाक्यों के बीच में अपने हाथ से पंक्तियां लिखीं, कुछ पैराग्राफों को पूरी तरह से काटकर अपने पैराग्राफ  लिख दिए और इस तरह विचार के लिए पेश किया गया ड्राफ्ट सिर्फ  कागज का टुकड़ा बनकर रह गया। अब एक नया भाषण था जिस पर पूर्णत: नारायण की छाप थी। गौरतलब है कि राष्ट्रपति जब खुलकर अपनी बात कहते हैं (जिसकी उनसे उम्मीद की जाती है व जो उनका अधिकार भी है) तो गणराज्य को लाभ होता है और जब वह ऐसा नहीं करते हैं तो रूटीन को  फ़ायदा होता है। नारायण का 1998 का गणतंत्र दिवस संबोधन क्लासिक है और आजाद भारत के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाये हुए है। नारायण की ये तीनों बातें 1998 में राष्ट्र की स्थिति को परिभाषित कर रही थीं। अफसोस यह है कि यह आज 23 वर्ष बाद भी राष्ट्र की स्थिति को परिभाषित कर रही हैं। भारत का राष्ट्रपति एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट नहीं है बल्कि उपाधिधारी (टाइटलर) है। लेकिन क्या इससे वह केक पर लगा फ्रोजन बटर-रोज बनकर रह जाता है? नहीं। राष्ट्रपति जो शपथ लेता है, उससे उस पर ‘संविधान को रक्षित (प्रीजर्व), सुरक्षित (प्रोटेक्ट) व रक्षा (डिफेंड)’ की जिम्मेदारी आ जाती है। ‘रक्षित’ व ‘सुरक्षित’ का अर्थ यह है कि राष्ट्रपति को अपने संवैधानिक पद की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना है।लेकिन शब्द ‘रक्षा’ के महत्व को अनदेखा नहीं करना चाहिए। संविधान की रक्षा किससे करनी है? जाहिर है उन लोगों से जो संविधान, उसके प्रावधानों व उसके मूल्यों को हाशिये पर डालने का प्रयास कर रहे हों। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा इस तरह ही कर सकता है कि अपने व्यक्तिगत एजेंडा को एक तरफ र खते हुए अपने विचारों को खुलकर व बेबाकी से व्यक्त करे ताकि सरकार सावधान हो जाये और संविधान के मार्ग पर ही चलती रहे। अगर नारायण का पहला गणतंत्र दिवस संबोधन यादगार था तो दूसरे राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन का 1967 का गणतंत्र दिवस भाषण शानदार था, जिसमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण व समता की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा था, राष्ट्रीय संसाधनों के जबरदस्त कुप्रबंधन और व्यापक अक्षमता को हम माफ  नहीं कर सकते। यह सही है कि हर राष्ट्रपति दार्शनिक नहीं होता, लेकिन हर राष्ट्रपति संविधान का रक्षक होता है। जीवन, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, धर्म आदि हर नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार है और इस अधिकार की रक्षा करना राष्ट्रपति की जिम्मेदारी है। 

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