पंजाब में महामारियों के कहर का इतिहास

महामारियां समय-समय पर विश्व में होती रही हैं और लोग इनका क्षमता के अनुसार सामना करते आए हैं। वर्तमान विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान के युग में कोरोना जैसी नामुराद बीमारी ने दुनिया भर को अपनी चपेट में ले लिया है और लोग इससे बेहद चिंतित और डरे हुए हैं। इस बीमारी के वायरस के कारणों का अच्छी तरह पता नहीं चल सका, चाहे यह चीन देश से कुछ महीने पहले शुरू हुई। इस बीमारी का सही उपचार आज तक नहीं मिल सका और उम्मीद की जाती है कि निकट भविष्य में बीमारी का उपचार ढूंढ लिया जायेगा। मलेरिया, चेचक (शीतला, बड़ी माता), हैजा और प्लेग आदि बीमारियां भारत में भूतकाल में होती रही है। पंजाब जिसमें पाकिस्तानी और भारतीय पंजाब शामिल है, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश भी शामिल थे, पर मलेरिया ने 1850 ई. से लेकर 1947 तक 15 हमले किए, जिससे 51,77,407 ज़िंदगियां खत्म हुईं। 1891 में कई वर्ग मील में बीजी धान और मक्की की फसल के लिए कटाई और सम्भाली नहीं जा सकी क्योंकि गांवों के लोग इतने कमज़ोर हो गए थे कि वह फसल को काट और संभाल नहीं सके। शहरों में रोटी कमाने वाले पुरुष बीमार थे, जिस कारण परिवार भूखे मर रहे थे। इस बीमारी ने पंजाब के 25 केन्द्रीय ज़िलों में तबाही मचाई हुई थी, जहां 2203576 ज़िंदगियां खत्म हुईं। जालन्धर, अमृतसर, लाहौर, गुजरांवाला और शाहपुर ज़िलों तथा रावलपिंडी और पेशावर के अर्द्ध-पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक बारिश हुई, मच्छर बहुत पैदा हुआ। मिंटगुमरी, लायलपुर, झंग, मुल्तान और डेरा गाजी खां के खाद्य क्षेत्रों में भी 878763 लोगों की जान गई। पंजाब के हिमालय क्षेत्र में भी 155493 मौतें हुईं। चेचक की बीमारी से 1868-1947 तक पंजाब के क्षेत्र में 830591 मौतें हुईं। 1875-1919 में जब चेचक ने बहुत जोर पकड़ा तो 27 ज़िलों में दो लाख पचास हज़ार लोगों ने जान गंवाई। उत्तर पश्चिमी और दक्षिण पूर्वी ज़िलों में इस बीमारी का बहुत जोर था, जहां लोग टीका लगवाने की बजाय पूजा-अर्चना में विश्वास रखते थे। करनाल, रोहतक और साथ के क्षेत्रों के लोग गुड़गांव में शीतला देवी के मंदिर ज्यादा जाते थे और टीके लगवाने पसंद नहीं करते थे। 1866 और 1921 के मध्य 12 हैजे के हमले हुए, जिनसे 249050 लोगों ने जान गंवाई। वर्ष में औसतन 4357 जानें खत्म हुईं। गुजरांवाला, हजारा, रावलपिंडी, अम्बाला, गुड़गांव, लाहौर, जालन्धर, पेशावर, अमृतसर तथा शाहपुर ज़िले बुरी तरह प्रभावित थे। इन ज़िलों में स्थानीय और क्षेत्रीय मेलों पर भीड़भाड़, स्वस्थ हालात में न रहने और इसके अलावा साफ पानी की कमी के कारण महामारी फैली। 1897-1918 के समय पंजाब के 26 ज़िलों में प्लेग की बीमारी महामारी का रूप धारण कर गई और समूचे भारत की औसतन मृत्यु दर से यह दर चार गुणा हो गई थी। अन्य महामारियों की अपेक्षा यह बहुत भयानक थी। प्लेग ज़िला जालन्धर के गांव खटकड़ कलां से शुरू हुई, जहां इस बीमारी का पहला मरीज़ 17 अक्तूबर, 1897 को मिला। 