कुदरत के स़फाई कर्मचारी

मैं जब बचपन में जालन्धर से फगवाड़ा जाते समय चहेड़ू के पुल से आगे हड्डा-रोड़ी को पार करती थी, तो बस की खिड़की में से हज़ारों गिद्धों को देख कर हैरान हो जाती थी। पहले, गिद्धों के विशाल झुण्ड सड़कों के किनारों पर, रेलवे पटरियों के पास, खेतों में अथवा आसमान में शान से उड़ते हुए दिखाई देते थे परन्तु ये कुछ ही वर्षों में अलोप हो गए। ‘गिद्ध’ नाम सुनते ही उबकाई-सी आती है। मन में दुर्गंध, मरे हुए, सड़े-गले जानवरों का विचार आ जाता है, परन्तु वास्तव में गिद्ध को प्रकृति के सफाई-स्वच्छता कर्मचारी कहा जा सकता है। ये हमारे ‘ईको सिस्टम’ में वातावरण को साफ एवं रोग-रहित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। फिर भी ये नापसंद किए जाने वाले तथा धरती के इतिहास में सर्वाधिक तेज़ी से घटने वाले जीव हैं। लगभग दो-तीन दशक पूर्व भारत में चार करोड़ गिद्ध थे, जोकि अब कुछ ही हज़ार की संख्या में रह गए हैं। आज ये अपने बचाव की पराजित हुई लड़ाई को जीतने की बड़ी शिद्दत के साथ कोशिश कर रहे हैं। आठवें दशक में भारत में गिद्धों की संख्या सबसे ज्यादा थी। यहां गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थीं, परन्तु केवल दो दशक के भीतर ही गिद्धों की 99 प्रतिशत संख्या कम हो गई, जिससे एक बेहद गम्भीर ईकोलॉजिकल असंतुलन पैदा हो गया है। गिद्ध हमारी धरती के ‘कुशल मुर्दाखोर’ हैं तथा धरती की ‘फूड चेन’ की एक अहम कड़ी हैं। इनके कारण जल-प्रदूषण, भू-प्रदूषण एवं बहुत-सी बीमारियों जैसे ‘गैंगरीन, टैटनेस, सैप्टिक, ब्लड प्लोटिंग, एप्सेंस एन्थ्रैक्स, बोटूलिज़्म’ तथा मुंह की कई बिमारियों आदि से बचाव रहता है। मनुष्य जाति एवं धरती के शेष जीव-जन्तुओं को अनेक विषाक्त एवं खतरनाक बैक्टीरिया तथा वायरस से होने वाली बीमारियों से भी बचाव रहता है। गिद्धों का एक छोटा-सा समूह 300-400 किलो के जानवर के मांस को कुछेक घंटों में ही खा जाता है तथा केवल जानवरों की हड्डियां ही शेष बचती हैं। इनके अलोप होने से गला-सड़ा मांस कई-कई दिनों तक शहरों एवं गांवों के बाहर बिखरा दिखाई देता रहता है। नाक को भर देने वाली दुर्गंध के अतिरिक्त विषाक्त एवं खतरनाक वायरस एवं बैक्टीरिया इसमें पलते रहते हैं। चूहों, कौवों एवं आवारा कुत्तों की संख्या भी बढ़ती है। फिर इन कुत्तों के मुंह को कच्चा मांस इस तरह लग जाता है कि ये इसके न मिलने पर खूंखार हो जाते हैं तथा इन्सानों को काटना शुरू कर देते हैं, जिससे न केवल बच्चों को अपितु बड़ों को भी शारीरिक पक्ष से नुक्सान उठाना पड़ता है। वहीं इनके कारण अनेक खतरनाक बीमारियां जैसे रैबीज़ आदि भी फैल जाती हैं। 1990 के अन्त में बांबे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बी.एन.एच.एस.) ने गिद्धों की संख्या में एकाएक गिरावट आने का कड़ा नोटिस लिया, जिसके फलस्वरूप विश्व के वन्य जीव विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, पक्षी विशेषज्ञों के लिए इनकी रहस्यपूर्ण मृत्यु का भेद ढूंढना एक बड़ी चुनौती बन गया। फिर पाकिस्तान में मरने वाले कुछ गिद्धों पर अमरीकी वैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया तो यह बात सामने आई कि इनकी मृत्यु किडनी फेल्योर के कारण हुई थी। उच्चस्तरीय जांच-पड़ताल से पता चला कि गिद्धों का किडनी फेल्योर ‘डाइक्लो फिनैक’ नामक दवाई के कारण हो रहा था। ‘डाइक्लो फिनैक’ इंजैक्शन  के माध्यम से अथवा गोलियों के द्वारा इन्सानों एवं विशेष रूप से पशुओं को दर्द आदि से राहत देने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली एक प्रमुख दवा थी। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान एवं नेपाल के 99 प्रतिशत गिद्ध इसी कारण नहीं बचे थे। इससे चिंतित होकर सन् 2000 में वर्ल्ड कन्ज़रवेशन यूनियन ने गिद्धों को ‘क्रिटिकली इन्डेंजर्ड’ प्रजातियों में शामिल कर दिया जिसका अर्थ है कि यह दुनिया में सबसे जल्दी एवं तेज़ी से खत्म हो रही प्रजाति है। फिर 2002 में भारत ने इन्हें ‘इंडियन वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन’ एक्ट के ‘शैड्यूल-1’ में शामिल कर दिया। मार्च 2005 में भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने पशुओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ‘डाइक्लोफिनैक’ का 6 महीनों के भीतर उत्पादन बंद करने एवं इसे बाज़ार से खत्म किए जाने का आदेश दिया था। इस दौरान डाक्टरी विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने इस दवाई का विकल्प ‘माइलौक्सिन’ ढूंढ लिया। इस दवाई का पशुओं एवं गिद्धों पर परीक्षण किया गया तथा इसे सुरक्षित पाया गया। यह तो गिद्धों की प्रजाति को बचाने के संघर्ष की अभी शुरुआत ही है, लेकिन इनके पुनरुत्थान के लिए केवल वैज्ञानिकों अथवा वन्य जीव विशेषज्ञों का ही नहीं अपितु प्रत्येक इन्सान, प्रत्येक किसान, प्रत्येक पशु-पालक द्वारा योगदान डाला जाना केवल अहम ही नहीं, अपितु आवश्यक भी है। 

(शेष अगले रविवारीय अंक में)