स्वैच्छिक मृत्यु के संबंध में सरकार स्पष्ट नियम बनाए (कल से आगे) बात भारत की


जहां तक भारत का प्रश्न है। भारत में कानूनी तौर पर स्वैच्छिक मृत्यु की धारना को स्वीकृति नहीं है। आत्महत्या को लेकर कानूनी स्थिति यह है कि कुछ समय पूर्व तक आत्महत्या करना कानून की धारा 309 के तहत अपराध माना जाता था। हालांकि इसे लेकर समय-समय पर न्यायालयों में बहस ज़रूर होती रही है। न्यायालय द्वारा वैसे धारा 309 को हटाया नहीं गया परन्तु मानसिक स्वास्थ्य सम्भाल संबंधी कानून 2017 की धारा 115 ने धारा 309 को कम कर दिया है। धारा 115 में आत्महत्या को आपराधिक कृत्य की सूची से अलग कर दिया है। हालांकि इसलिए आवश्यक शर्तों में कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति मानसिक दबाव में होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि 2008 में लॉ कमिशन द्वारा अत्महत्या को गैर-आपराधिक करने के संबंध में रिपोर्ट पेश की गई थी, जिस में कहा गया था, ‘खुदकुशी करने की कोशिश मानसिक बीमारी के  लक्ष्ण हैं जिसका सम्मान के साथ इलाज करने की आवश्यकता है न कि सज़ा देने की। 
अत्महत्या को लेकर कानून में ज़िक्र तो किया गया, परन्तु स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर कुछ भी खुलासा नहीं किया गया। 2006 में लॉ कमिशन द्वारा स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर कुछ भी खुलासा नहीं है। 2006 में लॉ कमिशन द्वारा स्वैच्छिक मृत्यु के संबंध में संशोधित की गई 196वीं रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया कि ला-इलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए, जो डाक्टरी मदद आर्टिफीशियल फीडिंग आदि से इन्कार कर दें, उन्हें कानूनी पक्ष से स्वैच्छिक मृत्यु के लिए सुरक्षा मिलनी चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार मरीज़ ला-इलाज बीमारी से पीड़ित होना चाहिए। 
भारत में स्वैच्छिक मृत्यु के लिए सबसे चर्चित केस अरुणा रामचन्द्र शानबाग का रहा। 1973 में शारीरिक शोषण तथा दुष्कर्म का संताप झेलने वाली अरुणा 4 दशकों से अधिक समय तक अस्पताल में रही। अरुणा ‘ब्रेन डेड’ नहीं थी, परन्तु पूरा समय उसे पाइपों के माध्यम से खाना देकर जीवित रखा गया, परन्तु वह कभी होश में नहीं आईं। उसकी सहेली ने उसकी स्थिति का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी कि उसे पाइपों के माध्यम से दिया जा रहा खाना बंद कर दिया जाए और उसे शांति की मौत दी जाए। इस मामले ने स्वैच्छिक मृत्यु के समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों को एक बार पुन: ज्वलंत कर दिया था। भारत में इस मामले में अदालत ने पहले स्पष्टीकरण दिया कि यूथेनसीया क्या है? अदालती स्पष्टीकरण में ही आसान अंत को एक्टिव एवं पैसिव तथा स्वै-इच्छा और बिना इच्छा के आधार पर बांटा गया। 