1899 तक प्लेग जालन्धर तथा होशियारपुर ज़िलों तक सीमित रही और इसके कारणों तथा बढ़ने के कारणों से लोगों के अनजान होने के कारण यह 1900 तक पटियाला रियासत में भी फैल गई। 1901 में यह महामारी और घनी कृषि वाले तथा घनी आबादी वाले मध्य पंजाब के क्षेत्रों में फैली और सात ज़िले प्रभावित हुए तथा साथ ही फिरोज़पुर, गुरदासपुर और सियालकोट ज़िले भी इसकी मार में आ गए। 1901-02 में यह उन दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्रों में भी चली गई, जहां नहरों का निर्माण करके लोगों को स्थापित किया जा रहा था। नहरी सिंचाई से नमी का स्तर बढ़ गया, जिसने इस बीमारी के फैलने में वृद्धि की। 1902-03 के अंत में 21 ज़िले प्रभावित हुए और 1904-05 तक 26 ज़िले इसकी मार में आ गए। सिंध से पार का डेरा गाजी खां का ज़िला भी इसकी चपेट में आ गया। लेखक की दादी बताती थी कि इस बीमारी का यह हाल था कि लोग घर के एक सदस्य का संस्कार करके आते थे, घर आते ही एक और सदस्य की मौत हुई होती थी। ग्रामीण जनसंख्या जहां नमी और दलदली हालात होते थे, मच्छरों के पलने के लिए बढ़िया जगह थी। पैसे की कमी के कारण गांवों के छप्पड़ों और खड्डों आदि से जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं था। आदमी और चिकित्सा सहायता भी ज़रूरत के अनुसार उपलब्ध नहीं थे। लोगों को कुछ सूझता नहीं था और उनके पास बीमारी के कारणों तथा पर्याप्त रोग निरोधक ढंग अपनाने के लिए कोई जानकारी नहीं थी। 1868 से 1890 तक ग्रामीण क्षेत्रों में हैजे से मरने वालों की दर शहरी क्षेत्रों से चार गुणा अधिक थी। गांवों में पीने वाला पानी जो कच्चे तालाबों या खुले कुओं से उपलब्ध होता था, वह दूषित होता था। खाद्य पदार्थ जो गांवों में देखे जाते थे, मिलावटी और गले-सड़े होते थे। शहरों में दूध, मक्खन तथा अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद म्युनिसीपल कमेटियों की निगरानी में होने के कारण वहां हालात कुछ अच्छे थे। प्लेग भी अधिकतर गांवों में ही प्रकोप थी, क्योंकि वहां रिहायशी मकान कम हवादार थे। ऐसे मकान जिनके निर्माण की योजना भी गलत होती और छोटे होने के कारण भीड़भाड़ अधिक होती रहती थी, वहां बीमारी जल्दी फैलती थी। गांवों में अनाज का भण्डारण शहरों की अपेक्षा ज्यादा होता था, और मकान भी कच्चे होते थे, जिस कारण चूहे बहुत पलते थे, इस कारण गांवों में प्लेग का प्रसार शहरों की अपेक्षा अधिक होता था। चूहे इस बीमारी का बड़ा कारण थे। चेचक की बीमारी को रोकने की बजाय बढ़ने दिया जाता था और पूजा की जाती थी। 