अंधे कुओं के वारिस

इतना वक्त गुज़र गया, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। कल तक जो अपने आपको नवांकुर कह कर उनके गमलों में रोपित हो जाना चाहते थे, आज वह अचानक बरगद बन कर उन्हें अपने साये से महरूम कर देना चाहते हैं।  कल तक जो उन्हें क्रांतिकारी कह उन पर आलोक आरोपित कर उसकी विरासत का ध्वज जो जाना चाहते थे, आज उन्हें बीते जमाने की अंधेरी परछाई कह उससे यूं अलग हुए कि जैसे चिहुंक कर कहते हो, ‘छाया मत छूना मन। हो जाएगा दुख दूना मन।’ 
वे लाख उन्हें गलत कह दें सच सच चिल्ला दें, बस्ता ढोने से कहीं बेहतर है, अपना ग्रन्थ आप रचने का दावा करना। आजकल जल्दी समझ आ जाती है, किसी ज्योति स्तम्भ से आलोकित होने की बजाय, उसके समानान्तर अपना ज्योति स्तम्भ स्थापित कर देने का शुबहा पैदा कर देना। यह सच है जो आज उनके आंगन में झूठ था, वह हमारे आंगन में सच का शृंगार बनेगा, तभी तो हमारी मौलिकता, हमारे अलगाव की ताजपोशी होगी। ऐसा उन्होंने सब को बता दिया। 
इसीलिए तो आज सहज स्वीकार से अधिक सार्थक आक्रामक नकार हो गया है। हर बदलाव के आंदोलन का सामना करने का एक ही तरीका है, पहली जितनी देर हो सके, उसके सुगबुगाते हुए बजूद की अवहेलना कर दो, फिर अपनी मूर्तिभंजक भूमिका से किसी ऐसे दरकिनार कर दिये गये तर्क के ढांचे को शिरोधार्य कर वाचाल स्वर में उसका प्रतिस्थापन कर दो। बदलाव की पहली आवाज़ खुद ही शर्मिन्दा हो कर गूंगी हो जाएगी। आपका विकल्प के रूप में उत्पन्न झूठा सच ही बदलाव की बयार बन जायेगा। पुरोधा को नकार कर ही भविष्य पुत्र पैदा होते हैं। समय हमेशा आने वाले कल को आशीर्वाद देता है, बीते कल के लिए तो आजकल कोई विदागान भी नहीं गाता।  यह वक्तव्य अपनी दाड़ी खुजाते एक भविष्य जीवी नागरिक अपने समकक्ष दूसरे सत्य की पैरवी करते हुए समकालीन जुझारुओं के लिए कहा था, कि जिनकी समकालीनता छीन उन्हें पिटा हुआ बोसीदा सच कह उन्हें पटरी से उतार देने में ही जैसे अपना क्रांतिबोध मारक बना रहे थे। 
लीजिये एक क्रांति संभाषण से बड़ा बन कर दूसरा संभाषण उससे टकराया। टकरा कर ये सब संभाषण तो अपनी सफलता की मंज़िलें तय करते चल गये, नीचे धरती तल पर रह गये वे करोड़ों लोग, जिन्हें अपने कंधों पर बैठाकर इन भाषणबाजों ने उड़ान भरनी थी। उड़ान तो उनकी जारी है, परन्तु इस उड़नखटोले पर सवार हैं उनके नाती-पोते, जो कभी उनके अपने आदमी थे, वही बन गये वंशज, जिनके पत्तों पर तकिया वही अब उन्हें हवा देता कह कर इधर-उधर बिखरा दिये गए। प्रगति के रास्ते पर सत्ता की दलाली के इतने टीले खड़े हो गये कि परिवर्तन की पुकार नासमझी लगने लगी है। और हर क्रांति की हुंकार बड़ी हवेलियों के द्वार से अपनी प्राण वायु के लिए कतार लगाती दिखने लगी है। 
कोरोना महामारी विदा नहीं हुई, और बर्डफ्लू की दहशत बेचने की फेरी लगाने वाले अपने इलाके के उल्लुओं के मरने की खबर सुनाने लगे। अजी, धन जन की सत्ता के सिंह पुत्रों का कारोबार दहशत के इन पंखों से ही उड़ान भरता है। कोरोना की महामारी चली, तो उसे साधारण फ्लू कह कर नकारने वाले मास्क धारण किए मिले थे। पहले नारा उभरा ‘जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं।’ और ढिलाई न रखने के संदेशवाहकों में छिपे दवा बेचने वालों से लेकर उपचार करने वालों की कालाबाज़ारी की मिलावट होने लगी अचानक राखपति लाखपति बन गए। महामारी का पूर्ण बंदी का कारवां गुज़र गया, तो जो धरती पर उकाड़ूं बैठा कोरोना संक्रमण की दहशत से कांप रहा था, वह अब बर्ड फ्लू के आगमन से थरथरा रहा है। नहीं बदली उसके बैठने की जगह। हां, निवेश के आकाशचारियों ने तरक्की के नये आसमान छू लिये, जो धनपति थे, और परिवर्तन के नाम पर मरते निवेश को ज़िन्दगी दे देने का दावा कर रहे थे, वे तो दुगनी तरक्की कर गये और उनकी कतार से बहिष्कृत लोगों की रोज़ी-रोटी भी गई। उखड़े हुए लोगों के भाग्य में तो उखड़ना ही लिखा होता है। उनका बेकार युवा बल गांवों से उखड़ता है तो शहरों की ओर धंधा पाने का रुख करता है। कोरोना की मृत्युवाहिनी की ध्वनि ने उन्हें शहरों की गंदी  बस्तियों से उखाड़ कर वापस गांवों की ओर फेंका कि जाओ एक नये कृषक भारत का निर्माण करो, लेकिन वहां तो वहीं ऊसर वीरानी थी और धनाढय साहूकार, दलालों और ज़मीदारों के पास बंधक पड़े बटाईदर थे। उनके लिए जगह न वहां थी, न शहर में। अब तो विदेशों में दोयमदर्जे की नागरिकता का आसरा भी न रहा। इसलिए बेकारी, महंगाई और भ्रष्टाचार की स्पूतनिक गति से भटकते आंकड़े उन्हें नारों के एक अन्धे कुएं से दूसरे कुएं में डाल देते हैं। 
अन्धे कुओं की यह कैसी विरासत है, जो कानून बदलाव की क्रांति को एक शुबहे में बदल देती है। असल किसान क्रांति की खोज में जो देश की राजधानी पर लाखों व्यग्र लोगों का धरना लगा है, उसे भी एक शुबहे में बदलने की खोज करने वाले कम नहीं रहे। यह परिवर्तन युद्ध संशय के किन बादलों में भटक रहा है, कि लाखों दुआओं के बाद महामारी के उपचार के टीके निकले तो उन्हें भी प्रभावहीनता के संशय से ढंका जा रहा है। हां, एक नये, स्वच्छ, स्वस्थ और समतावादी लोकतंत्र का निर्माण करना है। परिवर्तन के अग्रदूत आज भी कहते हैं, लेकिन उनके हर कदम पर संशय के  मेघदूत क्यों बरसने लगते हैं? इन प्रश्नों के इस सलीब का जवाब तलाशने हम कहां जायें?