अरुणा के केस के अतिरिक्त भी कई मामले चर्चा में रहे, परन्तु इनमें ज्ञान कौर बनाम पंजाब सरकार का मामला सबसे अधिक सुर्खियों में रहा। 1996 में निचली अदालत ने ज्ञान कौर तथा उसके पति हरबंस सिंह को ताज़ीरात-ए-हिंद की धारा 306 के उल्लघंन का आरोपी पाया। दोनों को कुलवंत कौर (उनकी बेटी) की आत्महत्या में मदद करने के लिए 6 वर्ष की कैद की सज़ा तथा 200 रुपये का जुर्माना लगाया गया। हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत का फैसला बरकरार रखा। हालांकि जेल की सज़ा कम करके 6 से 3 वर्ष कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संवैधानिक पीठ द्वारा दिये गये फैसले में कहा गया कि संविधान की धारा 21 के तहत दिये गए जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि जीने के अधिकार में मरने तक सम्मानदायक जीवन का अधिकार भी शामिल है, जिसे सम्मानजनक एवं प्रकृतिक मौत के क्रियान्वयन को साथ लेकर देखना होगा। भिन्न-भिन्न समय पर उभरे अन्य कई केसों जिनमें एच.बी. कारीबासामरा बनाम भारत सरकार कामन काज़ बनाम भारत सरकार तथा चन्द्रकांत टांडले बनाम महाराष्ट्र सरकार जैसे केस शामिल हैं, में स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर चोखी चर्चा हुई, परन्तु केसों में हुई चर्चा, इस संबंध में कोई प्रभावी कदम उठाने या कोई कानून बनाने की दिशा का आधार नहीं बन सकी।
ऐसे कई अन-सुने, दृष्टिविगत और अन-समझे मामले होंगे, जिन्हें खंगालने के लिए कभी ज़मीन नसीब नहीं हुई होगी। भारत में यह स्थिति इसलिए और गम्भीर हो जाती है, क्योंकि यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कोई अधिक उदार रवैया नहीं है। गूगल द्वारा हाल ही में करवाए गए सर्वेक्षण के अनुसार 43 प्रतिशत लोग किसी न किसी अवसाद अर्थात् मानसिक परेशानी का शिकार हैं। मन की इन उलझनों को जटिल गांठें बनने से पहले पलोसने की आवश्यकता है। 
व्यापक समाधान के लिए व्यापक तस्वीर को लेकर चलना होगा। अभी तक भारत में सार्वजनिक मंच पर आये मामलों में ही अदालती फैसले दिये जा रहे हैं। स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर कोई मुलभूत ढांचा, कोई नीति, कोई कानून नहीं है। स्पष्ट दिशा-निर्देशों की कमी में मामला अदालती चक्करों में फंसा रह जाता है और बहुत कुछ जजों की पीठ की सोच पर ही छोड़ दिया जाता है। प्रश्न न्यायपालिका द्वारा दिये गये फैसले पर अंगुली उठाने का नहीं है, परन्तु अब समय आ गया है कि स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर देश में स्पष्ट दिशा-निर्देश या नीति बनाई जाए। ज़रूरी नहीं है कि यह नीति स्वैच्छिक मृत्यु को कानून स्वीकृति देने की दिशा में ही हो। नीति निर्माण से पहले संबंधित पक्षों, जिसमें डाक्टर, कानून विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, मरीज़ा या उनके रिश्तेदार, जनता के प्रतिनिधि आदि शामिल करके उनसे व्यापक विचार-विमर्श किया जाए। इस चर्चा में विभिन्न देशों में इस संबंध में बनाए कानूनों तथा उनकी प्रतिक्रियाओं को भी ध्यान में रखा जाए। इस चर्चा का जो भी निष्कर्ष निकल कर आए, उसे दिशा-निर्देश या नीति के रूप में पेश किया जाए। 
यह नीति बनाने से फैसला लेने में आने वाली स्पष्टता के कारण अदालती कार्य भी आसान होगा। इसके अतिरिक्त नीति बनाने से भारत में अभी दृष्टिविगत किये जा रहे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को भी एक सही दिशा मिलेगी। ऐसे समय में जब अधिकतर देश स्वैच्छिक मृत्यु को लेकर अपने-अपने स्टैंड बारे स्पष्ट हैं या भारत को इसके लिए निश्चित ढांचा बनाने की दिशा में कदम उठाने के लिए और समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। (समाप्त)