1873 में कांगड़ा, होशियारपुर, जालन्धर और गुजरात में ज्यादा पूजा की तरफ ध्यान दिया जाता था जिस कारण बीमारी घातक रूप धारण कर गई। लोग एकत्रित होकर मरीज़ों और लाशों के पास हमदर्दी करने के लिए बैठते थे, जिससे बीमारी को बढ़ने के लिए बल मिलता था। धार्मिक मेलों में यात्रा पर जाना हैजे के फैलने का बड़ा कारण था, क्योंकि इन स्थलों पर भारी भीड़ होती थी। सफाई और शुद्ध पीने वाले पानी की कमी के कारण लोग संक्रमित हो जाते थे और इन स्थानों से जो पानी प्रसाद के रूप में लाते थे, वह भी अशुद्ध होता था और यह यात्री वापिसी के समय अन्य लोगों को बीमार कर देते थे। हरिद्वार का कुम्भ मेला, नूरपुर, कटासराज, ज्वालामुखी और नयनादेवी के मेलों में जाने के कारण हज़ारों लोगों का संक्रमित होना लगभग तय होता था। 1872 में पेशेवर माउंटेन बैटरी के सैनिक लूशाई मुहिम से जब लौट रहे थे तो उनसे झेलम, रावलपिंडी, लाहौर तथा मियांमीर में हैजा फैल गया। ब्रिटिश लोग इस बात को नहीं मानते थे कि नहरें बनाने, रेलवे और सड़कें बनाने से महामारियां फैलने में वृद्धि हुई, परन्तु फिर भी भारत सरकार ने 1825 में यह देखा कि पश्चिमी  यमुना नहर के पानी से सिंचाई वाले ज़िलों में अन्य ज़िलों के मुकाबले अधिक लोग महामारियों से ग्रस्त थे। करनाल के निकट नहर की कतारबंदी 400 वर्ष पूर्व वाली नहर की थी, जो गलत थी और वह सेम की बड़ी समस्या का कारण बनीं। खेतों में पानी जमा होने के कारण मच्छर पैदा हुआ और मलेरिया फैला। नहरीकरण की नमी का स्तर बढ़ाया जिस कारण झंग, गुजरांवाला और लाहौर में क्रमवार 1902-1906, 1892-1905 तथा 1904-06 में मलेरिया बहुत फैला। 1897 में यह परिणाम निकाला गया कि मलेरिया की बीमारी मच्छरों के कारण होती है और इस तरह मच्छरमार मुहिम शुरू हुई। लोगों को कुनीन की गोलियां दी जाने लगी। चेचक की बीमारी के टीके लगने शुरू हुए। इसके लिए एक मंत्रालय खोला गया। लोगों को एकत्रित करके टीके लगाये जाते थे। बच्चों को लगवाने आवश्यक कर दिए। 1929 में टीकाकरण को ग्रामीण क्षेत्रों में ले जाया गया। कई स्थानों पर विरोध हुआ। ज़िला के डिप्टी कमिश्नरों तथा अन्य कर्मचारियों द्वारा लोगों को टीके लगवाने के लिए उत्साहित किया जाता था। यह टीके 1947 के बाद भी कई वर्ष लगते रहे। प्लेग की महामारी को फैलने से रोकने के लिए कई ज़िलों के अधिकारियों को खास निर्देश दिए गए। शारीरिक दूरी को आवश्यक करार दिया गया। गांवों को संक्रमण से मुक्त करने के लिए पूरी तरह खाली करवाया गया। मकानों को डिस्इनफैक्ट किया गया। प्लेगग्रस्त हालातों को सील किया गया और लोगों को 48 घंटों में आवश्यक सामान लेकर कैम्पों में जाने के लिए कहा गया। छोड़े गए घरों को शुद्ध और कीटाणु मुक्त किया गया, रोशनदान रखे गए तथा मकानों को सफैदी करवाई गई। गांवों और शहरों में लोगों का दूसरी जगह जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। रेल यात्रियों का रिकार्ड रखा जाता था और उनका कई स्थानों पर निरीक्षण होता था, क्योंकि प्लेग ब्रिटिश सरकार के आर्थिक आधार को बुरी तरह प्रभावित करती थी जो सरकार ने विशेष ढंग अपनाते हुए इस बीमारी को दूर करने के लिए अपने दृढ़ निश्चय का प्रयोग किया, जिस कारण बीमारी शीघ्र ही खत्म हो गई। लोगों ने भी अपना बहुत योगदान डाला। 

मो. 98140-74901, 97798-98282